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This Article is From Oct 08, 2014

मणि-वार्ता : सभी देशों में 'पीएम' होता है, हमारे पास 'ईएम' (ईवेन्ट्स मैनेजर) है...

मणि-वार्ता : सभी देशों में 'पीएम' होता है, हमारे पास 'ईएम' (ईवेन्ट्स मैनेजर) है...

मणिशंकर अय्यर कांग्रेस की ओर से राज्यसभा सदस्य हैं...

सभी देशों के पास 'पीएम' (प्राइम मिनिस्टर - प्रधानमंत्री) होता है, हमारे पास 'ईएम' (ईवेन्ट्स मैनेजर) है। अमेरिका (बॉक्सिंग मैचों तथा पॉप कॉन्सर्टों के लिए मशहूर मैडिसन गार्डन्स) के 'धमाकेदार' दौरे से लौटकर, जहां उन्हें अपने एनआरजी (यानि अनिवासी गुजरातियों) फैन क्लब की वाहवाही के अलावा कुछ ज़्यादा महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल नहीं हो पाई, उन्होंने एक और बढ़िया फोटो-ऑप का जुगाड़ किया, और झाड़ू उठाकर वाल्मीकि कॉलोनी में कूड़े के एक ढेर के सामने बेहद फोटोजेनिक तरीके से खड़े हो गए, जैसे 21वीं सदी के गांधी की नकल हों। वहीं उन्होंने अपने स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की घोषणा की। यह दिखावे की पराकाष्ठा थी, क्योंकि हमारे पास पहले से ही निर्मल भारत अभियान है, जिसे उन्होंने पूरी तरह हड़प लिया, और इस तरह कांग्रेस की ही पुरानी बोतल पर बस भगवा लेबल चस्पां कर दिया। हां, यह सही है कि निर्मल भारत अभियान से पहले वर्ष 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने संपूर्ण सफाई अभियान चलाया था, लेकिन हमारे मोदी जी अपनी ही पार्टी के पूर्ववर्ती के कार्यक्रमों को हड़पने में भी एक पल नहीं हिचकते।

कार्यक्रमों का इस तरह हड़पा जाना भी बर्दाश्त किया जा सकता है, बशर्ते मोदी जी कम से कम निर्मल भारत अभियान तथा संपूर्ण सफाई अभियान के बारे में सोचने तथा उन्हें लागू करने के पीछे लगी अथक मेहनत तथा अतीत में उनमें रह गई कमियों का इस विचार से अध्ययन कर लें कि उनके उद्देश्यों को हासिल करने के लिए क्या-क्या सुधार किया जाना है। हा, उनके पास इस तरह इनके विस्तार में जाने का समय ही नहीं है। वह जिस बात पर ध्यान देते हैं, वह है उनकी जैकेट का रंग, जो किसी फैशन मॉडल के लिए तारीफ की बात हो सकती है, लेकिन किसी प्रधानमंत्री के लिए यह निंदनीय है।

अगर वह तुच्छ सोच से इतर कहीं भी आगे बढ़ रहे होते तो वह 'ब्रांड एम्बैसेडरों' के रूप में फिल्म अभिनेताओं (और एजेंटों के रूप में काम कर रहे कांग्रेसियों) को नहीं तलाश करते, बल्कि SQUAT सर्वे करने वाले मेहनती लोगों को बुलाते, ताकि यह समझा जा सके कि हमारे पास पहले से मौजूद सफाई कार्यक्रमों में अब तक क्या-क्या सही हुआ है, क्या-क्या गलत हुआ है, और अपनी रणनीति को सही दिशा में लाने के लिए क्या-क्या करने की ज़रूरत है। SQUAT का विस्तृत नाम है - Sanitation Quality, Use, Access and Trends (स्वच्छता का स्तर, प्रयोग, पहुंच तथा प्रचलित तरीके), और यह सर्वे नई दिल्ली स्थित रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर कम्पैशनेट इकोनॉमिक्स ने किया था, तथा इसके दो युवा शोधकर्ताओं - आशीष गुप्ता तथा पायल हाथी - ने अपने निष्कर्षों को मोदी जी के कार्यक्रम के लॉन्च होने के अगले ही दिन 'द इंडियन एक्सप्रेस' में एक आलेख में प्रकाशित किया। उनके सर्वे के अनुसार, 60 करोड़ से ज़्यादा भारतीय आज भी रोज़ाना खुले में शौच करते हैं; 'द डेली मेल' के 7 अगस्त, 2014 के अंक के अनुसार, अहमदाबाद में 70,000 गुजराती आज भी रोज़ाना खुले में शौच करते हैं; 'द हिन्दू' के 17 सितम्बर, 2013 के अंक में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक, गुजरात की 40 से 50 फीसदी आबादी खुले में शौच करती है; तथा वी.बी. रावत के 2 मार्च, 2013 को Countercurrent.org में प्रकाशित एक ब्लॉग के अनुसार, आज भी गुजरात के 2,500 परिवार सिर पर मैला ढोने के लिए मजबूर हैं। इस सबको खत्म करने के लिए "लोगों की सोच में बदलाव आना ज़रूरी है, क्योंकि बंद शौचालयों के इस्तेमाल के प्रति अरुचि की समस्या को सुलझाए बिना," घर-घर में शौचालय बनाकर भी हम इस समस्या को किसी भी तरह नहीं सुलझा सकते।

उन्होंने पाया कि जिन मांओं से उन लोगों ने बातचीत की, उनमें से आधी से ज़्यादा यह मानने के लिए भी तैयार नहीं हैं कि बाहर खुले में शौच के लिए जाने की तुलना में घर के भीतर बने बंद शौचालय का इस्तेमाल उनके बच्चों के स्वास्थ्य के लिए अधिक सुरक्षित है। उन्होंने यह भी पाया कि जिन घरों में शौचालय बने भी हैं, उनमें भी परिवार का कम से कम एक सदस्य अब भी बाहर खुले में शौच के लिए जाना पसंद करता है। यही सोच और अज्ञानता है, जिसे हमें सब्र के साथ सही तरीके से दूर करना होगा। क्या प्रधानमंत्री भारतीय सोच को बदलने के लिए रोज़ाना सुबह, दोपहर, शाम रेसकोर्स रोड पर झाड़ू लगाने का इरादा रखते हैं...? या क्या वह यह सोच रहे हैं कि बैंगनी रंग की जैकेट पहने उनकी झाड़ू लगाती एक तस्वीर देखकर 60 करोड़ भारतीय अचानक कसम खा लेंगे कि वे कभी भी खेतों अथवा सड़कों पर शौच के लिए नहीं जाएंगे...?

'एकाउंटेबिलिटी इनिशिएटिव' के टी.आर. रघुनंदन इसी बात को ज़्यादा अच्छे तरीके से रखते हैं। वह ज़िक्र करते हैं उड़ीसा में भुवनेश्वर से लेकर कंधमाल तक सड़क मार्ग से की गई अपनी एक यात्रा का, जिसके दौरान उन्होंने सैकड़ों ग्रामीणों को सड़क के किनारे बैठकर निवृत्त होते देखा। रघुनंदन ने उड़ीसा सरकार के अपने साथ मौजूद एक अधिकारी, जो लगातार उन आंकड़ों का बखान करते जा रहे थे कि सरकार ने कितने शौचालय बनाए हैं, कितने बनाने की योजनाएं हैं, और कितने बनाए जा रहे हैं, से सवाल किया, क्यों ये लोग उन हज़ारों शौचालयों का इस्तमाल नहीं कर रहे हैं, जो बनाए जा चुके हैं। अधिकारी का जवाब था, "लोगों का मानना है कि घर के भीतर शौच से निवृत्त होने से शुद्धता खत्म हो जाती है, क्योंकि उनके मुताबिक घरों में भगवान का वास होता है..." रघुनंदन व्यंग्य करते हुए कहते हैं, "बिल्कुल साफ है कि सरकार द्वारा बनाई गई सड़कों पर से भगवान का साया उठ चुका है..."

यही वह सोच है, जिसे हमें बदलना होगा - गांव दर गांव, घर दर घर, पूरे सात लाख गांवों में, और शहरों में बनीं लाखों अनगिनी झुग्गी बस्तियों में... मोदी को यह उद्देश्य साल में सिर्फ एक दिन संयुक्त सचिवों के हाथ में झाड़ू पकड़ाकर उनसे दफ्तर साफ करवाने से हासिल नहीं होगा। हमें इसके लिए 'स्वच्छ सेवकों' की पूरी फौज चाहिए, जिन्हें अच्छा वेतन भी मिले, और अच्छे उपकरण भी, जो हर सुबह हर गांव में जाएं, और पंचायत स्वच्छता समिति तथा स्थानीय ग्रामसभा की निगरानी में यह सुनिश्चित करें कि 'मानवीय गंदगी के ढेर' हर रोज़ साफ हों। गांधी जयंती का दिन होने के बावजूद गांवों में स्वच्छता सुनिश्चित करने में पंचायतों की अहम भूमिका के बारे में गांधी की सोच को लेकर मोदी के पास कहने के लिए कुछ भी नहीं था। संविधान में 'स्वच्छता' बनाए रखने की ज़िम्मेदारी ग्राम पंचायतों तथा नगर पालिकाओं को दिए जाने के बावजूद स्थानीय सरकारों की पूरी तरह अनदेखी की गई। इसके अलावा एक विशेषज्ञ कमेटी ने मेरी अध्यक्षता में पिछले साल जो 1,500 पृष्ठ की रिपोर्ट दाखिल की थी, उसमें मौजूद मॉडल एक्टिविटी मैप तथा बुद्धिमानी-भरे तरीके से शोध करने के बाद किया गया समस्याओं का विश्लेषण भी दरकिनार कर दिया गया। यदि गांधी जी होते, तो मोदी के इस दिखावे के स्वच्छता अभियान से रो देते।

मेरा घर जिस सड़क पर है, उसी पर भारतीय जनता पार्टी के दो मंत्रियों तथा एक वरिष्ठ सांसद का घर भी है। आज सुबह जब मैं सैर के लिए निकला, तब उन तीनों में से कोई नहीं दिखा, लेकिन बेचारा पप्पू हमेशा की तरह आज भी वहीं था, सड़क पर झाड़ू लगाता हुआ, और वह कूड़ा-कचरा साफ करता हुआ, जो बीजेपी की टिकट पाने के अभिलाषियों का झुंड सड़क किनारे फुटपाथों पर लघुशंका से निवृत्त होने के अलावा दिनभर सड़क पर फैलाता है। इसके अलावा आवारा कुत्ते भी कचरे को फैलाते हैं, और उन मासूम बच्चों का अवशिष्ट भी मंत्रियों के बंगलों के पड़ोस में फैला रहता है, जिनके गरीब मां-बाप ही उन्हें फुटपाथ पर मल-मूत्र करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।

सफाई तभी सुनिश्चित की जा सकती है, जब सफाई कर्मचारियों की पूरी फौज को भर्ती किया जाए, काम करने के उनके नाकाबिल-ए-बर्दाश्त हालात, अपर्याप्त उपकरणों तथा कम वेतन जैसी दिक्कतों को सुधारने को प्राथमिकता दी जाए। सफाई सही तरीके से संगठित और संचालित नागरिक संस्थाओं का एक ऐसा काम है, जो शहरों में स्थानीय वार्ड सभाओं तथा रेज़िडेंट वेलफेयर एसोसिएशनों (RWAs) के प्रति जवाबदेह नगरपालिकाओं के जरिये तथा इसी तरह ग्रामीण इलाकों में ग्राम / वार्ड सभाओं के प्रति जवाबदेह संस्थाओं के जरिये हो सकता है। गांधी जयंती के अवसर पर एक बड़ा अभियान शुरू होना चाहिए था, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि शहरों तथा गांवों में सफाई सेवकों तथा सफाई कर्मचारियों को अच्छा वेतन मिले, अच्छे भत्ते मिलें, तथा उनके कल्याण की योजनाएं चलें, ताकि उनके पेशे को सम्मानित बनाया जा सके, और इस तरह जनता को उनके साथ जोड़ा जा सके। प्रधानमंत्री या गवर्नरों के कभी-कभार नौसिखिया तरीकों से झाड़ू लगाने से उनके काम की भरपाई कभी नहीं हो सकती, और दूसरी ओर, सफाई के काम को लगातार आउटसोर्स किया जा रहा है, जिससे लाखों सफाई कर्मचारियों के लिए रोटी खाने के भी लाले पड़ रहे हैं।

इससे भी बुरा यह है कि निजी कंपनियां नौकरियों में आरक्षण लागू करने के लिए बाध्य नहीं होतीं, इसलिए यह काम निजी कंपनियों को आउटसोर्स किए जाने से कोटे के तहत नौकरी पाने के लाखों हकदारों के मुंह से निवाला छिन जाता है। गांधी जयंती को अर्थपूर्ण बनाया जा सकता था, यदि इसे सफाई कर्मचारी दिवस के रूप में मनाया जाता, और दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और चेन्नई जैसे सबसे उन्नत शहरों में भी सबसे गंदे हालात में काम करने के लिए मजबूर सबसे निचले स्तर के सफाई कर्मचारी की दशा पर खास ध्यान दिया जाता। असलियत में होता यह है कि पढ़े-लिखे मध्यमवर्गीय लोग इन सफाई कर्मियों को उन्हीं के फेंके हुए कूड़े के ढेर पर बैठकर काम करते देख नाक-भौं सिकोड़ते हैं, और उनकी ज़िन्दगियों को हिलाकर रख देने वाले मुद्दों और समस्याओं की ओर से आंखें फेर लेते हैं। मुंबई के मिलिंद रानाडे तथा उन्हीं के द्वारा इकट्ठा किए गए सफाई कर्मियों के हालात को समझने वाले विशेषज्ञों ने दिन-रात अथक परिश्रम के बाद ये सब बातें बेहद अच्छे तरीके से वर्णित की हैं। शहरी मध्यमवर्ग साफ-सुथरे शहर तो चाहता है, लेकिन उसके पास रानाडे तथा उनके जैसे बाकी लोगों के लिए कोई वक्त नहीं है। इसीलिए यह पूछे जाने पर कि उन्हें भारत में किस बात से सबसे ज़्यादा हताशा महसूस होती है, महात्मा गांधी ने जवाब दिया था, "पढ़े-लिखे हिन्दुस्तानियों की संगदिली..."

लेकिन मोदी, और उनके 'संगदिल' मध्यमवर्गीय चाहने वाले न यह सब जानते हैं, और न इसकी परवाह करते हैं। मोदी टीवी चैनलों पर सिर्फ एक स्लॉट चाहते हैं, और वह उन्हें उस चापलूस मीडिया से मिल ही जाता है, जो उनसे भी ज़्यादा ओछा है। हे राम...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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