
जयपुर:
"आप लोगों में से जिनके पास नाटक देखने से भी अधिक ज़रूरी काम हो, और वे बस इसलिए आए हैं कि 10 या पांच मिनट में निकल जाएंगे, उनसे अनुरोध है, वे अभी निकल जाएं..." कहां तो रंगमंच दर्शकों के लिए तरसता रहता है, और कहां यह निकल जाने की सलाह... उद्घोषक आशय स्पष्ट करता है कि दर्शकों का मूवमेंट नाटक की जीवंतता को भंग कर सकता है और नाटक वह है, जो फिल्म या तमाशे की तरह नहीं देखा जा सकता, इसलिए नाटक के दर्शक को भी प्रशिक्षित करना पड़ता है, क्योंकि कुछ लोग प्रेक्षागृह से बीच में निकल जाते हैं.
सुबह के 11 बजे हैं, प्रेक्षागृह के पास पहुंचता हूं तो लोग पहले से लाइन में लगे हैं, नाटक शुरू होने का वक्त हो चुका है, प्रेक्षागृह लगभग भर चुका है. दर्शक अंदर व्यवस्थित हो रहे हैं. सुबह के 11 बजे और नाम से एक्स्पेरिमेंटल लगने वाला नाटक, शनिवार का दिन और नाटक देखने के लिए इतनी भीड़. यह शहर जयपुर है, जगह जवाहर कला केंद्र हैं और आयोजन 'जयरंगम' है, जो हिन्दीभाषी प्रदेश में बिना सरकारी पहल के आयोजित होने वाला सबसे बड़ा रंगोत्सव है, और यह इसका पांचवां संस्करण है.
अधिकांश नाटकों के दो शो रखे गए हैं. कारण बताते हैं आयोजक दीपक गेरा, "पिछले साल मकरंद देशपांडे के शो में जितने लोग नाटक देख रहे थे, उतने लोग बाहर थे और वे नाटक समाप्त होने के बाद भी इंतज़ार में डटे हुए थे कि नाटक देख लेंगे. मकरंद ने उन्हें फोन किया कि नाटक का दूसरा शो कर लूं. मैंने कहा, कर लीजिए. उन्होंने उसी समय दूसरा शो किया, इसलिए हमने इस बार लगभग सभी नाटकों का दूसरा शो रखा है..." मैं नाटक से निकलकर रंग संवाद में पहुंचता हूं. वहां भी पंडाल लगभग भरा हुआ है. अधिकांश रंगकर्मी हैं और फोटोग्राफर बहुत नज़र आ रहे हैं. मकरंद देशपांडे, संजना कपूर और दीपक गेरा की बातचीत बिलकुल अनौपचारिक तरीके से हो रही है, लेकिन इसमें ज्यादा मजा आ रहा है. दिल्ली की व्यवस्थित और पेशेवर बातचीत से कहीं अधिक, क्योंकि इसमें कच्चेपन की ईमानदारी है, और यही आजकल दुर्लभ है.

वक्त शाम के 7 बजे, जगह बिड़ला सभागार. बिड़ला विज्ञान संस्थान का सभागार शायद जयपुर में सबसे बड़ा होगा, 6:45 बजे लोग बाहर कतार में खड़े थे. संभवतः वह दिन में किसी और कतार में खड़ा कर देने की मजबूरी से बंधे नहीं थे. यहां वे अपनी मर्जी से और रिलीफ़ के लिए खड़े थे. भीतर जाने के बाद देखा प्रेक्षागृह भर गया था. लगभग चार दशकों से अधिक खेले जा रहे नाटक 'शतरंज के मोहरे' (इप्टा, मुंबई) का मंचन था. मैंने सभागार के कर्मचारी से पूछा, कितनी क्षमता है इसकी...? लगभग 1,200. मतलब हजार दर्शक से ऊपर तो थे ही. दूसरे दिन लगभग दो शो में मकरंद देशपांडे के नाटक 'मां इन ट्रांज़िट' के मंचन में भी ऐसी ही भीड़ थी.
'जयरंगम' के इस संस्करण में, जिसमें मैं आखिरी दो दिन के लिए मौजूद था, मैंने देखा, दर्शक हर तरह के आ रहे हैं, हर प्रकार के नाटक के लिए. सिने-सितारों वालों में भी, एक्सपेरिमेंटल में भी और स्थानीय नाटकों में भी. इन दर्शकों में हर उम्र के लोग हैं, लेकिन अधिक संख्या विद्यार्थियों की है. 'जयरंगम' का एक स्कूल आउटरीच कार्यक्रम भी चल रहा है. उसने रंगमंच के नए दर्शक तैयार किए हैं. यानी यह उद्देश्य भी है कि दर्शक तैयार किए जाएं.
ये दर्शक निष्क्रिय नहीं हैं, क्योंकि हर नाटक की समाप्ति के बाद यहां का स्थानीय एफएम चैनल अभिनेताओं और निर्देशकों से बातचीत करता है और दर्शक इसमे शामिल होते हैं. एक नाटक (फ्रेम्स) में इतनी उत्तेजक बहस हुई कि दर्शकों के ही दो पक्ष बन गए और निर्देशक को नाटक का बचाव करने की ज़रूरत नहीं पड़ी. दर्शकों के रवैये से चेन्नई से अपना नाटक 'नाइट्स एंड' लेकर आई निर्देशिका गौरी रामनारायण काफी प्रसन्न हैं, लेकिन वह अपने ही अभिनेताओं के प्रदर्शन से खुश नहीं. स्थानीय निर्देशक रुचि भार्गव दर्शकों के रवैये के प्रति सचेत थीं और कहा कि हमें उनकी तालियों को इतनी सहजता से नहीं लेना चाहिए. ताली तो प्रायोजित भी हो सकती हैं. हमें खुद पता होना चाहिए कि हम क्या दिखा रहे हैं और कैसे दिख रहे हैं और उसमें कितने कामयाब हैं.

जयपुर जैसे शहरों में ऐसा वर्ग अभी मौजूद है, जो हिन्दी प्रदेश की साहित्य, कला और रंगमंच को संरक्षण दे सकता है. यह अभी अंग्रेजी की तरफ यहां शिफ्ट नहीं हुआ. इसे वैकल्पिक सार्थक मनोरंजन निरंतरता में मिलता है तो वह सभागार तक आएगा. रंगमंच तक आएगा, कला तक, साहित्य तक आएगा. इस भूख को पहचानकर उसे बढ़ाने और पोषित करते रहने की ज़रूरत है, क्योंकि टेलीविजन और सिनेमा से ऊब चुके दर्शकों का भी एक वर्ग है. 'जयरंगम' यही कर रहा है.
उत्सवधर्मिता भारतीय संस्कृति में रची-बसी है. आधुनिक बाजार ने अब अपने तरीके से कुछ उत्सव रचे हैं और इसके कारण समाज का एक वर्ग इन उत्सवों में साहित्य, रंगमंच या अन्य कलाओं से जुड़ रहा है. इसमें उसे एक स्टेटस सिम्बल मिलता है और एक ही जगह पर बहुत-सी चीजों से वह मुखातिब होता है, तो उसकी इस रुचि का किंचित विस्तार हो जाता है. मैंने महसूस किया कि जयपुर शहर को इन उत्सवों की आदत लग चुकी है.
सुबह के 11 बजे हैं, प्रेक्षागृह के पास पहुंचता हूं तो लोग पहले से लाइन में लगे हैं, नाटक शुरू होने का वक्त हो चुका है, प्रेक्षागृह लगभग भर चुका है. दर्शक अंदर व्यवस्थित हो रहे हैं. सुबह के 11 बजे और नाम से एक्स्पेरिमेंटल लगने वाला नाटक, शनिवार का दिन और नाटक देखने के लिए इतनी भीड़. यह शहर जयपुर है, जगह जवाहर कला केंद्र हैं और आयोजन 'जयरंगम' है, जो हिन्दीभाषी प्रदेश में बिना सरकारी पहल के आयोजित होने वाला सबसे बड़ा रंगोत्सव है, और यह इसका पांचवां संस्करण है.
अधिकांश नाटकों के दो शो रखे गए हैं. कारण बताते हैं आयोजक दीपक गेरा, "पिछले साल मकरंद देशपांडे के शो में जितने लोग नाटक देख रहे थे, उतने लोग बाहर थे और वे नाटक समाप्त होने के बाद भी इंतज़ार में डटे हुए थे कि नाटक देख लेंगे. मकरंद ने उन्हें फोन किया कि नाटक का दूसरा शो कर लूं. मैंने कहा, कर लीजिए. उन्होंने उसी समय दूसरा शो किया, इसलिए हमने इस बार लगभग सभी नाटकों का दूसरा शो रखा है..." मैं नाटक से निकलकर रंग संवाद में पहुंचता हूं. वहां भी पंडाल लगभग भरा हुआ है. अधिकांश रंगकर्मी हैं और फोटोग्राफर बहुत नज़र आ रहे हैं. मकरंद देशपांडे, संजना कपूर और दीपक गेरा की बातचीत बिलकुल अनौपचारिक तरीके से हो रही है, लेकिन इसमें ज्यादा मजा आ रहा है. दिल्ली की व्यवस्थित और पेशेवर बातचीत से कहीं अधिक, क्योंकि इसमें कच्चेपन की ईमानदारी है, और यही आजकल दुर्लभ है.

वक्त शाम के 7 बजे, जगह बिड़ला सभागार. बिड़ला विज्ञान संस्थान का सभागार शायद जयपुर में सबसे बड़ा होगा, 6:45 बजे लोग बाहर कतार में खड़े थे. संभवतः वह दिन में किसी और कतार में खड़ा कर देने की मजबूरी से बंधे नहीं थे. यहां वे अपनी मर्जी से और रिलीफ़ के लिए खड़े थे. भीतर जाने के बाद देखा प्रेक्षागृह भर गया था. लगभग चार दशकों से अधिक खेले जा रहे नाटक 'शतरंज के मोहरे' (इप्टा, मुंबई) का मंचन था. मैंने सभागार के कर्मचारी से पूछा, कितनी क्षमता है इसकी...? लगभग 1,200. मतलब हजार दर्शक से ऊपर तो थे ही. दूसरे दिन लगभग दो शो में मकरंद देशपांडे के नाटक 'मां इन ट्रांज़िट' के मंचन में भी ऐसी ही भीड़ थी.
'जयरंगम' के इस संस्करण में, जिसमें मैं आखिरी दो दिन के लिए मौजूद था, मैंने देखा, दर्शक हर तरह के आ रहे हैं, हर प्रकार के नाटक के लिए. सिने-सितारों वालों में भी, एक्सपेरिमेंटल में भी और स्थानीय नाटकों में भी. इन दर्शकों में हर उम्र के लोग हैं, लेकिन अधिक संख्या विद्यार्थियों की है. 'जयरंगम' का एक स्कूल आउटरीच कार्यक्रम भी चल रहा है. उसने रंगमंच के नए दर्शक तैयार किए हैं. यानी यह उद्देश्य भी है कि दर्शक तैयार किए जाएं.
ये दर्शक निष्क्रिय नहीं हैं, क्योंकि हर नाटक की समाप्ति के बाद यहां का स्थानीय एफएम चैनल अभिनेताओं और निर्देशकों से बातचीत करता है और दर्शक इसमे शामिल होते हैं. एक नाटक (फ्रेम्स) में इतनी उत्तेजक बहस हुई कि दर्शकों के ही दो पक्ष बन गए और निर्देशक को नाटक का बचाव करने की ज़रूरत नहीं पड़ी. दर्शकों के रवैये से चेन्नई से अपना नाटक 'नाइट्स एंड' लेकर आई निर्देशिका गौरी रामनारायण काफी प्रसन्न हैं, लेकिन वह अपने ही अभिनेताओं के प्रदर्शन से खुश नहीं. स्थानीय निर्देशक रुचि भार्गव दर्शकों के रवैये के प्रति सचेत थीं और कहा कि हमें उनकी तालियों को इतनी सहजता से नहीं लेना चाहिए. ताली तो प्रायोजित भी हो सकती हैं. हमें खुद पता होना चाहिए कि हम क्या दिखा रहे हैं और कैसे दिख रहे हैं और उसमें कितने कामयाब हैं.

जयपुर जैसे शहरों में ऐसा वर्ग अभी मौजूद है, जो हिन्दी प्रदेश की साहित्य, कला और रंगमंच को संरक्षण दे सकता है. यह अभी अंग्रेजी की तरफ यहां शिफ्ट नहीं हुआ. इसे वैकल्पिक सार्थक मनोरंजन निरंतरता में मिलता है तो वह सभागार तक आएगा. रंगमंच तक आएगा, कला तक, साहित्य तक आएगा. इस भूख को पहचानकर उसे बढ़ाने और पोषित करते रहने की ज़रूरत है, क्योंकि टेलीविजन और सिनेमा से ऊब चुके दर्शकों का भी एक वर्ग है. 'जयरंगम' यही कर रहा है.
उत्सवधर्मिता भारतीय संस्कृति में रची-बसी है. आधुनिक बाजार ने अब अपने तरीके से कुछ उत्सव रचे हैं और इसके कारण समाज का एक वर्ग इन उत्सवों में साहित्य, रंगमंच या अन्य कलाओं से जुड़ रहा है. इसमें उसे एक स्टेटस सिम्बल मिलता है और एक ही जगह पर बहुत-सी चीजों से वह मुखातिब होता है, तो उसकी इस रुचि का किंचित विस्तार हो जाता है. मैंने महसूस किया कि जयपुर शहर को इन उत्सवों की आदत लग चुकी है.
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