महबूब नास्सर
नई दिल्ली:
थिएटर ओलंपिक में नाट्य प्रस्तुतियों के अलावा भी कला से संबंधित कला से जुड़ी गतिविधियां हो रही है जिनमें से एक महत्त्वपूर्ण गतिविधि है मास्टरक्लास. इसमें विभिन्न कला से जुड़े दिग्गज कला के बारे में अपने जीवन अनुभव और ज्ञान को साझा करते हैं. थिएटर ओलंपिक्स में पहले सप्ताह में प्रसिद्ध फिल्मकार श्याम बेनेगल, शिल्पकार के. एस. राधाकृष्णन के साथ ही दक्षिण भारतीय फ़िल्मों के जानेमाने अभिनेता एम. नासेर जो बाहुबली में भी थे, की मास्टरक्लास हुई. उन्होंने कहा कि 'पहले नाटक से उन्होंने 150 रुपये कमाए थे जो फिल्मों से कमाए करोड़े रुपये से अधिक है. रंगमंच से शरीर की रगो को मिलने वाला एड्रिनिलन रस यूनिक है जो पांचों इंद्रियों को मिलता है और यह अनुभव शानदार है'.
पहले सप्ताह में दर्शकों की कमी रही पर फाज़ेहा जलील निर्देशित प्रस्तुति ‘शिखंडी’ देखने के लिए अच्छी संख्या में दर्शक आए. एक ही शरीर में दो जेंडर की उपस्थिति और इनके कारण व्यक्ति के भीतर उपजे द्वंद्व को यह प्रस्तुति नई तरह की नाट्य भाषा में आधुनिक नजरियों के साथ मिला कर प्रस्तुत करती है. एलटीजी के मंच पर ही संगीतकार बैठे हैं और मंच के पीछे दो ऊंचा प्लेटफार्म बना है. सभी अभिनेताओं की वेश भूषा एक सी है और अभिनेत अलग-अलग महाभारत का चरित्र निभा रहे हैं.
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नाटक की भाषा अंग्रेजी है और ऐसी अंग्रेजी जिसमें आज के युवा बात करते हैं. एक दिलचस्प उदाहरण है भाषा के प्रयोग का कि शिखंडी के साथी यह तय नहीं कर पाते हैं कि शिखंडी बॉय है या गर्ल है या गॉय है या बर्ल. शिखंडी का जेंडर नहीं तय कर पाने, इसे असामान्य मानने से ऐसे चरित्रों के प्रति सामाजिक व्यवहार क्या होता है इसे इस प्रस्तुति में शिदद्त से उभारा गया है. जिसमें परिवार से लेकर बाहर तक एक ही माहौल होता है, वह है उत्पीड़न का मानसिक भी और शारीरिक भी. प्रस्तुति के तंज में नयापन है लेकिन यह चोट कम पहुंचाता है, मनोरंजन अधिक करता है. भाषा कभी कभी बहुत लाऊड है और ऐसा लगता है जागरूकता फ़ैलाने के लिये प्रस्तुति तैयार की गई है. ऐसी प्रस्तुतियों में, जिसकी भाषा खालिस अंग्रेजी है, हिंदी के शब्द बीच में केवल हास्य के लिये डाले जाते हैं जिससे एक भाषा के प्रति वर्गीय दुराग्रह का भी पता चलता है. अभिनेता दक्ष हैं और उनके विट और ह्युमर की टाइमिंग अच्छी है.
अभिमंच में देखी गई अस्तित्ववादी दार्शनिक ज्यां पाल सार्त्र के नाटक ‘द फ़्लाईज’ की बांग्ला भाषा की प्रस्तुति ‘माछी’ अर्पिता घोष के निर्देशन में पंचम वैदिक की प्रस्तुति है. जिसमें ग्रीक मिथकिय पात्रों के माध्यम से मनुष्य के अस्तित्व के द्वंद्व का चित्रण है. मनुष्य ईश्वर की इच्छा का प्रतिनिधि है या वह अपने किए का स्वयं जिम्मेदार है. इलेक्ट्रा उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है, जिसने अपने को ईश्वर को समर्पित कर दिया है. जबकि ओरेस्टस ईश्वर की सत्ता का निषेध कर स्वतंत्र मनुष्य का. नाटक की दृश्य भाषा सुर्रियल है और मक्खियां बने अभिनेता हमेशा मंच को घेरे रहते हैं. मंच पर सीढ़ीनुमा एक प्लेटफार्म है जिसका इनोवेटिव इस्तेमाल किया गया है, मंचीय स्पेस किसी रहस्यमयी स्पेस सा लगता है. अभिनेता भावपूर्ण संवाद बोलने में दक्ष हैं जिससे नाटक का जटिल कथ्य सहजता से संप्रेषित हो जाता है.
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पहले सप्ताह में हिंदी के नाटकों में वीरेंद्र सक्सेना निर्देशित ‘जाना था रोशनपुरा’ और त्रिपुरारी शर्मा निर्देशित ‘शायर शटर डाउन’ का मंचन हुआ शायर में महानगरों में अकले पड़ते जाते व्यक्ति का द्वन्द्व है जो किसी के साथ को तरसते रहता है. पारंपरिक शैली के नाटकों में राजस्थान के कुचामनी खयाल ‘जगदेव कंकाली’ हरियाणा के स्वांग ‘जानी चोर’, गुजरात के भवई का ‘राजा भर्तहरी नु वेश’ और सरायकेला छउ की प्रस्तुतु हुई. इसके अलावा नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के प्रांगण में दिल्ली के कालेजों के नुक्कड़ नाटक का मंचन रोज़ हो रहा है.
पहले सप्ताह में दर्शकों की कमी रही पर फाज़ेहा जलील निर्देशित प्रस्तुति ‘शिखंडी’ देखने के लिए अच्छी संख्या में दर्शक आए. एक ही शरीर में दो जेंडर की उपस्थिति और इनके कारण व्यक्ति के भीतर उपजे द्वंद्व को यह प्रस्तुति नई तरह की नाट्य भाषा में आधुनिक नजरियों के साथ मिला कर प्रस्तुत करती है. एलटीजी के मंच पर ही संगीतकार बैठे हैं और मंच के पीछे दो ऊंचा प्लेटफार्म बना है. सभी अभिनेताओं की वेश भूषा एक सी है और अभिनेत अलग-अलग महाभारत का चरित्र निभा रहे हैं.
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नाटक की भाषा अंग्रेजी है और ऐसी अंग्रेजी जिसमें आज के युवा बात करते हैं. एक दिलचस्प उदाहरण है भाषा के प्रयोग का कि शिखंडी के साथी यह तय नहीं कर पाते हैं कि शिखंडी बॉय है या गर्ल है या गॉय है या बर्ल. शिखंडी का जेंडर नहीं तय कर पाने, इसे असामान्य मानने से ऐसे चरित्रों के प्रति सामाजिक व्यवहार क्या होता है इसे इस प्रस्तुति में शिदद्त से उभारा गया है. जिसमें परिवार से लेकर बाहर तक एक ही माहौल होता है, वह है उत्पीड़न का मानसिक भी और शारीरिक भी. प्रस्तुति के तंज में नयापन है लेकिन यह चोट कम पहुंचाता है, मनोरंजन अधिक करता है. भाषा कभी कभी बहुत लाऊड है और ऐसा लगता है जागरूकता फ़ैलाने के लिये प्रस्तुति तैयार की गई है. ऐसी प्रस्तुतियों में, जिसकी भाषा खालिस अंग्रेजी है, हिंदी के शब्द बीच में केवल हास्य के लिये डाले जाते हैं जिससे एक भाषा के प्रति वर्गीय दुराग्रह का भी पता चलता है. अभिनेता दक्ष हैं और उनके विट और ह्युमर की टाइमिंग अच्छी है.
अभिमंच में देखी गई अस्तित्ववादी दार्शनिक ज्यां पाल सार्त्र के नाटक ‘द फ़्लाईज’ की बांग्ला भाषा की प्रस्तुति ‘माछी’ अर्पिता घोष के निर्देशन में पंचम वैदिक की प्रस्तुति है. जिसमें ग्रीक मिथकिय पात्रों के माध्यम से मनुष्य के अस्तित्व के द्वंद्व का चित्रण है. मनुष्य ईश्वर की इच्छा का प्रतिनिधि है या वह अपने किए का स्वयं जिम्मेदार है. इलेक्ट्रा उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है, जिसने अपने को ईश्वर को समर्पित कर दिया है. जबकि ओरेस्टस ईश्वर की सत्ता का निषेध कर स्वतंत्र मनुष्य का. नाटक की दृश्य भाषा सुर्रियल है और मक्खियां बने अभिनेता हमेशा मंच को घेरे रहते हैं. मंच पर सीढ़ीनुमा एक प्लेटफार्म है जिसका इनोवेटिव इस्तेमाल किया गया है, मंचीय स्पेस किसी रहस्यमयी स्पेस सा लगता है. अभिनेता भावपूर्ण संवाद बोलने में दक्ष हैं जिससे नाटक का जटिल कथ्य सहजता से संप्रेषित हो जाता है.
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पहले सप्ताह में हिंदी के नाटकों में वीरेंद्र सक्सेना निर्देशित ‘जाना था रोशनपुरा’ और त्रिपुरारी शर्मा निर्देशित ‘शायर शटर डाउन’ का मंचन हुआ शायर में महानगरों में अकले पड़ते जाते व्यक्ति का द्वन्द्व है जो किसी के साथ को तरसते रहता है. पारंपरिक शैली के नाटकों में राजस्थान के कुचामनी खयाल ‘जगदेव कंकाली’ हरियाणा के स्वांग ‘जानी चोर’, गुजरात के भवई का ‘राजा भर्तहरी नु वेश’ और सरायकेला छउ की प्रस्तुतु हुई. इसके अलावा नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के प्रांगण में दिल्ली के कालेजों के नुक्कड़ नाटक का मंचन रोज़ हो रहा है.
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