अहमदाबाद: गुरुवार रात को अहमदाबाद के दरियापुर में एक कार्यक्रम हुआ, मुख्य तौर पर ये कार्यक्रम था मुफ़्ती अब्दुल क़य्यूम की किताब के लोकार्पण के लिए। मुफ़्ती अब्दुल क़य्यूम 2002 में गांधीनगर के अक्षरधाम मंदिर पर हुए आतंकी हमले के आरोप में गिरफ्तार हुए थे। पुलिस ने उन पर आरोप लगाया था कि इस हमले में मारे गए फिदायीन की जेब से उर्दू में लिखी एक चिट्ठी मिली थी, जो मुफ़्ती अब्दुल क़य्यूम ने लिखी थी।
इसी आरोप के चलते अब्दुल क़य्यूम 2003 में गिरफ्तार किए गए थे। पोटा कानून के कड़े प्रावधानों के चलते इस मामले में उन्हें स्थानीय अदालत से फांसी की सजा सुनायी गई थी। लेकिन पिछले साल मुफ़्ती अब्दुल क़य्यूम सुप्रीम कोर्ट से निर्दोष करार दिए गए और बरी हो गए।
अब मुफ़्ती क़य्यूम का आरोप है कि उन पर गुजरात पुलिस ने अत्याचार किए थे और उन पर दबाव डालकर और उन्हें मार पीटकर उनसे जुर्म क़ुबूल करवाया गया था। और ये काम किया था अहमदाबाद पुलिस ने। और इसी दास्तान को बयान करने वाली उन्होंने एक किताब लिखी है, जिसका शीर्षक है '11 साल सलाखों के पीछे।'
इस किताब में उन्होंने पुलिस के उन अधिकारियों के बारे में लिखा है जिन्होंने उन पर कथित तौर पर जुर्म क़ुबूल करने के लिए दबाव डाला था। कैसे पहले से कहानी तय करके उन्हें इस मामले में गलत फसाया गया था। महत्वपूर्ण है कि मारे गए फिदायीन की जेब से मिली जिस चिट्ठी को मुफ़्ती साहब ने लिखे होने का आरोप है, उसे लेकर भी कोर्ट में पुलिस की आलोचना हुई थी। जब फिदायीन को दर्जनों गोलियां लगी थीं और पूरे शरीर पर खून था, तो ये कैसे हो गया कि इस चिट्ठी पर खून का एक कतरा तक नहीं था। इसी से पुलिस की मंशा पर सवाल उठे थे।
अब इस किताब के सामने आने से गुजरात पुलिस की और किरकिरी होने का जैसे डर हो, उस तरह पुलिस ने इस कार्यक्रम के लिए ये शर्त रखकर उन्हें मंजूरी दी थी कि वो इस कार्यक्रम में न किताब पेश करेंगे और न ही अक्षरधाम हमले के बारे में ज़िक्र करेंगे।
इस शर्त के चलते मुफ़्ती तो इस कार्यक्रम में किताब पेश करने से बचे, लेकिन अन्य लोगों ने अपने भाषण में इस पर खुले शब्दों में चिंता जताई कि आतंकवाद के नाम पर मुस्लिम समाज के लोगों के मानवाधिकारों का खुलेआम हनन हो रहा है।
अब मुफ़्ती और उनके समर्थक आने वाले समय में किस तरह इस किताब को लोगों के सामने पेश करें उसकी तैयारी कर रहे हैं।
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