नई दिल्ली में कांग्रेस मुख्यालय में आशा कुमारी।
पंजाब में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस पार्टी की शुरुआत ही 'खराब' हुई है। सत्ता में वापसी के लिहाज से आदर्श माने जा रहे (अगर आम आदमी पार्टी इसका खेल न बिगाड़े ) इस राज्य में पार्टी अपने चुनाव प्रभारी को लेकर ही 'घमासान' में उलझी हुई है।
कांग्रेस आलाकमान के पहले, सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री कमलनाथ को राज्य के लिए चुनाव प्रभारी घोषित किया था। वे अपना काम शुरू कर पाते, इसके पहले ही विपक्षी पार्टियों ने वर्ष 1984 के सिख विरोधी दंगों में उनकी कथित भूमिका को लेकर सवाल उठाने शुरू कर दिये। परिणाम यह हुआ कि कमलनाथ ने पंजाब चुनाव के लिए मिली यह अहम जिम्मेदारी निभाने में असमर्थता जता दी। बहरहाल, कमलनाथ की जगह नया चुनाव प्रभारी नियुक्त करने के मामले में भी कांग्रेस आलाकमान अपनी 'पूर्व की गलती' से सबक सीखता नहीं दिखा।
इस बार हिमाचल प्रदेश की आशा कुमारी को चुनाव प्रभारी बनाया गया जो कि कमलनाथ से भी अधिक विवादित मानी जा रही हैं। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की पदाधिकारी आशा कुमारी पर 60 बीघा फॉरेस्ट लैंड धोखाधड़ी कर हड़पने का आरोप है और इस मामले में चांबा की कोर्ट इसी वर्ष फरवरी में दोषी ठहराते हुए एक वर्ष की सजा भी सुना चुकी है। हालांकि ऊपरी कोर्ट आशा कुमारी को जमानत दे चुकी है, लेकिन मुद्दा तलाश रहा विपक्ष इस मुद्दे को जमकर हवा दे रहे हैं। ऐसे में हो सकता है कि कांग्रेस को नया चुनाव प्रभारी चुनने की शर्मिंदगी फिर से उठानी पड़े।
पांच बार विधानसभा के लिए चुनी जा चुकी आशा कुमारी राज्य के सीएम वीरभद्र सिंह की रिश्तेदार हैं। वर्ष 2004-05 में उन्हें तब इस्तीफा देना पड़ा था जब कोर्ट ने जमीन पर कब्जा करने के मामले में आशा कुमारी और अन्य आरोपियों पर आरोप तय किए थे। दरअसल, कुलदीप सिंह नाम के एक शख्स ने आरोप लगाया था कि आशा कुमारी ने धोखाधड़ी करते हुए करीब 60 बीघा जमीन हथिया ली है। शिकायत पर कार्रवाई करते हुए अदालत ने आरोप तय किए और इसी वर्ष मामले में चांबा की अदालत ने आशा कुमारी को एक साल की सजा सुना दी। हालांकि ऊपरी अदालत ने सजा को सस्पेंड करते हुए उन्हें अपील के लिए वक्त दे दिया है, लेकिन यह मुद्दा सियासी तूफान का विषय तो बन ही गया है।
आशा कुमारी की नियुक्ति का मामला कांग्रेस के लिए गले की हड्डी बन गया है जिसे उगलने या निगलने दोनों में उसे भारी मुश्किल हो रही है। यदि वह आशा कुमारी की नियुक्ति को बरकरार रखते हुए आगे बढ़ती है तो पंजाब चुनाव में उसे भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। दूसरी ओर, इस नियुक्ति को रद्द करना भी आसान नहीं है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस को शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी सो अलग, विपक्षी पार्टियां जनता तक यह संदेश भी पहुंचा सकती है कि 'कांग्रेस पंजाब का चुनाव लड़ेगी, उसके पास तो चुनाव प्रभारी नियुक्त करने तक के लिए कोई प्रभावशाली नेता तक नहीं है।' ऐसे समय जब राज्य में कांग्रेस अपनी वापसी की पुरजोर कोशिश में जुटी है, यह स्थिति पार्टी के लिए लगातार नुकसान ही पहुंचा रही है।
कांग्रेस पंजाब को अपने लिए बेहद अहम मान रही है और इसीलिये पार्टी ने राज्य के लिए चुनाव रणनीति के 'चाणक्य' प्रशांत किशोर की सेवाएं ली हैं। वैसे भी राज्य में नशे का बढ़ता कारोबार और एंटी इनकमबेंसी फैक्टर इस बार सत्तारूढ़ अकाली दल-बीजेपी गठबंधन की राह की रोड़ा बन रहे हैं। बादल परिवार पर भ्रष्टाचार के आरोप और अकाली-बीजेपी के बीच मतभेद की एक मुद्दा है और इसके कारण लोगों में नाराजगी है। तीसरी प्रमुख पार्टी आम आदमी पार्टी भी दिल्ली के बाद दूसरे राज्य में सत्तासीन होने के लिए पूरा जोर लगा रही है, लेकिन अनुभव की कमी और दिल्ली में केंद्र के साथ 'तूतू-मैंमैं' के दौर में पंजाब के लोग उस पर कितना भरोसा दिखाएंगे, यह कहना मुश्किल है। कुल मिलाकर कांग्रेस पार्टी के लिए वापसी के लिहाज स्थिति पूरी तरह आदर्श थी, लेकिन चुनाव प्रभारी की नियुक्ति के मुद्दे पर 'आत्मघाती गोल' से कांग्रेस ने अपने अवसरों को धुंधला ही किया है...।
कांग्रेस आलाकमान के पहले, सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री कमलनाथ को राज्य के लिए चुनाव प्रभारी घोषित किया था। वे अपना काम शुरू कर पाते, इसके पहले ही विपक्षी पार्टियों ने वर्ष 1984 के सिख विरोधी दंगों में उनकी कथित भूमिका को लेकर सवाल उठाने शुरू कर दिये। परिणाम यह हुआ कि कमलनाथ ने पंजाब चुनाव के लिए मिली यह अहम जिम्मेदारी निभाने में असमर्थता जता दी। बहरहाल, कमलनाथ की जगह नया चुनाव प्रभारी नियुक्त करने के मामले में भी कांग्रेस आलाकमान अपनी 'पूर्व की गलती' से सबक सीखता नहीं दिखा।
इस बार हिमाचल प्रदेश की आशा कुमारी को चुनाव प्रभारी बनाया गया जो कि कमलनाथ से भी अधिक विवादित मानी जा रही हैं। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की पदाधिकारी आशा कुमारी पर 60 बीघा फॉरेस्ट लैंड धोखाधड़ी कर हड़पने का आरोप है और इस मामले में चांबा की कोर्ट इसी वर्ष फरवरी में दोषी ठहराते हुए एक वर्ष की सजा भी सुना चुकी है। हालांकि ऊपरी कोर्ट आशा कुमारी को जमानत दे चुकी है, लेकिन मुद्दा तलाश रहा विपक्ष इस मुद्दे को जमकर हवा दे रहे हैं। ऐसे में हो सकता है कि कांग्रेस को नया चुनाव प्रभारी चुनने की शर्मिंदगी फिर से उठानी पड़े।
पांच बार विधानसभा के लिए चुनी जा चुकी आशा कुमारी राज्य के सीएम वीरभद्र सिंह की रिश्तेदार हैं। वर्ष 2004-05 में उन्हें तब इस्तीफा देना पड़ा था जब कोर्ट ने जमीन पर कब्जा करने के मामले में आशा कुमारी और अन्य आरोपियों पर आरोप तय किए थे। दरअसल, कुलदीप सिंह नाम के एक शख्स ने आरोप लगाया था कि आशा कुमारी ने धोखाधड़ी करते हुए करीब 60 बीघा जमीन हथिया ली है। शिकायत पर कार्रवाई करते हुए अदालत ने आरोप तय किए और इसी वर्ष मामले में चांबा की अदालत ने आशा कुमारी को एक साल की सजा सुना दी। हालांकि ऊपरी अदालत ने सजा को सस्पेंड करते हुए उन्हें अपील के लिए वक्त दे दिया है, लेकिन यह मुद्दा सियासी तूफान का विषय तो बन ही गया है।
आशा कुमारी की नियुक्ति का मामला कांग्रेस के लिए गले की हड्डी बन गया है जिसे उगलने या निगलने दोनों में उसे भारी मुश्किल हो रही है। यदि वह आशा कुमारी की नियुक्ति को बरकरार रखते हुए आगे बढ़ती है तो पंजाब चुनाव में उसे भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। दूसरी ओर, इस नियुक्ति को रद्द करना भी आसान नहीं है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस को शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी सो अलग, विपक्षी पार्टियां जनता तक यह संदेश भी पहुंचा सकती है कि 'कांग्रेस पंजाब का चुनाव लड़ेगी, उसके पास तो चुनाव प्रभारी नियुक्त करने तक के लिए कोई प्रभावशाली नेता तक नहीं है।' ऐसे समय जब राज्य में कांग्रेस अपनी वापसी की पुरजोर कोशिश में जुटी है, यह स्थिति पार्टी के लिए लगातार नुकसान ही पहुंचा रही है।
कांग्रेस पंजाब को अपने लिए बेहद अहम मान रही है और इसीलिये पार्टी ने राज्य के लिए चुनाव रणनीति के 'चाणक्य' प्रशांत किशोर की सेवाएं ली हैं। वैसे भी राज्य में नशे का बढ़ता कारोबार और एंटी इनकमबेंसी फैक्टर इस बार सत्तारूढ़ अकाली दल-बीजेपी गठबंधन की राह की रोड़ा बन रहे हैं। बादल परिवार पर भ्रष्टाचार के आरोप और अकाली-बीजेपी के बीच मतभेद की एक मुद्दा है और इसके कारण लोगों में नाराजगी है। तीसरी प्रमुख पार्टी आम आदमी पार्टी भी दिल्ली के बाद दूसरे राज्य में सत्तासीन होने के लिए पूरा जोर लगा रही है, लेकिन अनुभव की कमी और दिल्ली में केंद्र के साथ 'तूतू-मैंमैं' के दौर में पंजाब के लोग उस पर कितना भरोसा दिखाएंगे, यह कहना मुश्किल है। कुल मिलाकर कांग्रेस पार्टी के लिए वापसी के लिहाज स्थिति पूरी तरह आदर्श थी, लेकिन चुनाव प्रभारी की नियुक्ति के मुद्दे पर 'आत्मघाती गोल' से कांग्रेस ने अपने अवसरों को धुंधला ही किया है...।
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