कोरोना वायरस (coronavirus) से बिहार में स्थिति दिन पर दिन बिगड़ते जा रहे हैं. इसका अंदाज़ा आप तीन बातों से लगा सकते हैं. पहला हर दिन जांच की संख्या और पॉज़िटिव पाए जाने वाले मरीज़ों का प्रतिशत लगभग पंद्रह प्रतिशत से ऊपर है. हालांकि राज्य सरकार के तरफ़ से इस आंकड़े को हर दिन उलट-पलट कर पेश किया जाता है ताकि लोगों में भ्रम बना रहे. दूसरा, जांच की क्या गति है- कई जिलो में सैम्पल जांच के अभाव में या ख़राब हो जाते हैं या जांच की रिपोर्ट तीन से पांच दिन में आती हैं. तीसरी राज्य में मुख्य राजनीतिक दल भाजपा के दफ़्तर को इसलिए सील करना पड़ा क्योंकि वहां 70 से अधिक व्यक्ति संक्रमित पाये गये और खुद उनके राज्य इकाई के अध्यक्ष डॉक्टर संजय जायसवाल फ़िलहाल पॉज़िटिव पाये जाने पर अस्पताल में भर्ती हैं. यही नहीं, बिहार सरकार का कोई भी, किसी भी स्तर का अधिकारी हो, मंत्री हो या अन्य दल के नेता कोई भी बिहार सरकार के अस्पताल में अपना इलाज नहीं कराना चाहते बल्कि सब एम्स पटना में अपनी पहुंच और पद के आधार पर भर्ती हो रहे हैं, जो यह साबित करता है कि बिहार की स्वास्थ्य सेवा और अस्पताल की हालत कितनी ख़राब है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने सम्बंधी के इलाज लिए भी AIIMS पटना जाना बेहतर समझते हैं. इस बीच, यह सवाल उठता है कि क्या कारण है कि आख़िर केंद्र को अपनी विशेष टीम रविवार को पटना भेजनी पड़ी और वर्तमान स्थिति के लिए आख़िर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कैसे दोषी हैं. उनके ऊपर हर दिन विपक्ष जो आरोप लगाता है आख़िर वो कितना जायज़ है.
- नीतीश कुमार के ऊपर ज़िम्मेदारी इसलिए बनती है कि कोरोना के शुरू से उन्होंने कमान अपने हाथ में रखी. उनसे सबसे बड़ी भूल मार्च महीने में विशेष ट्रेनों के आवागमन पर रोक लगवाने की पहल थी क्योंकि मार्च महीने में संक्रमण इतना नहीं फैला था और अगर इस समय वो श्रमिकों को आने देते तो उन्हें बाहर के राज्यों में कष्ट नहीं झेलना पड़ता.
- दूसरा, मार्च महीने के अंत में जब राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली से केजरीवाल सरकार और यूपी की योगी आदित्यनाथ सरकार की मदद से लोग आ रहे थे उस समय भी नीतीश कुमार ने अड़ंगा लगाया. भले ही उनका विरोध क़ानूनी आधार पर हो लेकिन यह भी सच है उस समय भी जब लोग आए तो अब तक बिहार सरकार का स्वास्थ्य विभाग यह साबित नहीं कर सकता है कि उसमें एक भी व्यक्ति संक्रमित था.
- तीसरा, जब नीतीश कुमार की ही मांग पर केंद्र ने अंतर्राज्यीय लोगों के आने जाने की अनुमति दी तो उस समय क्या नीतीश कुमार का ये निर्णय सही था कि लोगों के आने जाने के लिए ट्रेन सही रहेगी. उन्होंने ट्रेन में सवारी करने वाले अपने बिहारियों का भाड़ा इस आधार पर नहीं दिया था कि जब तक वो आकर कैंप में नहीं रहेंगे तब तक न्यूनतम 1 हज़ार रुपये उनके खाते में ट्रांसफर नहीं किया जाएगा. इसके पीछे की सोच यह थी कि अगर एक बार बिहार सरकार ट्रेनों का भार उठा लेगी या उसकी घोषणा कर देगी तो लोगों की संख्या काफ़ी ज़्यादा होगी. सरकारी आंकड़ों के अनुसार 22, लाख से अधिक लोग ट्रेनों से आए और क़रीब 10 लाख लोग अपने साधन से वापस लौटे. इन लोगों की जांच की कोई वैसी व्यवस्था नहीं थी जबकि लाखों की संख्या में लोग देश के उस समय के हॉट स्पॉट से आये थे.
- नीतीश कुमार के बारे में कहा गया कि चुनाव पर कोई असर न हो इसलिए मई महीने में जब उन्होंने देखा कि प्रवासी श्रमिकों में बहुत ज़्यादा संक्रमण पाया जा रहा है तो दिल्ली, मुंबई और गुजरात से आए लोगों को टेस्टिंग से अलग रखने का निर्देश उनके इशारे पर दिया गया. इस बात का प्रमाण ख़ुद बिहार सरकार के स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ों से मिलता है जब राज्य सरकार ने ये आंकड़ा देना बंद कर दिया कि आख़िर संक्रमितों में प्रवासी श्रमिकों की संख्या क्या है. जब स्वास्थ्य विभाग से ये बात पूछी जाती है आख़िर 30 लाख से अधिक प्रवासी में से कितने लोगों की टेस्टिंग हुई तो वो जवाब देने से बचते हैं. दूसरा पक्ष यह भी है कि रैंडम सैम्प्लिंग भी बंद कर दी गई है.
- मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने सहयोगी भाजपा के दबाव में मई महीने के बीच में स्वास्थ्य विभाग के प्रधान सचिव संजय कुमार का तबादला कर दिया, जो ख़ुद नीतीश कुमार के कट्टर समर्थक भी मानते है कि एक आत्मघाती फ़ैसला रहा क्योंकि उनकी जितनी विभाग के ऊपर पकड़ थी उसका विकल्प नीतीश कुमार के पास नहीं था. अब ख़ामियाज़ा नीतीश समेत पूरा राज्य के लोगों को उठाना पड़ रहा है. नीतीश कुमार के सरकार में एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार. युद्ध के बीच में जनरल को आप बदलेंगे तो आपकी पूरा सेना के मनोबल पर प्रतिकूल असर पड़ता है. जब तक संजय कुमार रहे बिहार के आंकड़ों की पूरे देश में चर्चा होती थी और आज बिहार का डेटा सबसे अविश्वसनीय माना जाता है.
- बची हई कस स्वास्थ्य विभाग के नये प्रधान सचिव ने निकाल दी, जो कोरोना के महामारी घोषित होने के बाबजूद देश के गिने चुने अधिकारियों में से एक हैं, जो मोबाइल फ़ोन उठाना भी सही नहीं समझते. इसका असर राज्य के पूरे स्वास्थ्य विभाग के कामकाज पर दिख रहा है, जहां राजधानी पटना में आम लोगों की जांच रिपोर्ट आने में तीन से पांच दिन लग जाता है. ज़िला मुख्यालय की बात तो रहने दीजिए.
- जांच की गति नीतीश कुमार के बार-बार कहने पर पिछले पांच दिनों से दस हज़ार पहुंची है जो उनके निर्देश के क़रीब दो महीने बाद संभव हो पाया. इसका एक कारण ये बताया जा रहा हैं कि मशीन तो हैं चलाने वाले तकनीकी लोगों की कमी हैं. खुद लैब के डॉक्टर और स्टाफ़ संक्रमित हो रहे हैं जिससे जांच कई दिनो तक रुक जाती हैं.
- नीतीश कुमार राज्य के मुखिया हैं, लेकिन लगातार छह दिनों तक उन्होंने केवल और केवल अपने पार्टी के कार्यकर्ताओं को मास्क कैसे पहने अपने सरकार के काम काज के अलावा ये भी सिखाया, लेकिन एक बार चार महीने में उन्होंने राज्य के टीवी चैनल पर आकर आम लोगों को बताने की ज़रूरत नहीं समझी. दरअसल विपक्ष के नेताओं की माने तो नीतीश कुमार को लगा कि जांच कम करने से पॉज़िटिव कम पाये जायेंगे, जिससे बिहार में चुनाव आयोग समय पर विधानसभा चुनाव का आयोजन कर सकेगा, लेकिन ये सोच अब उल्टी पड़ती दिख रही है.
- कोरोना आज बिहार के गांव-गांव में फैल चुका है उसका एक कारण बाहर से आये लोगों की जाँच न होने के साथ-साथ प्राथमिकी स्वास्थ्य केंद्रो की खस्ताहाल हालत भी ज़िम्मेदार है. कोविड अस्पताल में अराजकता और अव्यवस्था जैसे-जैसे मरीज़ की संख्या बढ़ रही है बढ़ती ही जा रही है.
- नीतीश कुमार की पूरी सरकार का फोकस अभी भी कोरोना से निपटने के लिए कदम उठाने से ज़्यादा अख़बारों ख़ासकर हिंदी अख़बारों में पॉज़िटिव मरीज़ों की संख्या मुख्य पृष्ठ पर न छपे इसपर अधिक दिखती हैं. जिससे इस बात की आशंका बढ़ रही है कि आने वाले दिन में स्थिति और भयावह होगी.