Gestational Diabetes: प्रेग्नेंसी के दौरान 14 सप्ताह से पहले महिलाओं को गेस्टेशनल डायबिटीज यानी गर्भावस्था के दौरान मधुमेह की जांच करवानी चाहिए. लैंसेट की नई स्टडी में इस जरूरत की अहम वजहों के बारे में विस्तार से बताया गया है. स्टडी से जुड़े एम्स के एंडोक्रिनोलॉजी डिपार्टमेंट के सीनियर डॉक्टर्स के मुताबिक, भारत में प्रेगनेंसी यानी गर्भावस्था के दौरान 15-20 प्रतिशत महिलाओं को गेस्टेशनल डायबिटीज (Gestational Diabetes) प्रभावित करता है. इसकी वजह यह है कि प्रेग्नेंसी के दौरान, एक महिला के हार्मोन इंसुलिन के रूटीन कामकाज में दखल दे सकते हैं यानी बॉडी ब्लड शुगर के लेवल को उस तरह कंट्रोल नहीं कर सकता जैसा कि आमतौर पर उसे करना चाहिए. इससे गेस्टेशनल डायबिटीज या गर्भावधि मधुमेह हो सकता है.
शुरुआती जांच से काबू किया जा सकता है गेस्टेशनल डायबिटीज
आनुवंशिक इतिहास और मोटापा (बॉडी मास इंडेक्स या 25 से अधिक बीएमआई) जैसे दूसरे ट्रिगर भी प्रेगनेंसी में शुगर स्पाइक का कारण बन सकते हैं. इसलिए परिवार में डायबिटीज का इतिहास हो तो डॉक्टर की सलाह से ब्लड शुगर लेवल के टेस्ट से गेस्टेशनल डायबिटीज को शुरुआत में ही कंट्रोल किया जा सकता है. आमतौर पर शुरुआत में खान-पान में सख्ती और नियमित एक्सरसाइज करने से दवा की जरूरत नहीं पड़ती. प्रेग्नेंसी के दौरान शुगर लेवल ठीक करने से महिला एक स्वस्थ बच्चे को जन्म देने में सक्षम हो जाती हैं.
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गेस्टेशनल डायबिटीज टेस्ट को वैश्विक प्रोटोकॉल बनाने की सिफारिश
लैंसेट की नई स्टडी प्रेगनेंसी के 14 सप्ताह के भीतर गेस्टेशनल डायबिटीज को प्रारंभिक परीक्षण में शामिल कर जच्चे-बच्चे को जटिलताओं से बचाने के लिए इसे वैश्विक प्रोटोकॉल के रूप में अपनाने की सिफारिश करता है. स्टडी के मुताबिक भारत में डायबिटीज के भारी बोझ और हाई ब्लड प्रेशर और फैटी लीवर जैसी साथ चलने वाली बीमारियों को देखते हुए, डिलीवरी से पहले ग्लूकोज के लिए कंपलसरी टेस्ट की सिफारिश की गई है. यह आमतौर पर पहली तिमाही में होता है.
14 सप्ताह से पहले पहला टेस्ट, 24-28 सप्ताह में दोबारा जांच
लैंसेंट की नई स्टडी ने अब तक प्रेग्नेंसी के 24 सप्ताह में गेस्टेशनल डायबिटीज के टेस्ट को चुनौती दी है और इसे 14 सप्ताह की पूर्व विंडो पर ले जाने के लिए कहा है. स्टडी ने अपनी सिफारिश में आगे कहा है कि गर्भ धारण करने के बाद जितनी जल्दी हो सके अपनी पहली प्रसवपूर्व जांच करवाएं और ग्लूकोज और अन्य स्थितियों के लिए टेस्ट पूरा करें. गर्भावस्था के दौरान स्वस्थ आहार को बढ़ावा दें ताकि महिलाओं का वजन उचित रूप से बढ़े, नियमित प्रसवपूर्व जांच सुनिश्चित करें और गर्भावस्था के 24-28 सप्ताह में दोबारा जांच कराएं.''
गेस्टेशनल डायबिटीज से मां और बच्चे के लिए जोखिम
गेस्टेशनल डायबिटीज के मामले में माताओं के लिए, भविष्य में हाई ब्लड प्रेशर, ब्लीडिंग, सी-सेक्शन डिलीवरी और डायबिटीज का खतरा होता है. उनके बच्चे समय से पहले पैदा हो सकते हैं, अधिक वजन वाले हो सकते हैं, उनका ब्लड शुगर कम हो सकता है और उन्हें सांस लेने में कठिनाई हो सकती है. इसलिए, अगर पहली टेस्ट रिपोर्ट निगेटिव है, तो दूसरा ग्लूकोज स्क्रीनिंग टेस्ट प्रेगनेंसी के 24 से 28 सप्ताह के बीच किया जाना चाहिए. डिलीवरी के बाद, छह से 12 सप्ताह के बीच एक और ग्लूकोज स्क्रीनिंग टेस्ट किया जाता है. इसके बाद हर साल ग्लूकोज स्क्रीनिंग टेस्ट किया जाता है, ताकि डायबिटीज और प्रीडायबिटीज के मामलों का जल्द से जल्द पता लगाया जा सके.
गेस्टेशनल डायबिटीज क्यों बढ़ रहा है?
दुनिया भर में हर सात प्रेग्नेंसी में से एक (यानी 14 प्रतिशत महिलाओं) को गेस्टेशनल डायबिटीज प्रभावित करता है. भारत में यह 15-20 प्रतिशत महिलाओं को प्रभावित करता है. वह मोटापे, डायबिटीज, हाई ब्लड प्रेशर और फैटी लीवर के जोखिम को कम करने के लिए बच्चों, किशोरों और प्रजनन के लायक आयु वर्ग की युवा आबादी में स्वस्थ जीवन शैली के बारे में जागरूकता बढ़ाने से रोका जा सकता है. जानकारों के मुताबिक, बढ़ते शहरीकरण और भागदौड़ वाली लाइफ स्टाइल के कारण हाई कार्बोहाइड्रेट और हाई फैट वाले खानपान की ओर बढ़ गए हैं. इसके चलते ही गेस्टेशनल डायबिटीज का खतरा बढ़ गया है. देर से गर्भधारण और इस दौरान ज्यादा वजन होने से भी गेस्टेशनल डायबिटीज और प्रेगनेंसी संबंधी जटिलताओं की आशंका बढ़ जाती है.
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(अस्वीकरण: सलाह सहित यह सामग्री केवल सामान्य जानकारी प्रदान करती है. यह किसी भी तरह से योग्य चिकित्सा राय का विकल्प नहीं है. अधिक जानकारी के लिए हमेशा किसी विशेषज्ञ या अपने चिकित्सक से परामर्श करें. एनडीटीवी इस जानकारी के लिए ज़िम्मेदारी का दावा नहीं करता है.)
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