
Why Cricket Fans Get Emotional?: मैच का आखिरी ओवर चल रहा है. सामने जीत की उम्मीद, लेकिन हार का डर भी. हाथ पसीने से भीग गए हैं, धड़कनें तेज हो गई हैं. टीवी के सामने बैठे लाखों लोग एक-एक गेंद के साथ अंदर से हिल जाते हैं. जब लास्ट बॉल पर जीत मिलती है, तो लगता है जैसे हमने खुद कुछ बड़ा हासिल कर लिया हो. लेकिन, जब हार मिलती है, तो दिनभर मन भारी रहता है, कई बार नींद तक नहीं आती. आखिर ऐसा क्यों होता है? क्रिकेट तो बस एक खेल है, फिर हम इतने इमोशनल क्यों हो जाते हैं? इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमने बात की मुंबई के एक जाने-माने क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट, डॉ. रितुपर्णा घोष से. उनका कहना है, "जब आपकी टीम जीतती है, तो दिमाग में ऐसे केमिकल्स निकलते हैं जो आपको खुशी और आत्मविश्वास का एहसास कराते हैं. यही कारण है कि लोग मैच के नतीजों से इतना जुड़ जाते हैं."
क्रिकेट देखते समय इमोशनल क्यों हो जाते हैं फैन्स? (Why Do Fans Get Emotional While Watching Cricket)
जीत सिर्फ एक खेल की नहीं होती
हम सब जानते हैं कि हमारी टीम की जीत से हमारे करियर या निजी जीवन पर कोई सीधा असर नहीं होता, लेकिन फिर भी हम उसमें पूरी तरह शामिल हो जाते हैं. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि इंसान एक सामाजिक प्राणी है. हम अपने आप को हमेशा किसी बड़े समूह का हिस्सा मानना चाहते हैं. जब हमारी टीम जीतती है, तो हमें लगता है कि हमने भी कुछ हासिल किया है. डॉ. घोष बताती हैं, "यह एक तरह की पहचान बन जाती है. जैसे हम कहते हैं ‘हम जीत गए' या ‘हम हार गए'. जबकि असल में मैदान में खेलते सिर्फ 11 लोग हैं. लेकिन, फैन खुद को भी उस टीम का हिस्सा मानते हैं. यही भावना हमें भावुक कर देती है."
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शरीर पर असर डालती है फैन की भावना
एक स्टडी के अनुसार, जब लोग अपनी टीम का मैच देखते हैं, तो उनके शरीर में डोपामाइन, एंडोर्फिन और टेस्टोस्टेरोन जैसे हार्मोन सक्रिय हो जाते हैं. ये केमिकल्स वही हैं जो खुशी, स्टिमुलेशन और स्ट्रेस जैसी फीलिंग्स को कंट्रोल करने में सहायक होते हैं.
हार से होता है गहरा असर
डॉ. घोष कहती हैं कि जब हमारी टीम हारती है, तो हम उसे व्यक्तिगत हार की तरह महसूस करते हैं. इससे चिड़चिड़ापन, गुस्सा और कभी-कभी उदासी भी आ जाती है. कुछ लोग तो सोशल मीडिया पर गाली-गलौच करने लगते हैं, दूसरों से झगड़ पड़ते हैं और कई बार खुद को भी नुकसान पहुंचा लेते हैं.
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भीड़ की मानसिकता क्या करती है?
गुरुग्राम के फोर्टिस अस्पताल में काम करने वाली मनोवैज्ञानिक डॉ. दिव्या जैन कहती हैं कि जब हम किसी ग्रुप का हिस्सा बनते हैं, जैसे स्टेडियम की भीड़ या ऑनलाइन फैन कम्युनिटी, तो हम अपनी सोच को थोड़ा पीछे छोड़ देते हैं. हम उस भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं और वहीं से फीलिंग्स और भी तेज हो जाती हैं. वह कहती हैं, "भीड़ में हम खुद को एक व्यक्ति नहीं बल्कि समूह के रूप में देखते हैं. इससे फीलिंग्स और रिएक्शन दोनों तेज हो जाते हैं. यही कारण है कि मैच जीतने पर हम नाचने लगते हैं और हारने पर निराश होकर टीवी बंद कर देते हैं."
यह सब ठीक है, लेकिन एक सीमा तक
डॉ. घोष कहती हैं कि खेलों से जुड़ाव अच्छा है, लेकिन जब यह आपकी सोच, रिश्ते और मानसिक शांति पर असर डालने लगे, तो यह खतरे की घंटी है. उनका कहना है, "अगर आप सिर्फ एक मैच हारने पर हफ्तों तक उदास रहते हैं, या दोस्तों से झगड़ पड़ते हैं क्योंकि वो दूसरी टीम के फैन हैं, तो आपको रुककर सोचना चाहिए कि क्या यह भावना ज़रूरत से ज़्यादा हो गई है."
क्रिकेट एक जरिया है, जिंदगी नहीं
क्रिकेट सिर्फ एक खेल है, जो हमें एक साथ लाता है, हंसाता है और कभी-कभी रुला भी देता है. लेकिन जिंदगी इससे कहीं बड़ी और जरूरी है.
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अमेरिका के मनोचिकित्सक डॉ. पीटर कीलन का कहना है कि, "अगर आप अपनी टीम को खेलते हुए देखकर मोटिवेशन, इंस्पिरेशन और थोड़ी खुशी पाते हैं, तो यह अच्छा है. लेकिन अगर यह आपकी मानसिक स्थिति को बिगाड़ रहा है, तो ये आपको नुकसान पहुंचा सकता है."
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(अस्वीकरण: सलाह सहित यह सामग्री केवल सामान्य जानकारी प्रदान करती है. यह किसी भी तरह से योग्य चिकित्सा राय का विकल्प नहीं है. अधिक जानकारी के लिए हमेशा किसी विशेषज्ञ या अपने चिकित्सक से परामर्श करें. एनडीटीवी इस जानकारी के लिए ज़िम्मेदारी का दावा नहीं करता है.)
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