हार्दिक पटेल (फाइल फोटो)
नई दिल्ली:
गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए हार्दिक पटेल जीत की चाभी साबित हो सकते हैं. हालांकि, जब तक वो खुलकर किसी के समर्थन का ऐलान नहीं कर देते, तब तक हार्दिक पटेल दोनों बड़ी पार्टियों के लिए खतरा बने रहेंगे. मगर जैसे ही वो कांग्रेस को समर्थन का ऐलान करेंगे, बीजेपी के लिए सिरदर्द जरूर बन सकते हैं. अब सवाल उठता है कि पटेल समुदाय के लिए आरक्षण की मांग करने वाले युवा नेता हार्दिक पटेल आखिर क्यों गुजरात में अहम भूमिका निभा रहे हैं, इसकी पड़ताल करने की जरूरत है. गुजरात में पटेल समुदाय 12 से 15 फीसदी की जनसंख्या में आते हैं, इसलिए हर पार्टी के लिए इस समुदाय को लुभाना राजनीतिक रूप से काफी फायदेमंद है.
गुजरात में पटेल समुदाय चुनावी दृष्टिकोण से काफी अहम हैं. न सिर्फ जनसंख्या के हिसाब से बल्कि वहां के छोटे-मोटे उद्योंगों में भी इस समुदाय का काफी दबदबा रहा है. इसलिए सबसे पहले हमें ये जानने की जरूरत है कि आखिर ये पटेल हैं कौन और ये इतने महत्वपूर्ण क्यों हैं. दरअसल, गुजरात में 12 से 15 फीसदी लोग पटेल समुदाय से आते हैं. पटेल में भी कई उप जातियां हैं. इतना ही नहीं, इस पटेल वर्ग में ओबीसी भी हैं, जिन्हें अंजना और कच्छ कहा जाता है. हालांकि, पटेल में कुल चार उप जातियां हैं.
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लेऊवा पटेल- पटेलों में लेऊआ पटेल बड़े किसान माने जाते हैं. सेंट्रल गुजरात और साउथ गुजरात में लेऊआ पटेलों की संख्या काफी है और इनकी मौजूदगी भी. ये अपने आप को सबसे ऊपर लेवल का पटेल मानते हैं.
कड़वा पटेल- कड़वा पटेल नॉर्थ गुजरात और सौराष्ट्र में काफी मजबूत हैं. हालांकि, इन्हें लेऊवा पटेल अपने लेवल का नहीं मानते हैं. ये मझोले किसान होते हैं.
पटेल ओबीसी- अंजना और कच्छ पटेल ओबीसी के अंतर्गत आते हैं. 12 से 15 फीसदी में 4-5 फीसदी अंजना और कच्छ पटेल की भागीदारी है. बता दें कि हार्दिक पटेल भी पटेलों का ओबीसी स्टेटस चाहते हैं.
कौन हैं पटेल-
ब्रिटिश राज में छोटे किसान से बड़े जमींदार बनने वाले ही पटेल हैं. भारती की आजादी के समय और कांग्रेस के मुवमेंट में पटेल फ्रंट में थे. सौराष्ट्र में रेलवे के पहले आने से पटेलों का विकास अधिक हुआ. रेलवे से पटेलों की समृद्धि हुई. यही वजह है कि छोटे-मोटे उद्योग धंधों में पटेलों का दबदबा कायम हुआ. इसके अलावा, पटलों ने सबसे पहले कैश क्रॉप की खेती की. कॉटन और टोबैको या तेलीय बीज उगाने के मामले में पटेल काफी आगे रहे हैं. बता दें कि इन फसलों से ज्यादा पैसा आता है. न कि अनाज के फसलों से. मगर पटेलों ने कैश क्रॉप की खेती पर ही अपने आप को केंद्रीत रखा और खेती से आने वाले पैसों को उन्होंने छोटे-मोटे उद्योगों में डाला. पटेलों की तरक्की की एक और वजह ये भी है कि राजकोट और जामनगर में मशीन टूल्स इंडस्ट्री काफी पहले से शुरू हो गये थे. पटेलों ने केमिकल और डाइज की इंडस्ट्री बनी. टाइल्स के धंधें में भी पटेलों का दबदबा है. बता दें कि मोरबी में सबसे अधिक टाइल्स बनते हैं और यहां भी पटेलों का दबदबा है. सूरत में हीरा उद्योग में भी पटेलों का सबसे अधिक दबदबा है.
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हालांकि, जैसे-जैसे पटेल समृद्ध होते गये हैं वे विदेशों में भी बसने लगे. विदेशों में छोटे-छोटे मोटल्स-होटल्स सबसे अधिक पटेलों ने ही खोले. इतना ही नहीं, छोटे-मोटे दुकानों में भी पटेलों का योगदान सबसे अधिक देखने को मिलता है. हालांकि, उच्च शिक्षा में पटेलों की भागीदारी ज्यादा नहीं रही है. यही वजह है कि अब पटेल समुदाय उच्च शिक्षा की ओर अपने कदम बढ़ाना चाहता है.
अगर पटेलों के आरक्षण वाली मांग के पीछे की वजहों पर गौर करें तो पिछले दो साल में गुजरात में खेती का ग्रोथ नेगेटिव हो गया है. साथ ही व्यापार और उद्योग में भी मंदी आई है. छोटे और मझोले इंटरप्राइजेज में 'बीमारी' बढ़ी है. यानी कि जो लोग लोन लेकर कुछ देर तक वापस नहीं कर पाते हैं. 2014 में 48 हजार यूनिट बीमार हो गये. 2015 में 49003 यूनिट बीमार हो गये और वहीं, 2016 में 42527 यूनिट बीमार हो गये .
पटेल और राजनीति
अगर पटेलों की राजनीति में भूमिका की बात करें तो 1980 के दशक में पटेलों का राजनीति से पावर कम होने लगा. 1981 से गुजरात में आरक्षण की घोषणा हुई. उस वक्त ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण मिला. 1981 में कांग्रेस की सरकार के ओबीसी आरक्षण मामले पर पटेल समुदाय के लोग कांग्रेस से अलग हो गये. ओबीसी आरक्षण के बाद पटेल-दलित और पटेल-ओबीसी दंगे और आंदोलन होने लगे. ये ऐसा वक्त था जब पटेल कांग्रेस से हटकर बीजेपी की ओर गये. इसके पटेल बीजेपी की रीढ़ की हड्डी बन गये.
गुजरात में पटेलों को आरक्षण देने के मुद्दे पर आज अपना रुख साफ कर सकती है कांग्रेस
करीब-करीब 2012 तक पटेल बीजेपी के साथ रहे. 2012 में जब केशुभाई पटेल ने बीजेपी को छोड़कर अपनी पार्टी बनाई, तो ये पटेलों का बीजेपी से मोहभंग का पहला संकेत था. यह पटेलों में पहली बगावत दिखी. धीरे-धीरे पटेलों में बगावत शुरू हुई. 2013 से लोकल लेवल पर हार्दिक पटेल आगे आए. 2015 में हार्दिक पटेल ने PAAS यानी पाटीदार अनामत आंदोलन समिति का नेतृत्व संभाला.
हार्दिक पटेल का उदय
आरक्षण की मांग में 2015 में हार्दिक पटेल ने जुलाई-अगस्त में उन्होंने विशाल रैलियां की. 25 अगस्त 2015 को उन्होंने बड़ा आंदोलन किया. कई जगह दंगे हुए. हार्दिक पटेल पर देशद्रोह का आरोप लगा और वो जेल भी गये. हालांकि, वो अभी जमानत पर बाहर हैं. अभी गुजरात में युवा पटेल नौकरियों की समस्या से जूझ रहे हैं. मगर हार्दिक पटेल से बीजेपी को सबसे बड़े खतरे का एहसास 2015 में लोकल निकाय यानी कि जिला पंतायत के परिणाम सामने आने के बाद दिखी. इस लोकल निकाय चुनाव में बीजेपी को वोट प्रतिशत में झटका लगा. हार्दिक पटेल ने जिस तरह से गुजरात में एंटी बीजेपी माहौल बनाया, उसने वोट प्रतिशत में भाजपा को पिछली चुनाव के मामले में पीछे धकेल दिया. हालांकि, इस मर्तबा कांग्रेस वोट प्रतिशत में भाजपा से आगे रही.
यह भी पढ़ें - Exclusive : हार्दिक पटेल ढाई साल तक किसी पार्टी में नहीं जाएंगे, बोले- मैं जनता का एजेंट हूं
मगर अब सवाल ये है कि क्या हार्दिक पटेल कांग्रेस से हाथ मिलाएंगे. अगर वो ऐसा नहीं करते हैं तो ये कांग्रेस के लिए भी झटके से कम नहीं है. यही वजह है कि हार्दिक पटेल से भाजपा और कांग्रेस दोनों को डर है. गुजरात का चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आते जा रहा है, वैसे सबकी निगाहें हार्दिक पटेल पर टिक गई हैं कि हार्दिक पटेल अपनी अगली चाल में क्या चलने वाले हैं.
VIDEO: SIMPLE समाचार : हार्दिक पटेल से किसको खतरा
गुजरात में पटेल समुदाय चुनावी दृष्टिकोण से काफी अहम हैं. न सिर्फ जनसंख्या के हिसाब से बल्कि वहां के छोटे-मोटे उद्योंगों में भी इस समुदाय का काफी दबदबा रहा है. इसलिए सबसे पहले हमें ये जानने की जरूरत है कि आखिर ये पटेल हैं कौन और ये इतने महत्वपूर्ण क्यों हैं. दरअसल, गुजरात में 12 से 15 फीसदी लोग पटेल समुदाय से आते हैं. पटेल में भी कई उप जातियां हैं. इतना ही नहीं, इस पटेल वर्ग में ओबीसी भी हैं, जिन्हें अंजना और कच्छ कहा जाता है. हालांकि, पटेल में कुल चार उप जातियां हैं.
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लेऊवा पटेल- पटेलों में लेऊआ पटेल बड़े किसान माने जाते हैं. सेंट्रल गुजरात और साउथ गुजरात में लेऊआ पटेलों की संख्या काफी है और इनकी मौजूदगी भी. ये अपने आप को सबसे ऊपर लेवल का पटेल मानते हैं.
कड़वा पटेल- कड़वा पटेल नॉर्थ गुजरात और सौराष्ट्र में काफी मजबूत हैं. हालांकि, इन्हें लेऊवा पटेल अपने लेवल का नहीं मानते हैं. ये मझोले किसान होते हैं.
पटेल ओबीसी- अंजना और कच्छ पटेल ओबीसी के अंतर्गत आते हैं. 12 से 15 फीसदी में 4-5 फीसदी अंजना और कच्छ पटेल की भागीदारी है. बता दें कि हार्दिक पटेल भी पटेलों का ओबीसी स्टेटस चाहते हैं.
कौन हैं पटेल-
ब्रिटिश राज में छोटे किसान से बड़े जमींदार बनने वाले ही पटेल हैं. भारती की आजादी के समय और कांग्रेस के मुवमेंट में पटेल फ्रंट में थे. सौराष्ट्र में रेलवे के पहले आने से पटेलों का विकास अधिक हुआ. रेलवे से पटेलों की समृद्धि हुई. यही वजह है कि छोटे-मोटे उद्योग धंधों में पटेलों का दबदबा कायम हुआ. इसके अलावा, पटलों ने सबसे पहले कैश क्रॉप की खेती की. कॉटन और टोबैको या तेलीय बीज उगाने के मामले में पटेल काफी आगे रहे हैं. बता दें कि इन फसलों से ज्यादा पैसा आता है. न कि अनाज के फसलों से. मगर पटेलों ने कैश क्रॉप की खेती पर ही अपने आप को केंद्रीत रखा और खेती से आने वाले पैसों को उन्होंने छोटे-मोटे उद्योगों में डाला. पटेलों की तरक्की की एक और वजह ये भी है कि राजकोट और जामनगर में मशीन टूल्स इंडस्ट्री काफी पहले से शुरू हो गये थे. पटेलों ने केमिकल और डाइज की इंडस्ट्री बनी. टाइल्स के धंधें में भी पटेलों का दबदबा है. बता दें कि मोरबी में सबसे अधिक टाइल्स बनते हैं और यहां भी पटेलों का दबदबा है. सूरत में हीरा उद्योग में भी पटेलों का सबसे अधिक दबदबा है.
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हालांकि, जैसे-जैसे पटेल समृद्ध होते गये हैं वे विदेशों में भी बसने लगे. विदेशों में छोटे-छोटे मोटल्स-होटल्स सबसे अधिक पटेलों ने ही खोले. इतना ही नहीं, छोटे-मोटे दुकानों में भी पटेलों का योगदान सबसे अधिक देखने को मिलता है. हालांकि, उच्च शिक्षा में पटेलों की भागीदारी ज्यादा नहीं रही है. यही वजह है कि अब पटेल समुदाय उच्च शिक्षा की ओर अपने कदम बढ़ाना चाहता है.
अगर पटेलों के आरक्षण वाली मांग के पीछे की वजहों पर गौर करें तो पिछले दो साल में गुजरात में खेती का ग्रोथ नेगेटिव हो गया है. साथ ही व्यापार और उद्योग में भी मंदी आई है. छोटे और मझोले इंटरप्राइजेज में 'बीमारी' बढ़ी है. यानी कि जो लोग लोन लेकर कुछ देर तक वापस नहीं कर पाते हैं. 2014 में 48 हजार यूनिट बीमार हो गये. 2015 में 49003 यूनिट बीमार हो गये और वहीं, 2016 में 42527 यूनिट बीमार हो गये .
पटेल और राजनीति
अगर पटेलों की राजनीति में भूमिका की बात करें तो 1980 के दशक में पटेलों का राजनीति से पावर कम होने लगा. 1981 से गुजरात में आरक्षण की घोषणा हुई. उस वक्त ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण मिला. 1981 में कांग्रेस की सरकार के ओबीसी आरक्षण मामले पर पटेल समुदाय के लोग कांग्रेस से अलग हो गये. ओबीसी आरक्षण के बाद पटेल-दलित और पटेल-ओबीसी दंगे और आंदोलन होने लगे. ये ऐसा वक्त था जब पटेल कांग्रेस से हटकर बीजेपी की ओर गये. इसके पटेल बीजेपी की रीढ़ की हड्डी बन गये.
गुजरात में पटेलों को आरक्षण देने के मुद्दे पर आज अपना रुख साफ कर सकती है कांग्रेस
करीब-करीब 2012 तक पटेल बीजेपी के साथ रहे. 2012 में जब केशुभाई पटेल ने बीजेपी को छोड़कर अपनी पार्टी बनाई, तो ये पटेलों का बीजेपी से मोहभंग का पहला संकेत था. यह पटेलों में पहली बगावत दिखी. धीरे-धीरे पटेलों में बगावत शुरू हुई. 2013 से लोकल लेवल पर हार्दिक पटेल आगे आए. 2015 में हार्दिक पटेल ने PAAS यानी पाटीदार अनामत आंदोलन समिति का नेतृत्व संभाला.
हार्दिक पटेल का उदय
आरक्षण की मांग में 2015 में हार्दिक पटेल ने जुलाई-अगस्त में उन्होंने विशाल रैलियां की. 25 अगस्त 2015 को उन्होंने बड़ा आंदोलन किया. कई जगह दंगे हुए. हार्दिक पटेल पर देशद्रोह का आरोप लगा और वो जेल भी गये. हालांकि, वो अभी जमानत पर बाहर हैं. अभी गुजरात में युवा पटेल नौकरियों की समस्या से जूझ रहे हैं. मगर हार्दिक पटेल से बीजेपी को सबसे बड़े खतरे का एहसास 2015 में लोकल निकाय यानी कि जिला पंतायत के परिणाम सामने आने के बाद दिखी. इस लोकल निकाय चुनाव में बीजेपी को वोट प्रतिशत में झटका लगा. हार्दिक पटेल ने जिस तरह से गुजरात में एंटी बीजेपी माहौल बनाया, उसने वोट प्रतिशत में भाजपा को पिछली चुनाव के मामले में पीछे धकेल दिया. हालांकि, इस मर्तबा कांग्रेस वोट प्रतिशत में भाजपा से आगे रही.
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मगर अब सवाल ये है कि क्या हार्दिक पटेल कांग्रेस से हाथ मिलाएंगे. अगर वो ऐसा नहीं करते हैं तो ये कांग्रेस के लिए भी झटके से कम नहीं है. यही वजह है कि हार्दिक पटेल से भाजपा और कांग्रेस दोनों को डर है. गुजरात का चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आते जा रहा है, वैसे सबकी निगाहें हार्दिक पटेल पर टिक गई हैं कि हार्दिक पटेल अपनी अगली चाल में क्या चलने वाले हैं.
VIDEO: SIMPLE समाचार : हार्दिक पटेल से किसको खतरा
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