कराची:
शहंशाह-ए-ग़ज़ल कहे जाने वाले पाकिस्तानी दिग्गज मेहदी हसन का बुधवार को कराची के आगा खान अस्पताल में देहावसान हो गया है।
फेफड़ों में संक्रमण से जूझ रहे 85-वर्षीय मेहदी हसन को 30 मई को अस्पताल के आईसीयू में भर्ती कराया गया था, और उन्होंने बुधवार को 12:22 बजे अंतिम सांस ली। पारिवारिक सूत्रों के अनुसार मेहदी हसन गले के कैंसर के अलावा फेफड़ों और सीने में भी कई बीमारियों से ग्रस्त थे, और पिछले 12 साल से बीमार चल रहे थे। उनके मुताबिक तीन दिन पहले हसन के कई अंगों में संक्रमण हो गया था, और उनके पेशाब में खून आने लगा था और एक के बाद एक अंगों ने काम करना बंद कर दिया था।
पिछले कुछ साल से फेफड़ों में संक्रमण से जूझ रहे हसन की हालत में वैसे पिछले दिनों सुधार आने लगा था और उन्हें इलाज के लिए भारत लाए जाने की भी कवायद चल रही थी। पारिवारिक सूत्रों ने बताया कि राजस्थान स्थित उनके पैतृक घर की कुछ पुरानी तस्वीरें दो दिन पहले ही भारत से उन्हें भेजी गई थीं।
ग़ज़लगायकी के उस्ताद माने जाने वाले, और 'रंजिशें सही...', 'ज़िन्दगी में तो सभी प्यार किया करते हैं...', 'पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा...' जैसी बेहतरीन ग़ज़लों को अपनी मखमली और शीरीं आवाज़ से नवाज़ने वाले मेहदी हसन का जन्म अविभाजित भारत में हुआ था। राजस्थान के लूना गांव में वर्ष 1927 में 18 जुलाई को जन्मे हसन को संगीत विरासत में मिला था, और वह कलावंत घराने की 16वीं पीढ़ी के फनकार थे।
उन्होंने अपने पिता आज़म खान और चाचा उस्ताद इस्माइल खान से संगीत की तालीम ली, जो ध्रुपद गायक थे। हसन ने बेहद कम उम्र से ही गाना शुरू कर दिया था और सिर्फ आठ बरस की उम्र में पहला कार्यक्रम पेश किया था। बाद में वर्ष 1947 में मुल्क की आज़ादी के वक्त हुए बंटवारे में वह परिवार समेत पाकिस्तान जाकर बस गए।
बहुत-से अन्य महान कलाकारों की तरह उनका जीवन भी दुश्वारियों से भरा रहा था, और पाकिस्तान जाकर उन्होंने आजीविका के लिए कभी साइकिल की दुकान पर काम किया, कभी मोटर मैकेनिक के रूप में, लेकिन संगीत के प्रति उनका जुनून हमेशा बरकरार रहा, और उन्होंने सुर-साधना कभी नहीं छोड़ी। उन्हें वर्ष 1957 में पहली बार रेडियो पाकिस्तान के लिए गाने का मौका मिला। उन्होंने शुरुआत ठुमरी गायक के रूप में की थी, क्योंकि उस दौर में ग़ज़ल गायन में उस्ताद बरकत अली खान, बेगम अख़्तर और मुख़्तार बेगम का नाम चलता था, लेकिन धीरे-धीरे वह ग़ज़ल की तरफ मुड़े और फिर उनके फन और काबिलियत ने उन्हें शहंशाह-ए-ग़ज़ल बना डाला। उन्होंने गंभीर रूप से बीमार होने के बाद '80 के दशक के आखिर में गाना छोड़ दिया था।
फेफड़ों में संक्रमण से जूझ रहे 85-वर्षीय मेहदी हसन को 30 मई को अस्पताल के आईसीयू में भर्ती कराया गया था, और उन्होंने बुधवार को 12:22 बजे अंतिम सांस ली। पारिवारिक सूत्रों के अनुसार मेहदी हसन गले के कैंसर के अलावा फेफड़ों और सीने में भी कई बीमारियों से ग्रस्त थे, और पिछले 12 साल से बीमार चल रहे थे। उनके मुताबिक तीन दिन पहले हसन के कई अंगों में संक्रमण हो गया था, और उनके पेशाब में खून आने लगा था और एक के बाद एक अंगों ने काम करना बंद कर दिया था।
पिछले कुछ साल से फेफड़ों में संक्रमण से जूझ रहे हसन की हालत में वैसे पिछले दिनों सुधार आने लगा था और उन्हें इलाज के लिए भारत लाए जाने की भी कवायद चल रही थी। पारिवारिक सूत्रों ने बताया कि राजस्थान स्थित उनके पैतृक घर की कुछ पुरानी तस्वीरें दो दिन पहले ही भारत से उन्हें भेजी गई थीं।
ग़ज़लगायकी के उस्ताद माने जाने वाले, और 'रंजिशें सही...', 'ज़िन्दगी में तो सभी प्यार किया करते हैं...', 'पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा...' जैसी बेहतरीन ग़ज़लों को अपनी मखमली और शीरीं आवाज़ से नवाज़ने वाले मेहदी हसन का जन्म अविभाजित भारत में हुआ था। राजस्थान के लूना गांव में वर्ष 1927 में 18 जुलाई को जन्मे हसन को संगीत विरासत में मिला था, और वह कलावंत घराने की 16वीं पीढ़ी के फनकार थे।
उन्होंने अपने पिता आज़म खान और चाचा उस्ताद इस्माइल खान से संगीत की तालीम ली, जो ध्रुपद गायक थे। हसन ने बेहद कम उम्र से ही गाना शुरू कर दिया था और सिर्फ आठ बरस की उम्र में पहला कार्यक्रम पेश किया था। बाद में वर्ष 1947 में मुल्क की आज़ादी के वक्त हुए बंटवारे में वह परिवार समेत पाकिस्तान जाकर बस गए।
बहुत-से अन्य महान कलाकारों की तरह उनका जीवन भी दुश्वारियों से भरा रहा था, और पाकिस्तान जाकर उन्होंने आजीविका के लिए कभी साइकिल की दुकान पर काम किया, कभी मोटर मैकेनिक के रूप में, लेकिन संगीत के प्रति उनका जुनून हमेशा बरकरार रहा, और उन्होंने सुर-साधना कभी नहीं छोड़ी। उन्हें वर्ष 1957 में पहली बार रेडियो पाकिस्तान के लिए गाने का मौका मिला। उन्होंने शुरुआत ठुमरी गायक के रूप में की थी, क्योंकि उस दौर में ग़ज़ल गायन में उस्ताद बरकत अली खान, बेगम अख़्तर और मुख़्तार बेगम का नाम चलता था, लेकिन धीरे-धीरे वह ग़ज़ल की तरफ मुड़े और फिर उनके फन और काबिलियत ने उन्हें शहंशाह-ए-ग़ज़ल बना डाला। उन्होंने गंभीर रूप से बीमार होने के बाद '80 के दशक के आखिर में गाना छोड़ दिया था।
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