विज्ञापन

बचपन, बाइस्कोप और भूली हुई आवाज़ें

Madhavi Mishra
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 10, 2024 15:43 pm IST
    • Published On सितंबर 10, 2024 15:42 pm IST
    • Last Updated On सितंबर 10, 2024 15:43 pm IST

किसी के जीवन की सबसे सुंदर शय क्या हो सकती है... मेरे लिए तो बचपन, सिर्फ़ बचपन... और बचपन की सुंदरतम याद है मधुर संगीत. संगीत, मानो जीवन का सबसे अपरिहार्य हिस्सा, जिसके बिना रात रात नहीं थी, तवील रात थी. संगीत कैसा भी हो, मनोहारी ही होता है, मन को हरने वाला, मन को तारने वाला, और मन का क्या ठिकाना - वह तो किसी भी राग में डूब सकता है... वे राग, जो दुनिया के तमाम रंग और नूर लिए हुए हैं... सघन उदासी के रंग, विरह के रंग, मिलन के रंग, धूप-छांव, शाम-सवेरे के रंग, लोक-परलोक के रंग... और हर राग के पास हुनर है आपको रुला देने का, प्रेम में सराबोर कर देने का, व्यथा को झकझोर देने का, आवेगों और संवेगों को बहा ले जाने का...

आज जब याद करती हूं, तो लगता है कि जब उन पलों को जी रही थी, तो क्या यह सोचा था कि ये पल कभी याद बन जाएंगे. बचपन का पिटारा जब भी खुलता है, कैसी मीठी हूक-सी उठती है, ज़़हन की क़िताब में जो पन्ने दर्ज हैं, वे उम्र के उत्तरकाल में कैसे फड़फड़ाने लगते हैं. कितने पुरसुकून हैं यादों के वे चिनार, जिन्हें हम सिर्फ़ निहार सकते हैं, बचपन - मानो धनक का आठवां रंग...

आज याद करने बैठी, तो जाने कितने ही ऐसे गाने याद आए, जिन्हें गाने वाले कहीं खो गए, गुमनाम होकर रह गए, लेकिन जो उन्होंने गाया, वह हम जैसे संगीत प्रेमियों के लिए सौगात बन आज भी साथ है.

सबसे पहले याद आता है - 'चश्मे बद्दूर' के लिए येसुदास और हेमंती शुक्ला का गाया गीत 'कहां से आये बदरा...' हेमंती शुक्ला कहां से आई थीं, कहां गईं, वह मुझे मालूम नहीं... पर दिल के किसी कोने में आज भी यह गीत जब भी बजता है, चिहुंक उठता है अपने पूरे औदात्य के साथ.

अरूप घोषाल तो जैसे एक ही गाने के लिए बने थे 'तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी, हैरान हूं मैं...' यह गीत पुरुष स्वर में ज़्यादा मक़बूल हुआ. खास बात यह है कि समय की आंच में यह गीत और सुनहरा लगता है.

अशोक खोसला ने हालांकि कई प्राइवेट एल्बमों के लिए गाया, पर 'अंकुश' फ़िल्म में गाया उनका गीत 'इतनी शक्ति हमें देना दाता...' मानो राष्ट्रीय प्रार्थना बन गया. हालांकि इसके लोकप्रिय होने में इसके शब्दों का योगदान उल्लेखनीय है. यह गीत मानो अपने समय से आगे का था, जो तपकर उत्तरोत्तर खरा होता चला गया. अशोक खोसला के एक गैर-फिल्मी गीत की चर्चा ज़रूर करना चाहूंगी, जो अपने आप में बेजोड़ है - वह है कवि नीरज का लिखा गीत 'जब सूना-सूना तुम्हें लगे जीवन अपना, तुम मुझे बुलाना, मैं गुंजन बन आऊंगा...' - क्या ही सुंदर गीत, क्या ही सुंदर अदायगी. जितनी कोमल कवि की भावनाएं, उतनी ही कमनीय आवाज़... जादू जगाती हुई.

एक गायिका की धूमिल छवि अब भी कौंधती है, जिन्होंने कुछ-एक फिल्मी गीत भी गाए, पर वे उतनी सराहना नहीं पा सके. दूरदर्शन पर नववर्ष के एक कार्यक्रम में शोभा जोशी का एक गीत शामिल था 'मालूम न था दो दिन के लिए आओगे, आकर चल दोगे...' मुझे भी ताज़्जुब होता है कि ज़िन्दगी में बरसों पुराना एक बार सुना हुआ गीत स्मृति कोशिकाओं में अब तक तक दर्ज़ है. शायद उस आवाज़ का सुरीलापन था, जो गहन असर कर गया था.

मदन मोहन की प्रतिभा संगीतकार के रूप में बेजोड़ और विशिष्टता लिए हुए है, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती, लेकिन जब पहली बार उनका गाया 'माई री...' सुना, तो लगा मानो दर्द अपने सम्पूर्ण वैशिष्ट्य के साथ, अपने चिर अकेलेपन के साथ साक्षात प्रकट हो गया हो. नीरवता और विकलता मानो हर पल प्रतिध्वनित होती हैं और हमें उस संसार में ले जाती हैं, जहां से हम वृहत्तर होकर लौटते हैं.

किशोरी अमोनकर ने शास्त्रीय रागों की दुनिया में अपना अद्भुत स्थान बनाया था, पर संगीत की सामान्य समझ रखने वालों के लिए वह पारलौकिक था. उनके दो गाने थे 'गीत गाया पत्थरों ने' का शीर्षक गीत और 'दृष्टि' फ़िल्म के लिए गाया हुआ 'एक ही संग हुते...' सुना न हो, तो सुनिए. माधुर्य और रचनात्मकता का अपूर्व मादक संसार, जो सम्मोहित करता है और करता ही चला जाता है.

मेहदी हसन के फ़न का कायल सारा ज़माना रहा है. उनके शैदाई उनकी गज़लों पर अपने दिल और जान लुटाते आए हैं.

'90 के दशक में एक गुमनाम-सी फ़िल्म आई थी 'धुन', जो रिलीज़ न हो सकी थी, पर इसमें एक नगीना था, जो अनसुना रह गया, जिसकी जानकारी सिर्फ़ बहुत पारखी लोगों को होगी. वह गीत था तलत अज़ीज़ के साथ गाया हुआ 'मैं आत्मा, तू परमात्मा...' यह अद्भुत जुगलबंदी थी, जिसमें अदब अपनी पूरी नफ़ासत और नज़ाकत के साथ मौजूद है और जो अपने थोड़े-से सूफ़ियाना मिज़ाज के कारण भी मुझे बेहद अज़ीज़ है.

कब्बन मिर्ज़ा के ज़िक्र के बिना यह दास्तान मुकम्मल नहीं होगी. 'रज़िया सुल्तान' में गाए गए उनके दोनों गीत निदा फ़ाज़ली और ख़य्याम साहब को मेरी नज़रों में बहुत ऊंचे पायदान पर रखते हैं. कब्बन मिर्ज़ा की आवाज़ का रफ़ टेक्सचर उस गाने की खासियत बन गया, जो किसी भी तुलना से परे है. प्रीति सागर भी एक ख़ास आवाज़ लिए आई थीं, जिन्होंने 'my heart is beating...' के साथ कमाल ही किया था, जो उस वक़्त के लिहाज़ से नवीन प्रयोग था, जो सफल भी रहा था.

कितने ही गायक हैं, गीत हैं, किस-किस का ज़िक्र करूं... भूपेन हजारिका हैं, उमा देवी हैं, जगजीत कौर हैं, रूना लैला हैं, मुबारक बेग़म हैं, छाया गांगुली हैं, आरती मुखर्जी हैं... यहां तक कि 'मुगले आज़म' में बड़े गुलाम अली साब भी हैं... अनगिनत नाम, अनगिनत नग़मे... दुनिया की तमाम प्रेम कहानियों की तरह छूट जाने और छोड़ दिए जाने के बीच झूल रहे हैं.

विगत और आगत के दरमियां ये गीत हमारी ज़िन्दगियों से विदा ले रहे हैं, क्योंकि अब आप हम जैसे रसिक नहीं बचे. इतने नामालूम ढंग से ये अवचेतन से लुप्त हो रहे हैं कि इनके निष्क्रमण को हम महसूस ही नहीं कर पा रहे. जबकि ये सिर्फ़ गीत नहीं हैं, इनमें समय की इबारतें दर्ज़ हैं. समय बीत जाता है, पर पल वहीं स्थिर हो जाते हैं.

माधवी मिश्र संगीत मर्मज्ञ हैं, और DPS, उज्जैन की डायरेक्टर हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
डार्क मोड/लाइट मोड पर जाएं
Previous Article
हिन्दी में तेज़ी से फैल रहे इस 'वायरस' से बचना ज़रूरी है...!
बचपन, बाइस्कोप और भूली हुई आवाज़ें
जम्मू एवं कश्मीर के चुनाव पर क्यों है दुनिया की नज़र...?
Next Article
जम्मू एवं कश्मीर के चुनाव पर क्यों है दुनिया की नज़र...?
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com