जन्मदिन पर विशेष : पर्दे पर अभिनय को जीते थे फारुख शेख

जन्मदिन पर विशेष : पर्दे पर अभिनय को जीते थे फारुख शेख

दिवंगत फारुख शेख (फाइल फोटो)

नई दिल्ली:

सादगी भरे आकर्षक चेहरे-मोहरे वाले अभिनेता फारुख शेख की छवि ऐसी थी, जो रुपहले पर्दे पर भी बेहद अपने से और जाने पहचाने से दिखते रहे। आप फारुख शेख को याद करें तो कभी आपके सामने 'चश्मे बद्दूर' का किरदार सिद्धार्थ पराशर सामने आ जाएगा, तो कभी नवाबी अंदाज में 'उमराव जान' का नवाब या फिर कभी फिल्म 'साथ-साथ' का बेबस बेरोजगार युवक।

फारुख शेख एक ऐसे अभिनेता रहे जो पर्दे पर अभिनय नहीं करते थे, बल्कि उसे जीते थे। बड़ौदा जिले के निकट 25 मार्च, 1948 को एक जमींदार परिवार में जन्मे फारुख शेख पांच भाई बहनों में सबसे बड़े थे। उनकी शिक्षा मुंबई में हुई थी।

वकील पिता के पदचिन्हों पर चलते हुए फारुख ने भी शुरुआत में वकालत के पेशे को ही चुना, लेकिन उनके सपने और उनकी मंजिल कहीं और ही थे। वकालत में खुद अपनी पहचान न ढूंढ़ पाए फारुख ने उसके बाद अभिनय को बतौर करियर चुना।

उन्होंने अपने करियर की शुरुआत थिएटर से की। वह भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) और जाने-माने निर्देशक सागर सरहदी के साथ काम किया करते थे। उन्हें अपने समकालीन अभिनेताओं के समान सुपरस्टार का दर्जा भले ही न मिला हो, लेकिन अपनी मेहनत, लगन और जीवंत अभिनय क्षमता के बलबूते वह शीघ्र ही फिल्मी दुनिया में अपनी एक अलग छाप छोड़ने में कामयाब रहे।

फारुख ने फिल्म के साथ-साथ टीवी और थिएटर में भी काम किया। फिल्मों में सक्रियता के बावजूद वह रंगमंच से भी जुड़े रहे। शबाना आजमी के साथ उनका नाटक 'तुम्हारी अमृता' बेहद सफल रहा। ए.आर. गुर्नी के 'लव लेटर्स' पर आधारित इस नाटक में फारुख और शबाना को मंच पर साथ देखना दर्शकों के लिए एक सुखद अनुभूति था। इस नाटक का 300 बार सफल मंचन हुआ।

वह एक ऐसे परिपूर्ण कलाकार थे, जो अभिनय के हर मंच और छोटे-बड़े हर किरदार को पूरी वफादारी से निभाते थे। पुरुष प्रधान फिल्मों के दौर में भी फारुख ऐसे अभिनेता थे, जिन्हें अभिनेत्री रेखा पर केंद्रित उमराव जान में एक छोटा सा किरदार निभाने में भी कोई हिचकिचाहट नहीं थी।

फिल्म के पोस्टर पर ही नहीं, बल्कि पूरी फिल्म में भी रेखा ही छाई थीं। लेकिन फारुख ने अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय किया और नवाब सुल्तान के अपने किरदार की अमिट छाप छोड़ दी।

इसी तरह साल 1973 में 'गरम हवा' में फारुख शेख ने सहायक भूमिका निभाई थी। लेकिन फिल्म में मुख्य भूमिका न होते हुए भी वह अपने दमदार अभिनय की सशक्त छाप छोड़ने में कामयाब रहे।

सत्तर के दशक में जब बॉलीवुड में हिंसा व मार-धाड़ से भरपूर फिल्मों का एक नया दौर शुरू हो रहा था और बॉलीवुड अमिताभ बच्चन की 'एंग्री यंग मैन' की छवि गढ़ रहा था, उसी समय फारुख अपने सहज अभिनय से सिने दुनिया में अपनी एक अलग पहचान बना रहे थे। वह 'कथा', 'उमराव जान', 'साथ-साथ' और 'गमन' जैसी समानांतर फिल्मों के किरदारों को पर्दे पर जीवंत करते रहे।

वह एक ऐसे अभिनेता की छवि गढ़ने में कामयाब रहे, जो बेहद जटिल किरदारों को भी बेहद सहजता से निभाने और उन्हें पर्दे पर असल जिंदगी के करीब और वास्तविक दिखाने में माहिर थे। फारुख ने सत्यजित रे, मुजफ्फर अली, ऋषिकेश मुखर्जी, केतन मेहता और सईं परांजपे जैसे प्रख्यात निर्देशकों के साथ काम किया।

'गमन' में एक टैक्सी डाइवर के रूप में जीविका की तलाश में उत्तर प्रदेश से मुंबई जाने वाला एक हताश और कुंठित प्रवासी युवक, 'चश्मे बद्दूर' में एक सीधा-सादा और शर्मीला नौजवान व 'कथा' में एक चालाक और धूर्त युवक वासुदेव व उमराव जान के जहीन नवाब, फारुख का निभाया हर किरदार विविध प्रकार की भूमिकाओं को बेहद खिलंदड़पन और सहजता से बखूबी निभाने की उनकी क्षमता को प्रमाणित करता है।

थियेटर, शायरी, सोशल वर्क, लिखना-पढ़ना, खाना पकाना और खिलाना उनके व्यक्तित्व के कई पहलू थे और हर पहलू के प्रति उनकी संजीदगी और वफादारी दिखती थी। अपने लाजवाब अभिनय से दर्शकों को मंत्रमुग्ध करने वाले फारुख शेख ने फिल्मों की संख्या की जगह उनकी गुणवत्ता पर ध्यान दिया और यही कारण है कि अपने चार दशक के सिने करियर में उन्होंने लगभग 40 फिल्मों में ही काम किया।

निर्माता-निर्देशक यश चोपड़ा की फिल्म 'नूरी' से उन्होंने व्यावसायिक फिल्मों में भी अपनी अभिनय क्षमता को सिद्ध किया। बेहतरीन गीत-संगीत और अभिनय से सजी इस फिल्म की कामयाबी ने न सिर्फ उन्हें, बल्कि अभिनेत्री पूनम ढिल्लों को भी स्टार के रूप में स्थापित कर दिया।

बेहद सादगी भरे, सहज और कुशल अभिनय से हर किरदार को अपने व्यक्तित्व के एक हिस्से के रूप में गढ़ने में माहिर फारुख को अपनी प्रतिभा के अनुरूप पहचान नहीं मिली। नसीरूद्दीन शाह, ओम पुरी जैसे समानांतर सिनेमा के कलाकारों के समान ही सामनांतर सिनेमा में अपने सहज अभिनय की छाप छोड़ने के बावजूद उन्हें वह मुकाम नसीब नहीं हुआ, जो उनके दौर के अन्य कलाकारों को मिला।

फारुख ने 90 के दशक के अंत में कई टीवी धारावाहिकों को भी अपने बेहतरीन अभिनय से सजाया, जिनमें सोनी चैनल पर 'चमत्कार', स्टार प्लस पर 'जी मंत्रीजी' आदि शामिल थे। एनडीटीवी द्वारा बनाए गए कार्यक्रम 'जीना इसी का नाम है' में भी फारुख ने काम किया। उन्होंने शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के विख्यात उपन्यास पर आधारित दूरदर्शन धारावाहिक 'श्रीकांत' में भी मुख्य भूमिका निभाई।

अपनी सह-अभिनेत्रियों में दीप्ति नवल के साथ उनकी जोड़ी सबसे ज्यादा सफल रही। दीप्ति नवल और फारुख शेख की जोड़ी सत्तर के दशक की सबसे हिट जोड़ी रही। दर्शक इन दोनों ही बेहद सरल, सहज दिखने वाले और बेहद स्वाभाविक अभिनय करने वाले कलाकारों में खुद अपनी छवि देखते थे और उन्हें साथ देखना चाहते थे। इस हिट जोड़ी ने साथ मिलकर 'चश्मे बद्दूर', 'रंग-बिरंगी', 'साथ-साथ', 'कथा' जैसी कई फिल्में कीं, जो बेहद सफल भी रहीं।

एक अंतराल के बाद 'सास, बहू और सेंसेक्स', 'लाहौर' और 'क्लब 60' जैसी शानदार फिल्मों के जरिए उन्होंने फिर से फिल्मों में अपनी पारी की शुरुआत की। 'लिसन अमाया' में वह दीप्ति नवल के साथ 25 साल बाद फिर से दिखाई दिए। 'लाहौर' में उनके सशक्त अभिनय के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया।

दिल का दौरा पड़ने के कारण 2013 में वह दुनिया को अलविदा कर चले गए, वह भी अपनी धरती से नहीं, परदेस से। लेकिन उनके प्रशंसकों के जेहन में उनकी छवि एक ऐसे अभिनेता के रूप में सदैव जीवित रहेगी, जो सुपरस्टार भले ही न रहा हो, लेकिन अभिनय के मामले में एक स्टार शख्सियत से काफी ऊंचे मुकाम पर रहा।

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(इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है)