मुंबई:
झारखंड के धनबाद जिले में बसे छोटे-से शहर वासेपुर में सेट 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' की कहानी सरदार खान की है, जो कोयला मिल मालिक रामाधीर सिंह से अपने पिता की मौत का बदला लेने की कसम खाता है... लेकिन इस दुश्मनी में ट्राएंगल है, क्योंकि रामाधीर के अलावा वासेपुर के कसाई भी सरदार खान के दुश्मन हैं...
सबसे पहले, सबसे ज़रूरी बात... यह फिल्म कोलमाइन्स (कोयला खदानों) पर नहीं, बदले की आग पर आधारित है, हालांकि कोयला खदानों का क्राइम इस आग को हवा देता है... लेकिन फिल्म एक विशाल नदी की तरह अपने भीतर ढेरों किरदार और उनकी अपनी-अपनी कहानियों को समेटे है, जिनके चलते लीड केरेक्टर और मेन स्टोरी से फोकस खत्म होता दिखता है... डायरेक्टर अनुराग कश्यप सब कुछ दिखा देना चाहते हैं - सरदार खान का बदला, उसकी फैमिली लाइफ, उसकी रंगरलियां, बदलते बिज़नेस, उसके बेटों की लव स्टोरी, बेटे की क्राइम वर्ल्ड में एंट्री, मुस्लिमों के दो समुदायों के बीच की दुश्मनी, कोल माइन्स में दादागिरी - और, और भी बहुत कुछ... इसी के चलते पौने तीन घंटे की यह फिल्म ज़रूरत से ज़्यादा लंबी लगने लगती है, और कोयला खदानों का इतिहास दिखाने की कोशिश करते सीन्स कई जगह डॉक्यूमेन्ट्री-सा एहसास कराते हैं...
बहरहाल ज़िद्दी, ज़ालिम, रंगीन-मिजाज़ सरदार खान का रोल मनोज बाजपेयी ने बखूबी निभाया है, हालांकि तिगमांशु धूलिया ने मिल-मालिक बनकर उन्हें बराबरी की टक्कर दी है... नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी, ऋचा चड्ढा और जयदीप अहलावत के परफॉर्मेन्स दमदार हैं... फिल्म की कहानी कहीं भी रुकती नहीं, सो, अगर आपका ध्यान ज़रा भी भटका तो कुछ न कुछ मिस कर जाएंगे... कोयला खदान में कालिख पुते मजदूर की मारपीट और जीप पर माइक्रोफोन लेकर खुलेआम मंत्री को चुनौती देते सीन्स काफी दमदार हैं...
'इक बगल में चांद होगा...' और 'जिया हो बिहार के लाला...' जैसे तीन-चार गानों को छोड़ दें तो म्यूज़िक बेहद खराब है... खासकर, फिल्म के कमर्शियल मिजाज़ से म्यूज़िक ज़रा भी मेल नहीं खाता...
'गैंग्स ऑफ वासेपुर' देखने से पहले जान लें कि इसमें बहुत ज़्यादा खून-खराबा है, गालियां भी हैं... और यह सब आपको पौने तीन घंटे तक देखना है... हमारे विचार में यह फिल्म आम आदमी से ज़्यादा 'सेलेक्ट ऑडियन्स' के लिए बनी दिखती है, और इसके लिए हमारी रेटिंग है 3 स्टार...
सबसे पहले, सबसे ज़रूरी बात... यह फिल्म कोलमाइन्स (कोयला खदानों) पर नहीं, बदले की आग पर आधारित है, हालांकि कोयला खदानों का क्राइम इस आग को हवा देता है... लेकिन फिल्म एक विशाल नदी की तरह अपने भीतर ढेरों किरदार और उनकी अपनी-अपनी कहानियों को समेटे है, जिनके चलते लीड केरेक्टर और मेन स्टोरी से फोकस खत्म होता दिखता है... डायरेक्टर अनुराग कश्यप सब कुछ दिखा देना चाहते हैं - सरदार खान का बदला, उसकी फैमिली लाइफ, उसकी रंगरलियां, बदलते बिज़नेस, उसके बेटों की लव स्टोरी, बेटे की क्राइम वर्ल्ड में एंट्री, मुस्लिमों के दो समुदायों के बीच की दुश्मनी, कोल माइन्स में दादागिरी - और, और भी बहुत कुछ... इसी के चलते पौने तीन घंटे की यह फिल्म ज़रूरत से ज़्यादा लंबी लगने लगती है, और कोयला खदानों का इतिहास दिखाने की कोशिश करते सीन्स कई जगह डॉक्यूमेन्ट्री-सा एहसास कराते हैं...
बहरहाल ज़िद्दी, ज़ालिम, रंगीन-मिजाज़ सरदार खान का रोल मनोज बाजपेयी ने बखूबी निभाया है, हालांकि तिगमांशु धूलिया ने मिल-मालिक बनकर उन्हें बराबरी की टक्कर दी है... नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी, ऋचा चड्ढा और जयदीप अहलावत के परफॉर्मेन्स दमदार हैं... फिल्म की कहानी कहीं भी रुकती नहीं, सो, अगर आपका ध्यान ज़रा भी भटका तो कुछ न कुछ मिस कर जाएंगे... कोयला खदान में कालिख पुते मजदूर की मारपीट और जीप पर माइक्रोफोन लेकर खुलेआम मंत्री को चुनौती देते सीन्स काफी दमदार हैं...
'इक बगल में चांद होगा...' और 'जिया हो बिहार के लाला...' जैसे तीन-चार गानों को छोड़ दें तो म्यूज़िक बेहद खराब है... खासकर, फिल्म के कमर्शियल मिजाज़ से म्यूज़िक ज़रा भी मेल नहीं खाता...
'गैंग्स ऑफ वासेपुर' देखने से पहले जान लें कि इसमें बहुत ज़्यादा खून-खराबा है, गालियां भी हैं... और यह सब आपको पौने तीन घंटे तक देखना है... हमारे विचार में यह फिल्म आम आदमी से ज़्यादा 'सेलेक्ट ऑडियन्स' के लिए बनी दिखती है, और इसके लिए हमारी रेटिंग है 3 स्टार...
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