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Gyan Bharatam 2025: डिजिटल होंगी दुर्लभ पांडुलिपियां, देश-दुनिया तक पहुंचेगा ऋषि-मुनियों का ज्ञान, जानें कैसे?

Gyan Bharatam 2025: भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय का ज्ञान भारतम् मिशन क्या है? इस मिशन के तहत जिन प्राचीन पाण्डुलिपियों को डिजिटल फार्मेट में संरक्षित करने की बात कही जा रही है, उससे किसे और क्या लाभ होगा? क्या प्राचीन पांडुलिपियों की मदद से हमारा देश न सिर्फ ज्ञान बल्कि विज्ञान की दिशा में ताकत के साथ कदम आगे बढ़ाने जा रहा है?

Gyan Bharatam 2025: डिजिटल होंगी दुर्लभ पांडुलिपियां, देश-दुनिया तक पहुंचेगा ऋषि-मुनियों का ज्ञान, जानें कैसे?
Gyan Bharatam 2025: देश में मौजूद एक करोड़ से ज्यादा पांडुलिपियों के डिजिटलीकरण करके संरक्षित करने की योजना

ज्ञान भारतम सम्मेलन 2025 (Gyan Bharatam 2025): देश की राजधानी दिल्ली में दुर्लभ पांडुलिपियों को सहेजने और उसमें छिपी अनमोल ज्ञान संपदा को सामने लाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ज्ञान भारतम् पोर्टल का शुभारंभ किया. अब आपके मन में सवाल उठ रहा होगा कि आखिर भारत सरकार द्वारा पांडुलिपियों को सहेजने के लिए एक अलग संस्थान और पोर्टल बनाने की आवश्यकता क्यों पड़ी? आइए तकनीक और प्राचीन संस्कृति के इस तालमेल को विस्तार से जानने-समझने की कोशिश करते हैं और सबसे पहले जानते हैं कि आखिर सदियों पहले इन पांडुलिपियों को तैयार करने की जरूरत क्यों पड़ी? 

किस तरह हुई पांडुलिपियों की शुरुआत?

विश्व में ज्ञान का प्राचीनतम खजाना या फिर कहें लिखा हुआ दस्तावेज ऋग्वेद है. जिसे सनातन परंपरा में अपौरूषेय माना गया है. इसे युगों पहले देवताओं ने ऋषियों को मौखिक रूप से दिया था और यह श्रुति परंपरा हमारे यहां हजारों साल तक चलती रही, लेकिन जब लोगों को मंत्र कंठस्थ करने में दिक्कतें आने लगीं तो इसे लिपिबद्ध करने की परंपरा शुरु हुई.

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इसके बाद जब वेद मंत्रों की ध्वनि को आड़े-तिरछे, गोल रेखाओं का स्वरूप दिया गया तो वह लिपि कहलाया. शुरुआत में इसे पत्थर पर लिखा जाता था, लेकिन बाद में भोजपत्र और ताड़पत्र आदि पर लिखा जाने लगा. इसके बाद जब कागज आया तो उसमें भी वेदों और तमाम अन्य महापुरुषों की अमर वाणी को लिपिबद्ध किया गया. अब सवाल उठता है कि लिपि के साथ पांडु शब्द कैसे जुड़ा और किसे कहते हैं पांडुलिपि?

किसे कहते हैं पांडुलिपि 

श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. मुरली मनोहर पाठक के अनुसार पांडु को अंग्रेजी में मेन्यु कहते हैं. यह मेन्युस्क्रिप्ट से निकला है. अंग्रेजी के मेन्युस्क्रिप्ट का अर्थ होता है मनुष्य के द्वारा लिखा गया लेख, लेकिन पांडुलिपि में वह अर्थ नहीं आता है. दरअसल, जिस पत्र आदि पर कोई लिपि लिखी जाती है, वह पांडु कहलाता है. इस तरह पांडु पर लिखी गई लिपि पांडुलिपि कहलाती है. 

कई लाख पांडुलिपियों में छिपा हुआ है अनमोल ज्ञान

प्रो. मुरली मनोहर पाठक के अनुसार अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय नेशनल मेन्युस्क्रिप्ट मिशन की स्थापना की गई थी. उस मिशन के तहत देश में जहां कहीं भी संस्थान या घर में जो भी पांडुलिपियां थीं, उनको इकट्ठा करके संरक्षित करने की शुरुआत हुई. बाद में साधन के अभाव में ही सही लेकिन यह कार्य धीमी गति से जारी रहा, लेकिन वर्तमान सरकार में संस्कृति मंत्रालय ने इसे मिशन के रूप में लिया और ज्ञान भारतम् के तहत इन सभी पांडुलिपियों का संरक्षण का काम किया जा रहा है. 

प्रो. पाठक कहते हैं कि भारत में एक दौर ऐसा भी था, जब संस्कृत ही सारी विद्या का केंद्र हुआ करता था. ऐसे में एक ही ग्रंथ को 50 जगह पर 50 तरीके से लिखा गया. निश्चित तौर पर भविष्य में विद्वान इन पांडुलिपियों के अनमोल ज्ञान का शोध करेंगे. आज हमारे सामने कई ग्रंथ हैं, जिन्हें पांडुलिपियों की मदद से तैयार किया गया है, लेकिन देश में अभी भी कई लाख पांडुलिपियां हैं, जिनका असल ज्ञान समाज के सामने आना बाकी है. 

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इस विश्वविद्यालय रखी हैं 1 लाख से ज्यादा पांडुलिपियां

मान्यता है कि देश में अलग-अलग विषयों पर अलग-अलग भाषाओं में तकरीबन एक करोड़ से ज्यादा पांडुलिपियां मौजूद हैं. यदि बात करें वाराणसी के संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय की तो यहां पर अकेले एक लाख से ज्यादा दुर्लभ पांडुलिपियां रखी हुई हैं. संस्थान के सरस्वती ग्रंथालय में 1,11,132 पांडुलिपियां मौजूद हैं, जो किसी भी विश्वविद्यालय में सबसे अधिक है. व्याकरण, साहित्य, दर्शन, शिल्प, वास्तु, खगोल शास्त्र, आयुर्वेद, तंत्र, मंत्र आदि पर आधारित ये पांडिुलिपियां 27 लिपि में हैं. 

बेहद सावधानी के साथ होता है पांडुलिपियों का डिजिटलीकरण 

संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बिहारी लाल शर्मा के अनुसार प्राचीन काल में जब महापुरुषों की अंतसचेतना के प्रभाव से जो कुछ भी उनके भीतर से ज्ञान का स्फुरण हुआ, उसको उन्होंने इसमें लिपिबद्ध किया है. प्रो. बिहारी लाल के अनुसार सदियों से ये पांडुलिपियां तमाम संस्थानों में धूल फांक रही थीं लेकिन वर्तमान सरकार ने इस ओर विशेष ध्यान दिया. प्रधानमंत्री की प्रेरणा से संस्कृति मंत्रालय ने इस दिशा में विशेष पहल की और राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के द्वारा इन बेशकीमती पांडुलिपियों का डिजिटलीकरण करवाने का काम शुरु किया. वर्तमान में यह राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन ज्ञान भारतम् में समाहित हो गया है. उसके निर्देशन में हमारे संस्थान ने बीते एक साल में दो हजार पांडुलिपियों का संरक्षण किया है, जबकि बाकी पर काम जारी है. 

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इन पांडुलिपियों के डिजि​टलीकरण बहुत सावधानी के साथ किया जाता है क्योंकि बहुत सारी पांडुलिपियां अत्यंत ही प्राचीन हैं और उनका पेपर भी काफी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में होता है. इसमें 85000 फोलियोज यानि पेपर संरक्षित किये हैं और तकरीबन 900 पांडुलिपियों का डिजिटलाइजेशन ​भी किया गया है. इस कार्य को करने के लिए समय-समय पर नई पीढ़ी को प्रशिक्षित भी किया जाता है. बावजूद इसके देश भर में पांडुलिपियों को तेजी से सुरक्षित और संरक्षित करने के लिए मौजूदा समय में बड़ी संख्या में मैन पावर की आवश्यकता है.

​पांडुलिपियों का डिजिटलीकरण के बाद क्या होगा?

प्रो. लाल बिहारी शर्मा के अनुसार पांडुलिपियों को ​डिजिटल फारमेट में लाने के बाद उसे सीधे ही आम लोगों के लिए उपब्ध नहीं होगा. चूंकि ये सभी पांडुलिपियां शारदा, ब्राह्मी, गुरुमुखी, उर्दू, अरबी, फारसी, कन्नड, उड़िया, मराठी, गुजराती, तेलगू, तमिल, असमिया, आदि 27 लिपियों में है. ऐसे में इसे शोध करने के बाद तमाम भाषाओं मे अनुवाद किया जाएगा. फिर उसे सभी के लिए उपलब्ध करा दिया जाएगा. जब पांडुलिपियों का अनमोल ज्ञान सामान्य भाषाओं में अनुवाद होकर भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होगा तो क्या नई पीढ़ी और क्या पुरानी पीढ़ी, सभी के लिए महापुरुषों का लिपिबद्ध ज्ञान सर्वसुलभ हो जाएगा. 

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अब पांडुलिपियों की होगी घर वापसी! 

कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक की 75 देवनागरी पाण्डुलिपियों को एकत्र करके, उनका विश्लेषण करने वाले गुजरात युनिर्वसिटी के पूर्व प्रोफेसर डॉ. वसन्तकुमार मनुभाई भट्ट कहते हैं कि ​अब प्रश्न सिर्फ भारत में मौजूद पांडुलिपियों को संरक्षित करने का ही नहीं है, बल्कि जो पांडुलिपियां विदेशों में किसी भी कारणवश चली गई हैं, उनकी घर वापसी करवाना होगा.

डॉ. वसन्तकुमार के अनुसार गुप्त काल के समय फाह्यान, ह्वेनसांग जैसे चीनी यात्री जब भारत आए तो लौटते समय अपने साथ बहुत सारे बौद्ध ग्रंथ ले गये. आज वहां उन सभी ग्रंथों का चाइनीज भाषा में अनुवाद हो गया है. ऐसे में उसे वापस लाकर यहां पर पाली भाषा में कन्वर्ट करना होगा. कहने का तात्पर्य यह है कि भारत के प्राचीन ज्ञान को वापस लाकर प्रतिष्ठित करना होगा. डॉ. वसन्तकुमार के अनुसार यह ज्ञान हमारा है और हम ही उसे संभालेंगे और नई पीढ़ी को भविष्य में अवगत कराएंगे. 

बहरहाल, विकसित भारत का जो लक्ष्य जो केंद्र सरकार ने चुना है, उसमें पांडुलिपि की महती भूमिका रहने वाली है क्योंकि किसी भी विधा में यदि कोई बात कहीं पीछे छूट गई होगी तो वह पांडुलिपियों की मदद से जानी जा सकेगी. पांडुलिपियों की मदद से हमारा देश न सिर्फ ज्ञान बल्कि विज्ञान की दिशा में ताकत के साथ कदम आगे बढ़ाएगा क्योंकि उसमें सुरक्षित ऋषि-मुनियों और दिव्य पुरुषों की ज्ञान संपदा अब पूरे विश्व के सामने को आने को तैयार है. 

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