नई दिल्ली:
आपको सुनकर भले ही अचरज हो, लेकिन सच है कि जब चिताओं की आग ठंडी हो जाती है तब उसकी बची लकड़ियां गरीबों को गर्माहट देती हैं। दरअसल बेबस और लाचार लोगों के लिए जहां दो जून की रोटी भी चुनौती से कम नहीं, वहां कड़कड़ाती सर्दी में हाथ सेकने के लिए लकड़ियां खरीदना तो दूर की बात है।
खासकर ये वे लोग हैं जिनके पास न पक्का रोजगार है और न ही सिर के ऊपर खुद की छत। इनका गुजर-बसर दिहाड़ी से चलती है और पता रैन बसेरों में मिलता है। निगमबोध घाट के किनारे शाम ढलते ही ऐसे लाचार लोगों का झुंड आपको आसानी से चिताओं की ठंडी हुई आग में से लकड़ियां चुनते दिख जाएंगे।
ऐसे लोगों की तलाश में एनडीटीवी निगमबोध घाट पहुंचा तो ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी। मुलाकात, जली हुई लकड़ी का गट्ठर लिए असम के सुरेश से हुई। सुरेश ने बताया 'चाय की दुकान में दिहाड़ी से पेट भरने में भी आफत है। ऐसे लकड़ी मुर्दे की हो तो क्या, मुफ्त में तो है। इस ठंड में जान बच जाए बहुत है। हाथ तापेंगे सर।'
यहां क्लिक करके वीडियो देखें...
फिर, कुछ लड़कों पर नजर पड़ी। शरीर पर मैला और फटा-पुराना कपड़ा लपेटे बेझिझक घाट किनारे लकड़ियां समेटने में जुटे थे। बात शादी में काम करने वाले प्रदीप से हुई जो रैन बसेरे में रहता है। बोला जब हर बार ठंड बढ़ती है तो सहारा इन लकड़ियों का ही होता है। और यहीं चुनने चले आते हैं।
इस ठिठुरती ठंड के चलते पिछले तीन दिन में 10 लोगों ने दम तोड़ दिया है। प्रदीप का तो यह भी कहना है कि जो दिल्ली सरकार तीन साल पहले तक रैन बसेरे में अलाव का इंतजाम करती थी, अब वो भी ठंडी पड़ गई है।
जान बचानी है और सवाल जिंदगी का है तो ये लोग श्मशान की तरफ रुख करने से नहीं कतराते।
खासकर ये वे लोग हैं जिनके पास न पक्का रोजगार है और न ही सिर के ऊपर खुद की छत। इनका गुजर-बसर दिहाड़ी से चलती है और पता रैन बसेरों में मिलता है। निगमबोध घाट के किनारे शाम ढलते ही ऐसे लाचार लोगों का झुंड आपको आसानी से चिताओं की ठंडी हुई आग में से लकड़ियां चुनते दिख जाएंगे।
ऐसे लोगों की तलाश में एनडीटीवी निगमबोध घाट पहुंचा तो ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी। मुलाकात, जली हुई लकड़ी का गट्ठर लिए असम के सुरेश से हुई। सुरेश ने बताया 'चाय की दुकान में दिहाड़ी से पेट भरने में भी आफत है। ऐसे लकड़ी मुर्दे की हो तो क्या, मुफ्त में तो है। इस ठंड में जान बच जाए बहुत है। हाथ तापेंगे सर।'
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फिर, कुछ लड़कों पर नजर पड़ी। शरीर पर मैला और फटा-पुराना कपड़ा लपेटे बेझिझक घाट किनारे लकड़ियां समेटने में जुटे थे। बात शादी में काम करने वाले प्रदीप से हुई जो रैन बसेरे में रहता है। बोला जब हर बार ठंड बढ़ती है तो सहारा इन लकड़ियों का ही होता है। और यहीं चुनने चले आते हैं।
इस ठिठुरती ठंड के चलते पिछले तीन दिन में 10 लोगों ने दम तोड़ दिया है। प्रदीप का तो यह भी कहना है कि जो दिल्ली सरकार तीन साल पहले तक रैन बसेरे में अलाव का इंतजाम करती थी, अब वो भी ठंडी पड़ गई है।
जान बचानी है और सवाल जिंदगी का है तो ये लोग श्मशान की तरफ रुख करने से नहीं कतराते।
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