
भारतीय शास्त्रीय संगीत गायक पंडित जसराज (फाइल फोटो)
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पंडित जसराज की अनकही कहानी
सुशील पावड़ेकर ने बोला था ऐसा-वैसा
फिर खुद ही प्रोग्राम के लिए हाथ जोड़ा
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महाराष्ट्र में मन्माड के करीब यह जगह है, जहां नौकोटि नारायण नाम के एक सेठ थे. उनको ‘नौकोटि’ का शायद खिताब मिला होगा. सम्भवत: उनके पास नौ करोड़ रुपये रहे होंगे. तो सचमुच नौकोटि नारायण जैसा ही उनका व्यवहार था. सभी कलाकारों यथायोग्य पारिश्रमिक देना, किसी ने कहा कि मुझको 100 रूपये दीजिये तो 100, किसी ने 500 रुपये मांगे तो 100, किसी ने 500 रुपये मांगे तो उसको 500 रुपये दिये. किसी ने 5000 दीजिए, तो 5000 रुपये दे दिये.
उस ज़माने में 5000 रुपये बहुत ही बड़ी चीज़ थी. उनके यहां प्रोग्राम था गणेश-उत्सव. दस दिन का प्रोग्राम था. मैंने उनके प्रोग्राम में दो बार बड़े भाई साहब के साथ तबला बजाया.
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उस ज़माने में एक ही कान्फ्रेंस में एक-एक कलाकार के दो-दो कार्यक्रम होते थे. हर कान्फ्रेंस में उच्च कोटि के कलाकार होते थे. तो उस्ताद अब्दुल करीम खां साहब के, पंडित ओंकारनाथ ठाकुर के, उस्ताद फ़य्याज़ खां साहब के, सभी के दो-दो प्रोग्राम. सन् 1944 में एक और कान्फ्रेंस हुई थी जिसमें उस्ताद बड़े गुलाम अली खां साहब उभर के आये. उसमें बी.आर. देवधर जी, जो पंडित कुमार गन्धर्व के गुरु थे, उनके हाथ में कार्यक्रम के संचालन का भार था.
.@sunitabudhiraja, the noted author and music lover is coming out with the first authorised biographical work on Pandit Jasraj, the book is to be released in New York on the 14th of July and is to be launched soon in India.#PanditJasraj #Legend #Culture #IndianClassicalMusic pic.twitter.com/53kLhFjAIP
— Pandit Jasraj (@ptjasrajfans) July 12, 2018
उनकी कोशिश थी कि बड़े गुलाम अली खां साहब को ऐसा टाइम न दिया जाये जब वो मालकौंस का पूरिया गा सकें. बड़े गुलाम अली खां राग बहुत क़माल के गाते थे और देवधर जी ऐसा सोचते थे कि यदि इन्हें ऐसा टाइम दिया जब ये मालकौंस या पूरिया गा लेंगे तो यही उभर जायेंगे, तो मालकौंस वाला चक्कर तो उन्होंने काट दिया लेकिन पूरिया का कुछ नहीं कर सके. बड़े गुलाम.
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अली आते-आते पूरिया शुरू हो गये और बहुत जबरदस्त गाया. तो वहां से, सन् 1944 से यानी विक्रम संवत् 2000 में एक ही कान्फ्रेंस हुई थी, उसके लिए हम लोग भी आये थे. मगर बड़े भाई साहब की आवाज़ तब चली गयी थी. वो बात भी नहीं कर पा रहे थे. वहीं से क़रीब दस महीने तक नहीं गा पाये, लेकिन हम लोग सुनने के लिए अवश्य जाते थे. सारे कलाकार तो पहले से जाने-माने थे. बिस्मिल्लाह खां साहब तो पहले से उभर गये थे. फ़य्याज़ खां साहब टॉप सीट पर बैठे हुए थे. ओंकारनाथ जी इनके आस-पास बैठे हुए थे.
उनके संगी-साथी नहीं थे. सभी में कंपीटिशन तो चलता ही रहता था. उन दिनों उन्होंने 900 रुपये का एक प्रोग्राम लिया था. तो सब ज़िक्र करते थे कि अरे, 900 रुपये का प्रोग्राम. केसरबाई 500 रुपये लेती थीं. सब मानते थे कि बहुत पैसा लेती हैं, लेकिन बड़े गुलाम अली खां ने 900 रुपये लिया तो वो केसरबाई से आगे सरक़ गये. एक सांताक्रूज म्यूज़िक सर्कल था. वहां से फीस बढ़ गयी. फिर तो कलाकारों के पैसे बढऩे का सिलसिला शुरू ही हो गया.
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मुझे यह बात बहुत आश्चर्यजनक़ लगी कि कोई आयोजक़ अपना कार्यक्रम करा रहे हैं और यह देख रहे हैं कोई कलाकार किसी रागों में विशेष सिद्धहस्त हैं तो वो उनको उन रागों के लिए समय न दें. पंडित जी कहते हैं कि ऐसे बहुत सारे ऑर्गनाइज़र रहे हैं, पहले भी थे और आज भी हैं. खुद ही अपने प्रोग्राम में किसी-किसी कलाकार की गुड्डी नहीं चढ़ते देते थे. कई बार ख़ुद नहीं ऑर्गनाइज़ करते थे, कोई और करते थे.
'मैं सन् 1944 की बात करते-करते एकदम 1963 में आता हूं. एक मेरे चाहने वाले थे. उन्होंने कहा चलो जसराज, तुम्हें सुशील पावड़ेकर के पास ले चलते हैं. उन्होंने सुशील पावड़ेकर से मेरे बारे में कहा कि यह बहुत अच्छा गाता है. इसका प्रोग्राम कराओ. तो वे बोले कि नहीं, हमारे यहाँ केसरबाई गाती हैं, बड़े गुलाम अली गाते हैं, फ़य्याज़ खां साहब गाये थे. सन् 1950 में फ़य्याज़ खाँ साहब चले गये थे न! हम ऐसे-वैसों का प्रोग्राम नहीं करवाते. मेरे मुंह के सामने उन्होंने सन्, 63 में कहा कि हम ऐसे-वैसों का प्रोग्राम नहीं करवाते. वह स्वामी हरिदास संगीत सम्मेलन में बहुत बड़े पदाधिकारी थे. वही सुशील जी जिन्होंने हमारे मुंह पर कहा कि हम ऐसे-वैसों का प्रोग्राम नहीं करवाते, उन्होंने हमसे हाथ जोड़ के कहा कि हमारे लिए प्रोग्राम कर दीजिए, हमें फंड रेजिंग करना है.'
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