आम तौर पर शास्त्रीय संगीत सभाओं में इस परंपरा में रुचि रखने वाले या फिर वे रसिक, जो इसके अलौकिक आनंद में गोता लगाना जानते हैं, ही पहुंचते हैं. लेकिन पंडित जसराज की सभाओं में श्रोताओं का समूह इससे कुछ जुदा होता था. उनकी सभाओं में शुद्ध शास्त्रीय संगीतों के रसिकों के अलावा वे आम श्रोता भी होते थे जो भारतीय भक्ति परंपरा में विश्वास रखते थे. इसका कारण था मेवाती घराने की वह सुर धारा जिसका कहीं अधिक उन्नत स्वरूप पंडित जसराज के गायन में देखने को मिलता है. पंडित जी ने अपने गायन में उस वैष्णव भक्ति परंपरा को चुना जो भारतीय संस्कृति का मजबूत आधार रही है. दैवीय आख्यान मेवाती घराने की विशेषता रही है. यह वह परंपरा है जिसका विकास मंदिरों में गायन से हुआ है. यह 'टेंपल म्युजिक' है. यह संगीत का वही स्वरूप है जो निराकार को साकर करता है, जो निराकार को सुरों में संजोकर आकार देता है. जो मानव को चिरंतन में लीन होने की दिशा में ले जाता है. पंडित जसराज की बंदिशें देवों को समर्पित हैं. वे देव जो भारतीय संस्कृति का अमिट हिस्सा हैं. पंडित जी के सुरों के साथ शब्द ब्रह्म आम लोगों के मन की थाह तक पहुंचते रहे.
मुझे पंडित जसराज की दो सभाएं याद हैं. एक इंदौर में सन 2000 के आसपास हुई थी और दूसरी इससे करीब एक दशक बाद भोपाल में हुई थी. आम तौर पर शास्त्रीय संगीत सभाओं में श्रोताओं का टोटा रहता है. लेकिन इन दोनों सभाओं में मैंने श्रोताओं को बड़ी संख्या में खड़े रहकर पंडित जी को सुनते हुए देखा. पंडित जी गाते, वे सुरों में लीन होते और दूसरी तरफ उनके सामने जमे श्रोताओं में कुछ संगीत की अतल गहराइयों में सफर कर रहे होते तो बहुत सारे उनके साथ भक्ति की धारा में बह रहे होते. भोपाल के भारत भवन में तो पंडित जसराज घंटों गाते रहे और श्रोता सीटों पर जमे रहे. कोई जाने को तैयार नहीं था और रात आधी बीत चुकी थी. आखिरकार पंडित जी को श्रोताओं से कहना पड़ा कि 'आप कम से कम मेरी उम्र का ही खयाल करके मुझे विश्राम लेने दें.'
वास्तव में भारतीय शास्त्रीय संगीत का जन्म ही भक्ति परंपरा से हुआ है. इसमें लास्य गुण का विकास बाद में हुआ. संगीत को ईश्वर से भक्त के मिलन का माध्यम माना गया. यह अलग बात है कि आदि संगीत 'ध्रुपद' में शब्द गौण हो जाते हैं और सुर अपनी पूर्ण ओजस्विता के साथ उभरते हैं. लेकिन सुर ही हैं जो सिर्फ गायक को ही नहीं बल्कि श्रोताओं को लौकिक जगत से परे चिरंतन आनंद की अवस्था में ले जाते हैं.
पंडित जसराज ने अपने घराने की खयाल गायकी की उसी परंपरा को चुना जो स्वरों में ईश्वर को साकार करती आई थी. मठों, मंदिरों में सृजित इस संगीत की बंदिशों में देवी स्तुतियां हैं, शिव आराधना है, राम और कृष्ण भक्ति है. निरंजनी, नारायणी..., 'ओम नमो भगवते वासुदेवाय नम:... ' 'माता कालिका...' या फिर 'अच्युचतं केशवम्..,' जैसी न जाने कितनी रचनाएं हैं जिन्हें रसिक श्रोता हमेशा गुनते रहेंगे. इनमें से बहुत सारी बंदिशें उन्हें विरासत में अपने पिता मोतीराम और मां कृष्णा बाई से मिलीं. उन्होंने सूरदास, कृष्णदास जैसे कई भक्ति कवियों की रचनाओं को अपने सुर दिए. सुरों की विरासत उन्हें उनके बड़े भाई पंडित मनीराम से मिली. वही उनके गुरु थे. हरियाणा के हिसार क्षेत्र के पीली मंदौरी गांव में 28 जनवरी 1930 को जन्मे पंडित जसराज पहले तबला बजाते थे. हालांकि कुछ ही समय बाद उन्होंने गायकी अपना ली.
पंडित जसराज का 17 अगस्त को अमेरिका के न्यू जर्सी में निधन हो गया. भारतीय शास्त्रीय संगीत के इस महान मनीषी ने अपनी उम्र के 90 साल में से करीब 75 साल सुरों को समर्पित किए. उन्होंने मेवाती घराना की गायकी और भारतीय शास्त्रीय परंपरा को दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचाया. वे जितने निष्णात गायक थे उतने ही सरल थे. उनकी सरलता की तारीफ उनकी पीढ़ी के कलाकार ही नहीं बल्कि उनसे काफी कम उम्र के कलाकार भी करते थे. उनकी सहजता प्रेरित करती थी. सन 2016 में NDTV के 'बनेगा स्वच्छ इंडिया क्लीनेथॉन' में पंडित जसराज ने शिरकत की थी. इस कार्यक्रम के दौरान पंडित जसराज का स्वागत करते हुए अभिनेता अमिताभ बच्चन ने उनके चरण स्पर्श करने की कोशिश की तो उन्होंने उन्हें रोक दिया. पंडित जी ने गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के गीत 'एकला चलो रे...' गाने पर अमिताभ की जमकर तारीफ की. महान गायक की यही सरलता उन्हें कहीं अधिक सम्मानीय बनाती है.
पंडित जसराज भले ही अब नहीं हैं लेकिन उनके सुर, उनके राग हमेशा उनके चाहने वालों में उनके प्रति श्रद्धा का 'राग' बनाए रखेंगे. उनकी संगीत विरासत संभालने वालों में पंडित संजीव अभ्यंकर, कला रामनाथ, पंडित रतन मोहन शर्मा, विजय साठे जैसे सैकड़ों कलाकार हैं जो उनकी परंपरा को आगे ले जाएंगे. वे जब-जब गाएंगे, पंडित जसराज उनके सुरों में प्रतिबिंबित होंगे.
(सूर्यकांत पाठक Khabar.ndtv.com के डिप्टी एडिटर हैं)
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