- संसदीय कानून से गठित स्वायत्त आरबीआई को सरकारी विभाग क्यों बना दिया : चुनाव संचालन के लिए जैसे स्वतंत्र चुनाव आयोग है, वैसे ही संसद द्वारा पारित कानून से मुद्रा प्रबंधन हेतु आरबीआई की स्थापना हुई. आरबीआई के सेंट्रल बोर्ड में गवर्नर समेत 10 सदस्य हैं, जिनमे केंद्र सरकार के सचिव शक्तिकांत दास भी शामिल हैं. आरबीआई कानून की धारा 7 के तहत जनहित में केंद्र सरकार आरबीआई को आवश्यक निर्देश दे सकती है, लेकिन पिछले 83 साल में इस कानून का इस्तेमाल शायद ही किसी सरकार द्वारा किया गया हो...? नेहरू सरकार में वित्तमंत्री कृष्णामाचारी द्वारा आरबीआई को भारत सरकार का विभाग बताने के विरोधस्वरूप चौथे गवर्नर रामाराव ने 1957 में त्यागपत्र ही दे दिया था. वित्त मंत्रालय द्वारा पिछले दरवाज़े से नोडल अधिकारी की नियुक्ति से नोटबंदी पर सरकार को मनमाने फैसले की आज़ादी मिल गई, लेकिन आरबीआई तो अदना-सा सरकारी विभाग बनकर अपनी साख गंवा बैठा.
- नोटबंदी का फैसला रिज़र्व बैंक की बजाय सरकार द्वारा क्यों : नोटबंदी पर 8 नवंबर को प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद सरकार द्वारा बताया गया कि यह निर्णय आरबीआई की अनुशंसा पर लिया गया, लेकिन आरटीआई के खुलासों से ज़ाहिर है कि सरकार द्वारा एक ही दिन पहले 7 नवंबर को लिखे गए पत्र के आधार पर आरबीआई के बोर्ड ने नोटबंदी पर सिर्फ अपनी मुहर लगाई थी, जिसकी पुष्टि संसदीय समिति को आरबीआई द्वारा दिए गए जवाब से भी होती है.
- पुराने नोटों के 50 दिन चलने पर आरबीआई बोर्ड से सहमति क्यों नहीं ली गई : वित्त मंत्रालय द्वारा 8 नवंबर को जारी अधिसूचना से कागज़ी तौर पर यह ज़ाहिर होता है कि आरबीआई बोर्ड की अनुशंसा पर सरकार ने नोटबंदी का आदेश जारी किया. उसके बाद बंद किए गए 500 और 1,000 रुपये के पुराने नोटों को 50 दिन तक चलन में रखने के लिए वित्त मंत्रालय ने आरबीआई अधिनियम की धारा 26 (2) के तहत अनेक अधिसूचनाएं आरबीआई बोर्ड के अनुशंसा बगैर ही जारी करना क्या असंवैधानिक था, इसका निर्णय सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच द्वारा होगा.
- नए नोटों के प्रिंट तथा वितरण में अनावश्यक सरकारी दखलअंदाजी क्यों : नोटबंदी के बाद नए नोटों की आपूर्ति पर विफलता और उसके बाद नए नोटों की जल्द छपाई के लिए भारी दबाव से नोटों की प्रिंटिंग में गड़बड़ी की ख़बरों से आरबीआई की भारी ज़लालत का सामना करना पड़ा. आरबीआई के मजबूत तंत्र के बावजूद सेना तथा एयरफोर्स की मदद लेने से भी रिज़र्व बैंक की किरकिरी हुई. नए नोटों की प्रिटिंग तथा कागज़ों की सप्लाई में राजनीतिक बंदरबांट की ख़बरें भी आईं. अब नोटबंदी के फैसले के औचित्य पर नहीं, बल्कि उसे लागू करने के तरीके पर सवाल उठ रहे हैं, जिसमें आरबीआई फिसलता, लडखड़ाता और गिरता नज़र आया.
- 2,000 रुपये के नए नोटों को आरबीआई बोर्ड ने कब दी मंजूरी : उर्जित पटेल ने 4 सितंबर, 2016 को आरबीआई गवर्नर का पद संभाला और 8 नवंबर को उन्होंने नोटबंदी के फैसले पर मुहर लगा दी. पुराने गवर्नर रघुराम राजन ने नोटबंदी के सरकारी प्रयास का विरोध किया था और 2016 में नोटबंदी के पहले आरबीआई बोर्ड की चार बार मीटिंग (12 मार्च, 19 मई, 7 जुलाई और 11 अगस्त) हुई. इससे इस संदेह की पुष्टि होती है कि 2,000 रुपये के नए नोट छापने और 500 रुपये के नोट के डिज़ाइन में बदलाव का फैसला आरबीआई के सेंट्रल बोर्ड की बजाय गवर्नर या सरकार द्वारा लिया गया, जो कानूनन गलत है.
- आरबीआई गवर्नर की प्रॉक्सी भूमिका में अधिकारी और एसबीआई क्यों : नोटबंदी से संबंधित अधिकांश सूचनाओं, नीतिगत मामलों की घोषणा आर्थिक मामलों के सचिव शक्तिकांत दास और आंकड़ों पर स्टेट बैंक की चेयरमैन अरुंधति भट्टाचार्य के स्पष्टीकरण से आरबीआई की भूमिका कमजोर हुई. नोटबंदी की समयसीमा समाप्त होने के एक पखवाड़े बाद भी महत्वपूर्ण आंकड़े जारी करने में विफलता से लोगों में आरबीआई के प्रति संशय और निराशा पैदा होना स्वाभाविक है.
- मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) का गठन क्यों : हर सरकार की पूरी दिलचस्पी और राजनीतिक दबाव के बावजूद आरबीआई मौद्रिक नीति पर स्वतंत्र फैसले लेता रहा है, परंतु वर्तमान सरकार ने मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) के गठन को मंज़ूरी दे दी है. यद्यपि गवर्नर को इस समिति में वीटो पॉवर दिया गया है, फिर भी सरकार के इस कदम से आरबीआई की स्वायत्तता कमजोर हो सकती है.
- नित-बदलते कानून से आजिज़ जनता और महिला के चीरहरण पर चुप्पी क्यों : नोटबंदी के बाद सरकार द्वारा 74 बार से अधिक नियम बदले गए, पुरानी घोषणाओं को खारिज करते हुए नई घोषणाएं की गईं और 31 मार्च तक पुराने नोटों को आरबीआई से बदलने की प्रधानमंत्री के आश्वासन को भी हवा में उड़ा दिया गया, जिसका लोगों ने अनेक तरीके से विरोध किया. नए साल में बेंगलुरू में छेड़खानी की घटना बहुचर्चित रही, लेकिन 5,000 रुपए के पुराने नोट न बदले जाने पर एक महिला ने देश की राजधानी में सरेआम चीरहरण करके पूरे समाज को झकझोर दिया.
- डिजिटल इकोनॉमी के लिए नए रेगुलेटर की बात क्यों : नोटबंदी के बाद ई-पेमेंट तथा कैशलेस पर जोर देने से नई मुद्रा व्यवस्था आकार ले रही है, जिसके लिए पूर्व वित्त सचिव रतन वाटल ने नया रेगुलेटर बनाने की सिफारिश की है. पूर्व डिप्टी गवर्नर एचआर खान ने समिति के प्रस्तावों पर विरोध दर्ज कराते हुए सख्त नोट लिखा, जिसके बावजूद सरकार द्वारा यदि नया रेगुलेटर बनाया गया, तो देश में वित्तीय अराजकता पनप सकती है.
- सरकारी कुप्रबंधन से आरबीआई की अंतरराष्ट्रीय साख घटने पर चुप्पी क्यों : अर्थशास्त्रियों तथा कई पूर्व गवर्नरों ने आरबीआई की स्वायत्तता कमजोर करने के लिए सरकार की तीखी आलोचना की है. नोटबंदी के बाद भारत के भीतर मुद्रा प्रबंधन के संकट तथा विदेशी राजदूतों द्वारा विरोध से आरबीआई की छवि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी खराब हुई. नोटबंदी के फैसले को फोर्ब्स जैसे संगठन, न्यूयार्क टाइम्स जैसे अखबार और फिंच जैसी रेटिंग एजेंसियों द्वारा नकारात्मक करार देने से भारत के केंद्रीय बैंक और मुद्रा की विश्वसनीयता कमजोर हुई, जिसका अंतरराष्ट्रीय लोन और भावी विदेशी निवेश पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है.
- नोटबंदी पर सवालों से भागने वाले गवर्नर अब संसदीय समिति से कैसे निपटेंगे : वित्त मंत्रालय के अधिकारियों को सालाना बजट के नाम पर लोक लेखा समिति (पीएसी) के सामने पेश होने पर भले ही छूट मिल गई हो, लेकिन आरबीआई गवर्नर उर्जित पटेल को पीएसी के सामने 20 जनवरी को पेश होना पड़ सकता है. आरबीआई द्वारा नए नोट छापने के लिए 12,000 करोड़ के बजटीय आवंटन पर भी कानूनी सवाल खड़े हो रहे हैं. नोटबंदी के दौर पर गवर्नर सवालों से भागने में भले ही सफल हो गए हों, लेकिन तीन संसदीय समितियों के सामने उर्जित पटेल को सच बताना ही होगा, जिसके अक्स में भारत के केंद्रीय बैंक के भविष्य का फैसला होगा...!
विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं...
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