पिछले बीस सालों में यूनिवर्सिटी और कॉलेज सिस्टम को बर्बाद नहीं किया गया होता तो आज भारत के लोकतंत्र में व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी का इतना रोल नहीं होता. दंगा कराने से लेकर फेक न्यूज़ फैलाने वाली व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी से जुड़ नौजवान से लेकर नागरिक तक ख़ुद को शिक्षित समझने लगे हैं. इस यूनिवर्सिटी ने जितना जवाहर लाल नेहरू का इतिहास बदला है, उतना तो उनके नाम पर बनी जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी भी इतिहास नहीं बना सकी है. आवश्यकता है कि हम कॉलेज के कैंपस को नए सिरे से परिभाषित करें. इसे गोदाम कहना ठीक होगा जहां तीन चार साल के लिए नौजवानों को रोक कर रखा जाता है ताकि वे भूल से भी ज्ञान हासिल न कर सकें. कई शिक्षकों ने लिखा है कि छात्र भी नहीं आते हैं, यह बात भी सही है, बिहार से एक शिक्षिका ने लिखा है कि छात्र के न आने पर हौसला टूट जाता है मगर छात्र आने भी लगे तो उनके लिए न तो क्लास रूम है, न प्रोफेसर. छात्र भी वाइसी वर्सा की तर्ज़ पर यही कहते हैं कि जाते हैं तो पढ़ाने वाला नहीं मिलता.
छात्र और शिक्षक भले एक दूसरे से न मिल पाएं मगर कॉलेज की इमारत आपको हमेशा मिलेगी. भले ही वह जर्जर हो चुकी हो, उसके निशान अभी तक किसी ने नहीं मिटाए हैं. इससे ज्ञात होता है कि हम कॉलेज की निशानियों से प्यार करते हैं. अब देखिये भारत भर में घूम घूम कर प्रोफेसर, प्रिंसिपल का अटेंडेंस चेक कर रहे थे, मगर पता चला कि यूनिवर्सिटी को अनुदान देने के लिए बने आयोग में ही चोटी के प्रमुख एबसेंट हैं. 3 अक्टूबर 2017 की रिपोर्ट है इंडियन एक्सप्रेस के ऋतिका चोपड़ा की, इसके अनुसार यूजीसी में भी 3 अप्रैल के बाद से स्थायी चेयरमैन नहीं आया है. वेद प्रकाश गुप्ता के बाद वीएस चौहान कार्यकारी चेयरमैन बने हैं. नियमानुसार वाइस चेयर मैन को चेयरमैन का प्रभार लेना चाहिए मगर आयोग के सदस्य को अस्थायी चेयरमैन बना दिया गया क्योंकि वाइस चेयरमैन का कार्यकाल एक महीना पहले ख़त्म हो चुका था.
6 महीने से यूजीसी के चेयरमैन की नियुक्ति नहीं हुई है. मार्च महीने से वाइस चेयरमैन का पद भी ख़ाली है. 2 अक्टूबर को टेलिग्राफ ने रिपोर्ट छापी है कि अगस्त महीने से सचिव का पद भी ख़ाली है. आप चाहें तो वो गाना सुन सकते हैं, ख़ाली हाथ शाम आई है, ख़ाली हाथ जाएगी. सुनते सुनते बनारस चलते हैं. संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय. इस कॉलेज की स्थापना 1791 में की गई थी, इसके शुरू के चारों प्रिंसिपल अंग्रेज़ ही थे. 1958 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री संपूर्णानंद ने यूनिवर्सिटी का रूप दे दिया.
इस कॉलेज की इमारत देखिएगा, ऐसा लगेगा आप बनारस और क्योटो नहीं, लंदन आ गए हैं. बहुत कम कॉलेज होंगे जिनकी इमारत इसके जैसे होगी. गॉथिक शैली में बनी इस कॉलेज की इमारत में कोई बड़ा नेता नहीं जाएगा क्योंकि जाने से पहले बहुत काम करना होगा. यह इमारत आज तक अपने दम पर टिकी हुई है, जैसे संस्कृत अपने दम पर आज तक टिकी हुई है. आधुनिक संस्कृत शिक्षा का इतिहास इस कॉलेज के इतिहास से शुरू होता है. 1791 में लॉर्ड कार्नवालिस ने इसकी मंज़ूरी दी थी और प्रस्ताव था ईस्ट इंडिया कंपनी के जोनाथन डंकन का. पंडित काशीनाथ इसके पहले शिक्षक हुए थे. डॉक्टर वैलेंटाइन ने यहां आंग्ल संस्कृत विभाग की स्थापना की थी. व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी के मंत्री, नेता और उनके समर्थकों के लिए बता दूं कि ये वो वैलेंटाइन नहीं हैं जिनका वे हर 14 फरवरी को विरोध करते हैं. डॉ. आर टी एस ग्रीफिथ इसके पहले प्रिंसिपल बने. ग्रीफिथ ने ही बाल्मीकि रामायण का अनुवाद अंग्रेज़ी में किया था. डॉक्टर गंगा नाथ झा के समय में भी यहां काफी काम हुआ था.
यह इमारत इतना तो बताती है कि संस्कृत शिक्षा की शुरुआत भी बेहतरीन तरीके से हुए अब आगे जो कहानी यह इमारत आपको सुनाने जा रही है उसे सुनकर आपको खुशी होगी कि संस्कृत के मामले में भी आपके नेताओ ने आपको निराश नहीं किया है. संस्कृत अगर भारतीय मानस में राजनीतिक भावुकता पैदा न करती तो उसके नाम पर रोना भी नहीं रोते, मगर यह जानते हुए वे शपथ ग्रहण समारोह के समय ज़रूर जताते हैं कि शपथ संस्कृत में ली है. हमारे सहयोगी अजय सिंह जब संपूर्णानंद संस्कृत महाविद्यालय गए तो वहां विश्व विद्यालय के सभी महत्पवूर्ण अंगों के संगठन धरने पर बैठे थे. अजय सिंह का सामना एक परिसर में, एक ही दिन में चार धरने से हुआ. यह वाकई गौरव की बात है कि चार धरने में से एक धरना इस बात को लेकर था जिस बात को लेकर प्राइम टाइम की यह सीरीज़ कई दिनों से चल रही है.
अध्यापकों की कमी व कक्षाएं न चलने से छात्रों का बेमियादी धरना. लाल रंग के बैनर पर इस नारे ने मेरा दिल जीत लिया. पहली बार कहीं तो छात्र अध्यापकों की कमी और कक्षाएं न चलने के ख़िलाफ़ बेमियादी धरने पर बैठे मिले. धरना जब बेमियादी हो जाए तो उसे सीरीयसली लेना ही चाहिए. छात्रों के हाथ में जो बैनर हैं उनके नारे बताते हैं कि छात्र भारत की व्यापक समस्याओं से भी जूझ रहे हैं जो उनके विश्वविद्यालय में चली आई है. दलालों से मुक्ति भारत की सनातन समस्या है, जिससे लड़ने वाले अभी तक इस धरती से मुक्त नहीं हुए हैं. ये छात्र वंशवाद और क्षेत्रवाद जैसी महामारी की समाप्ति की भी मांग कर रहे हैं. रिक्त पदों पर नियुक्ति के अलावा अराजकता फैलाने की जांच की भी मांग इनके बैनर उठा रहे हैं. छात्र शक्ति और राष्ट्र शक्ति बैनर के कोने में लिखा है. धर्म की जय हो और अधर्म का विनाश हो. छात्रों में सदभावना हो और विश्वविद्यालय का कल्याण हो.
कल्याण की कामना संस्कृत शिक्षा का अभिन्न अंग है. छात्रों ने अपनी लोकतांत्रिक शक्ति का इस्तमाल किया है, इसके लिए उन्हें बधाई. छात्रों की समस्याएं इतनी हैं कि उन्हें उठाने के लिए अलग अलग गुटों की भी आवश्यकता है. जिसे पूरी करने के लिए एक अलग गुट इस टूटी हुई सड़क के निर्माण की मांग कर रहा है. यह सड़क छात्रावास से यूनिवर्सिटी के केंद्रीय कार्यालय तक जाती है. सड़क की हालत देखकर दुखी होने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि अभी आपको हास्टल की हालत का भी सदमा बर्दाश्त करना है.
एक बैनर मांग कर रहा है कि सड़क निर्माण अविलंब हो. विलंब झेलते झेलते हमारे छात्र अविलंब के सहारे अपने धीरज का दिलासा दे रहे हैं. छात्रावासों की सुन्दरीकरण व मरम्मत तत्काल प्रभाव से किया जाए. भारत में प्रभाव तीन प्रकार के होते हैं. प्रभाव, दुष्प्रभाव और तत्काल प्रभाव. ये छात्र छात्र संघ का चुनाव भी कराने की मांग कर रहे हैं.
दो और धरने चल रहे हैं. धरना प्रदर्शन में अगर आप नहीं गए, या नहीं बैठे तो यकीन जानिए आपने लोकतांत्रिक जीवन तो जीया ही नहीं. यहां कर्मचारी यूनियन और प्रोफसर भी धरने पर बैठे हैं. भारत की सरकार को हर साल डेमोक्रेसी रिपोर्ट जारी करनी चाहिए जिसमें बताया जाए कि किस प्रदर्शन के बाद कार्रवाई हुई, किस प्रदर्शन का नतीजा नहीं निकला और किस प्रदर्शन का कभी नतीजा ही नहीं निकलेगा.
कर्मचारी यूनियन और शिक्षकों का भी धरना चलते देख अजय सिंह को लगा कि भले ही सिस्टम ने इस यूनिवर्सिटी को बीमार कर दिया हो मगर लोकतंत्र के एंटीबायोटिक का असर अब भी यहां के शिक्षकों में बाकी है. यहां पर छात्रों की तरह जोश कम है, बुजुर्ग हो चुके हैं और कइयों के पास काला बैग आ चुका है. काला बैग जब कंधे पर लटक जाए तब समझिए सरकारी नौकरी का जीवन सफल हो गया है. उम्र हो गई है इसलिए बरगद के नीचे आ गए. सितंबर महीने का वेतन नहीं मिला है. 2010 से विद्यालय का ग्रांट नहीं आया है. जिसके कारण कोई काम नहीं हो पा रहा है. यहां पर हर हर महादेव का नारा भी लगता है. लोकतांत्रिक संघर्षों को भी ऊर्जा हर हर महादेव से मिलती है, मगर ऐसा नहीं है कि कर्मचारी एकता ज़िंदाबाद के नारों का वजूद मिट गया है.
संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय का योगदान इतना ही है कि उसी का लिहाज़ कर सरकारों ने जीवनदान दिया हुआ है, वर्ना तो लगता है कि इसे बंद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई होगी. यूनिवर्सिटी के भीतर का प्राथमिक अस्पताल बंद है, जिसे चालू कराने के लिए आंदोलन चल रहे हैं. अब हम चलेंगे छात्रावास की तरफ. हम चाहते हैं कि थोड़ी दूर चुप रहे और आप शांति से तस्वीरों के ज़रिए बिना आंसू बहाए रोते रहे. रोना भी कई प्रकार का होता है. बिना आंसू के रोना ही इस वक्त उचित रहेगा. तस्वीरों में आपको शौचालय दिखेगा मगर स्वच्छ भारत नहीं दिखेगा. इससे घबारने की ज़रूरत नहीं है कि क्योंकि छात्रों ने पान की पीक के लिए एक कोना खोज लिया है. कॉमन रूम की हालत वही है जो आपकी हमारी है. कॉमन रूम की ढहती छत की परवाह किए बग़ैर छात्र न्यूज़ चैनल देख रहे हैं, इसे देख कर आपको अच्छा लगेगा. कि हम कुछ कर भले न पाए. प्रोपेगैंडा देख रहे हैं.
ये सब देखने सुनने के बाद क्या आप अब यह भी जानना चाहेंगे कि संपूर्णानंद संस्कृत महाविद्यालय में कितने शिक्षक हैं, कितने नहीं हैं. यहां 24 विभाग हैं, 5 संकाय हैं. विषयों और विभागों के नाम हैं व्याकरण, ज्योतिष, साहित्य,पुराण, मीमांसा, वेदान्त, तुलनात्मक धर्म दर्शन, बौद्ध दर्शन, जैन दर्शन और पाली। इन सब की उचित पढ़ाई के लिए. 118 अध्यापक होने चाहिए, मगर 46 ही हैं, 72 नहीं हैं. बहाली का विज्ञापन निकला है, मगर चयन प्रक्रिया पर विवाद है.
संपूर्णनान्द संस्कृत महाविद्यालय से संबंधित या मान्यताप्राप्त भारत का कौन सा ऐसा इलाका होगा जहां कोई विद्यालय या कॉलेज नहीं होगा. 550 विद्यालय इससे संबद्ध हैं. मान्यता देने के नियम साधारण हैं. डेढ़ एकड़ ज़मीन हो, पांच सात कमरे हो लाइब्रेरी हो, खेल का मैदान हो तो आप संस्कृत संस्थान खोल सकते हैं. यह सब तो बनारस के संपूर्णानंद संस्कृत महाविद्लाय में 1791 से है, मगर उसकी हालत आपने अभी देखी. हमारी यह पूरी सीरीज़ एनडीटीवी की वेबसाइट और फेसबुक पेज पर है. आप देखिए और दिखाइये कि भारत के नौजवानों को बर्बाद करने का राष्ट्रीय प्रोजेक्ट किस तरह से चल रहा है. यहां भी नियुक्तियों में धांधली के आरोप लग रहे हैं. संस्कृत शिक्षा का एक और केंद्र रहा था, होगा ही और होगा भी...बिहार का दरभंगा.
इस इमारत की ख़ूबसूरती पर ही अलग से प्राइम टाइम कर सकता था मगर यह इसके भीतर चलने वाली संस्कृत शिक्षा के साथ नाइंसाफी हो जाएगी और संस्कृत के लिए इतनी खूबसूरत इमारत दान में दे देने वाले दरभंगा के महाराज कामेश्वर सिंह के सपनों की बेक़दरी हो जाएगी. इसलिए इमारत की मूर्तियां झाड़फानूस पर मोहित मत हो जाइयेगा, अपने कलेजे को बचाकर रखिए, बदहाल संस्कृत के हाल पर चीरने के काम आएगा. दरभंगा के महाराज कामेश्वर सिंह ने प्राच्य विद्या के विकास के लिए अपना लक्ष्मीश्वर विलास पैलेस सहित 37 बीघा ज़मीन दान में दे दी. इसी इमारत में महाराज का दरबार लगा करता था, उनका जन्म भी यहीं हुआ था. 1961 में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह और तत्कालिन राज्यपाल ज़ाक़िर हुसैन के विशेष प्रयास भी इसकी स्थापना में थे. अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े की तरह भारत के विश्वविद्यालयों की ग्रेडिंग करने निकले NAAC के कारण ही इमारत को रंग दिया गया है. तब जाकर बी ग्रेड प्राप्त हुआ है, यहां 70 फीसदी से अधिक शिक्षकों के पद ख़ाली हैं. 62 कॉलेज और 14 इंटरमिडिएट कॉलेज इसके तहत चलते हैं. यहां पाली और प्राकृत की पढ़ाई होनी थी, मगर बंद हो चुकी है. यहां जो पांडुलीपियां रखी हैं वो दुर्लभ भी हैं और शानदार भी हैं. 6000 पांडुलीपियां हैं. डिजिटाइज़ेशन नहीं हुआ है. वाइस चांसलर की अनुमति से देख सकते हैं. लाखों किताबें हैं यहां.
विश्व विद्यालय अनियमितताओं का भंडार है, इसी पर अखिल भारतीय निबंध प्रतियोगिता होनी चाहिए जिसमें मौजूदा सरकार के किसी प्रिय नेता की जीवनी इनाम के तौर पर दी जानी चाहिए. आपको लगता है कि शिक्षा मंत्री लोग काम करते होंगे. हाल फिलहाल में शिक्षा मंत्रियों के बयान को गूगल कीजिए. आपको शिक्षा पर कम, नेतागिरी पर ज़्यादा मिलेगा. संस्कृत को बचाने के नाम पर मिटाया जा रहा है. प्रमोद गुप्ता जब कामेश्वर विश्वविद्यालय से मात्र एक किलोमीटर दूर एक और कॉलेज गए तो जो देखा वो आप देख लीजिए. सौ तीर्थ से ज़्यादा पुण्य कमाएंगे. भोले बाबा की तरह आप भी विष का प्याला पी लीजिए. ज़हर सिर्फ नेता ही नहीं पीते हैं, आप भी पी रहे हैं. बहरहाल...
आप अब दरभंगा के मोहल्ला हराही पोखर पश्चिम संकट मोचन धाम आ गए हैं. सड़क किनारे चल रहा छह कमरों के इस कॉलेज का नाम विद्यानंद मिथिला संस्कृत महाविद्यालय. विद्यानंद जी ने इस कॉलेज के लिए ज़मीन दान दी थी बाद में उनके परिवार के लोगों ने भी इसके कुछ हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया. मेरे हिसाब से अच्छा किया. बाहर से कॉलेज की इमारत बता रही है कि संस्कृत के नाम पर लोकसभा में शपथ लेने से संस्कृत का भला नहीं हो जाता है. जब प्रमोद जी पहुंचे तो पत्रकार को आया देख इस छात्रा को कहीं से बुला लाया गया और क्लास चालू कराया गया. अच्छी बात है कि इस कॉलेज में प्रिंसिपल और शिक्षक मिलाकर दस लोग हैं. प्रमोद जी ने छात्र उपस्थिति पंजिका का एक पन्ना पलटा तो कोई छात्र किसी भी दिन एबसेंट ही नहीं दिखा. भारत में अटेंडेंस की अपनी महिमा है. आप हो न हों अटेंडेंस लग जाए तो कोई साबित नहीं कर सकता है कि आप इस दुनिया में ही नहीं थे.
1907 में यह कॉलेज बना था, इमारत तो इसकी ठीक लगती है. पहले इसका नाम महारानी अधिरानी संस्कृत महाविद्यालय था मगर अब इसे रामेश्वर लता संस्कृत महाविद्याय कर दिया गया है. यहां पर शिभक के नाम पर 7 टीचर हैं जबकि 10 होने चाहिए. व्याकरण साहित्य, वेद, ज्योतिष, में कोई प्राध्यापक नहीं है. कर्मकांड के भी एक शिक्षक अगले महीने रिटायर होने वाले हैं. 250 के करीब यहां छात्र पढ़ते हैं. 1983 के बाद से इस महाविद्यालय को कंटिजेंसी राशि नहीं मिल रही है जिसके कारण विकास रुक गया है. कर्मचारियों की संख्या भी दो तक सिमट गई है.
मध्य प्रदेश से एक महत्वपूर्ण सूचना है. राज्य के सरकारी संगीत एवं ललित कला महाविद्यालयों के लिए अतिथि विद्वानों की नियुक्ति का विज्ञापन आया है. अतिथि विद्वान उस विद्वान को कहते हैं, जो विद्वान तो होता है मगर बुलाया अतिथि के रूप में जाता है ताकि मानदेय देने के बाद भगाया जा सके. परमानेंट न हो जाए. कांट्रेक्ट, गेस्ट, एडहॉक कहने में बुरा लग रहा होगा, भारतीय संस्कृति के प्रतिकूल लग रहा होगा इसलिए मध्य प्रदेश के परमानेंट विद्वानों ने अतिथि विद्वान की संज्ञा निकाली जिनकी विशेषता एडहॉक वाली ही होती है.
इस विज्ञापन से पता चलता है कि मध्य प्रदेश में संस्कृति के संचालन हेतु संस्कृति संचालनालय भी है. 2017-18 के सत्र का चार महीना बीत जाने के बाद बाकी बचे सत्र के लिए विज्ञापन निकाला है ताकि इनके चयन की प्रक्रिया शुरू हो. हमारे मुल्क प्रक्रिया या तो शुरू नहीं होती है, और जब शुरू होती है तो ख़त्म नहीं होती है. आप बताइये जुलाई से सत्र शुरू होता है और नवंबर तक मास्टर आएंगे तो ख़ाक पढ़ाई होगी. आवेदन की अंतिम तिथि 24 अक्टूबर है. इन पुण्य कार्य के लिए 400 रुपये प्रति दिन दिए जाएंगे.
उच्च शिक्षा का उच्चतम मज़ाक आपको कैसा लग रहा है? 14 अक्टूबर को पटना यूनिवर्सिटी का शताब्दी वर्ष मनाया जाएगा. जिसके लिए प्रधानमंत्री पटना जा रहे हैं. हमने प्राइम टाइम की सीरीज़ में बताया था कि पटना यूनिवर्सटी का हाल कितना बुरा हो गया है. मनाने के लिए कुछ है नहीं लेकिन राजनीति है. हम सब अपने छात्र जीवन में यही जानते थे कि शत्रुध्न सिन्हा ने तब की बंबई जाकर कमाल कर दिया है. पटना कॉलेज का नाम कर दिया है. उस यूनिवर्सिटी का छात्र शहर का सांसद हो तो उसे शताब्दी वर्ष में बुलाना चाहिए कि नहीं चाहिए.
जय शाह अमित शाह के बेटे हैं और इनकी कंपनी के बारे में द वायर नाम की न्यूज़ वेबसाइट ने हिन्दी और अंग्रेज़ी में रिपोर्ट प्रकाशित की है. शॉट गन उनके मामले की जांच की मांग कर बीजेपी में अपना लांग रन दांव पर लगा रहे हैं. शत्रुध्न सिन्हा ने नीतीश कुमार की तारीफ करने में कभी नहीं कंजूसी की, इसलिए नीतीश कुमार को कम से कम यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र को तो बुलाना ही चाहिए था. राजनीति में दुआ सलाम की जगह बची रहे, बाकी हासिल के नाम पर वही मिलना है जो आप उच्च शिक्षा का हाल देख रहे हैं. संस्कृत शिक्षा पर हमारी सीरीज़ अभी पूरी नहीं हुई है. इतने सारे खंडहर हैं कि क्या क्या दिखाएं क्या क्या छिपाएं. आप बोर तो नहीं हो रहे हैं, सोचिए उन छात्रों का जो चार चार साल बग़ैर शिक्षकों के कॉलेज गए और बोर नहीं हुए. क्या आपको लगता है कि आप उच्च शिक्षा को लेकर सजग होने जा रहे हैं, साधारण आमदनी वालों के लिए एक बात बताना चाहता हूं. ये क्यों हो रहा है, ये इसलिए हो रहा है ताकि आपके बच्चों को कभी अच्छी शिक्षा न मिले. आप इसकी मांग करेंगे तो नेता आपको मूर्ति की लागत और कब्रिस्तान की चौहद्दी के मसले में भटका देंगे.
This Article is From Oct 12, 2017
प्राइम टाइम इंट्रो : बनारस, दरभंगा के संस्कृत महाविद्यालय का बुरा हाल
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:अक्टूबर 12, 2017 22:01 pm IST
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Published On अक्टूबर 12, 2017 21:29 pm IST
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Last Updated On अक्टूबर 12, 2017 22:01 pm IST
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