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This Article is From Nov 16, 2016

खोड़ा की औरतों का हाल नोटबंदी का हवन कर रहे पंडों को समझ नहीं आएगा

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    November 16, 2016 20:22 IST
    • Published On November 16, 2016 20:22 IST
    • Last Updated On November 16, 2016 20:22 IST
आठ नवंबर की रात आठ बजे टीवी पर जब प्रधानमंत्री बोल रहे थे कि मध्यरात्रि से 500 और 1000 के नोट रद्दी हो गए, उस वक्त फैसले के स्वागत में किसी को ध्यान भी नहीं रहा होगा कि इसे सुनते वक्त किसका दिल कैसे धड़केगा. स्वागतकर्ताओं ने सिर्फ उन काले धन वालों के चेहरों की कल्पना की जिनकी उदासी अभी तक नज़र नहीं आई है. प्रधानमंत्री कोई भी तारीख़ चुन सकते थे मगर आठ नवंबर की तारीख़ से अनजाने में एक चूक हो गई. देश के कई महानगरों में हर महीने की सात तारीख़ को ही वेतन बंटता है. चाहे वो कारखाना हो या दुकान. पहली की तनख्वाह उन्हें आती है, जो संगठित क्षेत्र में नौकरी करते हैं. असंगठित क्षेत्र के करोड़ों लोगों को महीने के सात तारीख़ को ही तनख़्वाह मिलती है. चेक से बहुत कम को तनख्वाह मिलती है. ज़्यादातर नगद में ही पगार लेकर लौटे थे. जैसे ही पता चला कि उनकी महीने की कमाई कीचड़ में बदल गई है, उनके होश उड़ गए.

अगले दिन महानगरों में यही वो लोग थे जो एटीएम की तरफ बदहवास भागे थे. वेतन के पैसे मुट्ठी में भींच कर किसी तरह बचाने की कोशिश में आधी रात से ही लाइनों में लगने लगे. किसी को ख़्याल ही नहीं रहा कि सात नवंबर को करोड़ों मज़दूरों के घर में वेतन का पैसा आया है, जिसे अगले दो हफ्ते में किराने से लेकर स्कूल की फीस तक में ख़र्च हो जाना था. उनके इस पैसा का एक हिस्सा गांव घरों में मौजूद परिवार और मां बाप को भी जाता है. सब कुछ ठप्प हो गया. वे अपने पैसे को बचाने के लिए क्या नहीं करते. आप नोएडा, ग्रेटर नोएडा और गुड़गांव की मज़दूर बस्तियों के पास के बैंकों में जाइये. हकीकत का पता चलेगा. सरकार बार-बार कहती रही कि लोग जल्दी न करें, 30 दिसंबर तक का वक्त है. शायद उसे भी ख़्याल नहीं रहा होगा कि करोड़ों मज़दूर लंबा इंतज़ार नहीं कर सकते थे. मकान मालिक ने तंग करना शुरू कर दिया. दुकानदार ने सामान देने से मना कर दिया. उन्हें कैसे कोई सब्र का पाठ पढ़ा सकता है.

खोड़ा, मज़दूरों और कामवालियों की एक विशाल दुनिया है, जो दिल्ली, गाज़ियाबाद और नोएडा के बीच बसती है. इसकी आबादी कोई आठ लाख बताता है तो कोई दस से बारह लाख. ये वो जगह है जहां इसी देश के नागरिक रहते हैं, मगर लगता नहीं कि संस्थाएं उन्हें अपना नागरिक समझती हैं. कभी खोड़ा आइयेगा. भारत में एक लाख की आबादी पर 13 बैंक हैं. खोड़ा की आठ से दस लाख की आबादी पर सिर्फ एक बैंक है, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया. इसकी सीमा से लगे एक दो बैंक और हैं मगर खोड़ा के हिस्से में एक ही बैंक है. एटीएम ज़रूर तीस से पैंतीस के करीब है. अंदाज़ा कीजिए, खोड़ा के स्टेट बैंक के बाहर क्या स्थिति होगी.

मैंने पहले ही एलान कर दिया कि 'प्राइम टाइम' के लिए बातचीत सिर्फ औरतों से करूंगा, इसलिए पुरुष न आयें. अक्सर हम टीवी वाले जब भी सड़कों पर जाते हैं, माइक निकालते हैं, मर्द आगे आ जाते हैं. वे हमें घेर लेते हैं. औरतों को मुश्किल से जगह मिलती है. उन्हें अपनी बात कहने का मौका ही नहीं मिलता. खोड़ा के पुरुषों ने मेरा प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और मैं औरतों से बात करने लगा. यकीन से कह सकता हूं कि आप भी उनकी बातें सुनते तो फफक कर रो पड़ते. किसी का सत्रह दिन पहले ऑपरेशन हुआ है, वो बिस्तर छोड़कर चार दिनों से रात दो बजे से लेकर शाम चार बजे तक लाइन में लगती है. पैसा नहीं बदलता है, मायूस होकर चली जाती है. एक बूढ़ी औरत ने कहा कि मेरा बूढ़ा पति बीमार है, बिस्तर पर ही पखाना-पेशाब कर देता है. उसके पास कोई नहीं है. मैं यहां तीन दिन से बारह-बारह घंटे लाइन में लगी हुई हैं. एक महिला को कैंसर है, खड़ी नहीं हो सकती मगर वो अपना टोकन लेकर खड़ी है. तीन दिन से लौट रही है.

चैनलों पर जो आवाज़ सुनाई दे रही है, उसमें स्वागतगान है. ज़रूर लोग खुश हैं, लेकिन क्या इन औरतों की कहानी झूठी है. वो क्यों रोने लगती हैं. वो क्यों असहाय सी हैं. क्या आप बिना ब्रश किये रात के दो बजे से लेकर दोपहर चार बजे तक लाइन में लग सकते हैं. कुछ लोगों ने एक दिन चाय बिस्कुट और खिचड़ी का इंतज़ाम कर दिया, लेकिन आज तो वो भी नहीं था. सब्र की इंतेहा है कि कोई बारह घंटे खाली पेट लाइन में लगे और बदन का एक हिस्सा ऑपरेशन के दर्द से सिहरता रहे. किसी को चक्कर आ रहा है तो किसी को गैस हो जा रहा है. इन औरतों के लिए समाज तो आज नहीं बदल गया. उनके पीछे बच्चे भूखे हैं, घर में खाना नहीं पका है. जब वे कहती हैं कि कुछ नहीं है पकाने के लिए तो यकीन नहीं होता. मुझे क्यों होगा, आपको क्यों होगा. हमने कब अपनी रसोई को खाली देखा है? किसी का दामाद बीमार है. किसी की एक साल की बच्ची बीमार है. किसी की पांच साल की बच्ची बीमार है. सबकी मां कतार में है.

दस घंटे हो गए हैं. सबके हाथ में टोकन है. किसी पर 50 लिखा है, किसी पर 61 तो किसी पर 91. लोग कहते हैं कि बैंक ग्यारह बजे खुला. बैंक वाले कहते हैं कि दस बजे से काम कर रहे हैं. बात करते-करते औरतें रोने लगती हैं. ये वो औरतें हैं जो घरों में काम करती हैं. नोएडा, इंदिरापुरम और मयूर विहार के घरों में काम करती हैं. किसी की बेटी की शादी है. पूरा परिवार लाइन में है. मधुबनी जाना है. हफ्ते भर से परिवार बैंक के अंदर नहीं पहुंच पा रहा है. अब सिर्फ दो हफ्ते बचे हैं. अगर अंदर पहुंचने में सफल रहे तो ही 48000 निकल पाएगा. वर्ना ख़ाली हाथ बिहार जाकर क्या करेंगे. तैयारी कैसे होगी. उनकी हालत देखी नहीं गई. बेसुध बदहवास इंतज़ार कर रही हैं कि काश कोई बैंक के भीतर पहुंचा देता. काश बैंक रात-रात तक खुला रहता है और इनका काम हो जाता. हमारी संवेदनाएं मर गई हैं. दरअसल आज नहीं मरी हैं. हिन्दुस्तान के समाज में औरतों के प्रति कोई संवेदना होती ही नहीं है. वो सिर्फ कैलेंडर और त्योहारों में देवी नज़र आती है, बाकी समय किसी को उसके होने से फर्क नहीं पड़ता. उन्हें अपनी हालत नहीं देखी जा रही है, मगर वो अपने बच्चों का सोच कर रोए जा रही हैं.

लोगों की चुप्पी का मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिए. कई लोगों ने कहा कि मीडिया से नहीं बोल पा रहे हैं. मीडिया यही पूछता है कि आप इस फैसले के साथ हैं. एक महिला ने कहा कि बताओ हमारी तकलीफ के साथ कौन है. हम क्या करें. हमारा क्या कसूर था. क्या हमारे पास काला धन है. चार दिन से काम पर नहीं गई हूं, मेमसाहब पैसे काट लेगी. जो कमाकर लाए थे उसे बचाने में लगे हैं. जब कमाना था उसे गंवा रहे हैं. इन औरतों को जो नुकसान हुआ है, उसे जोड़िये तो पता चलेगा कि कथित रूप से राष्ट्र के इस महायज्ञ में इन ग़रीब औरतों का क्या योगदान है. उनका योगदान सबसे बड़ा है.

आम दिनों में यहां दो हज़ार लोग कतार में लग रहे थे. आज जब दोपहर दो बजे गया तो पता चला कि सोमवार की तुलना में लोग कम हैं. फिर भी जो रात के दो बजे ही लाइन में लगा था उसका नंबर दोपहर के दो बजे तक नहीं आया था. 42 वें नंबर के टोकन वाले ने बताया कि वो ढाई बजे आया था, मगर तीन बजे तक कोई नंबर नहीं आया है. नंबर नहीं आया है का मतलब यह हुआ कि वो अपने पुराने नोट को बदलवाने के लिए कतार में खड़े ही रह गए. 11 से 4 बजे के बीच अगर एक ब्रांच से सिर्फ अस्सी या सौ लोगों को ही पैसे मिलेंगे तो क्या हालत होगी. तीन से चार बजे के बीच लोगों के चेहरे पर बेसब्री और मायूसी दोनों पसरने लगी. दिल धड़कने लगता है कि चार बजने में कुछ ही पल बाकी हैं. अब बैंक बंद हो जाएगा. कल फिर आना होगा. बैंक वाले भीतर कहते रहे कि कई दिन से शाम 6 बजे तक काम करते रहे हैं, लेकिन अब चार बजे के बाद बंद. लोगों ने कहा कि यह बैंक तो हर दिन चार बजे बंद हो जाता है.

इस बार भी वही अनुभव हुआ. कतार में एक दो ऐसे हैं जो मीडिया को देखते ही कहने लगते हैं कि मोदी ने जो किया बहुत सही किया. उनके कहते ही सब चुप हो जाते हैं, लेकिन इस बार औरतें नहीं रुकीं. कहती रहीं. बल्कि रोती रहीं. लाचार खड़ी इन औरतों के आंखों में आंसू ज़्यादा थे और टीवी पर बोले जाने लायक डायलॉग कम. गिड़गिड़ाने लगीं कि आप किसी से कहकर इस बैंक का हाल ठीक करवा दो. बैंक के कर्मचारी काम कर रहे हैं मगर वो इतनी बड़ी आबादी का बोझ कैसे उठा सकते हैं. लोगों के पास ये सवाल नहीं है कि दस लाख की आबादी पर एक बैंक क्यों है. सबने एक सवाल रट लिया है, मोदी जी ने ठीक किया है. बस बैंक वालों ने इंतज़ाम नहीं किया. एक नौजवान ने कहा कि हम डर गए हैं. हमारी स्थिति कुछ और है. मीडिया में दिखता कुछ और है. मैंने कहा भी कि इस बार तो चैनलों ने आपकी समस्याओं को खूब दिखाया है. एक लड़के ने कह दिया कि आपने लाइनें दिखाईं हैं, हमारी तकलीफ नहीं बताई है.

यह सब बात हो ही रही कि बाइक पर दो नौजवान आए. बुलंद आवाज़ में बोलने लगे कि आप ये क्यों दिखा रहे हैं. आपके चैनल पर ही ये लाइनें क्यों दिखाई जाती हैं. कल आप 'प्राइम टाइम' में चांदनी चौक के कुछ लालाओं से क्या बात कर रहे थे. जहां पांच सौ आदमी और औरत रोने की स्थिति में हैं, वहां दो नौजवान बोल कर निकल जाते हैं कि ये मत दिखाओ, आप निगेटिव दिखाते हो. यह सब चलता रहेगा. लोगों को अपनी आवाज़ ख़ुद ढूंढनी पड़ेगी. डराने वाले, धमकाने वाले और भीड़ में पहचानने वाले इन सब में माहिर हैं लेकिन उस जनता की सोचिये, जो सिसक रही है. उन औरतों की सुनिये जो बहुत कुछ कहना चाहती हैं.

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