दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल बहुत कम लोगों की तारीफ करते हैं, लेकिन जब वह चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर से मिले थे तो उन्होंने कहा था, 'वह सुपर-इंटेलिजेंट हैं.' मुझे लगता है कि 2016 या 2017 की शुरूआत में केजरीवाल और PK (प्रशांत किशोर को पीके कहकर संबोधित किया जाता है) के बीच यह मीटिंग हुई थी. मैं उस समय आम आदमी पार्टी में था. मैं सिर्फ उसी समय पीके से मिला था. केजरीवाल ने हल्के-फुल्के मूड में पीके के बारे में कहा था, 'वह अति-बुद्धिमान हैं, लेकिन वह अति-महत्वाकांक्षी भी हैं.' उस बैठक के बाद के महीनों में, अरविंद केजरीवाल प्रशांत किशोर के प्लान के बारे में सतर्क रहते थे, जिसमें AAP के ढांचे में विचार करने के लिए कुछ बड़े बदलाव शामिल थे. उन्होंने 2020 में एक साथ काम किया, नतीजा सबके सामने है कि AAP ने विधानसभा चुनाव में एकतरफा जीत हासिल की.
मीडिया पीके को लगातार फॉलो करता है लेकिन उनके हाल के दो सत्रों को मीडिया में उनके दोस्तों द्वारा गेम-चेंजिंग सेशन के तौर पर देखा गया. शरद पवार के साथ उनकी बैठकों को 2024 के लिए भाजपा विरोधी विपक्षी मोर्चे के शुरुआती बिंदु के रूप में बताया गया. 22 जून को दिल्ली में राष्ट्र मंच की शरद पवार के नेतृत्व वाली बैठक को उस अभ्यास के हिस्से के रूप में देखा गया था. मैं भी वहां जाने के लिए राजी हो गया था लेकिन अगले दिन जब मैंने अखबार पढ़ा, तो मुझे एहसास हुआ कि कॉन्क्लेव को एक पॉलिटिकल कॉन्क्लेव माना जा रहा है, इसलिए मैं बाहर हो गया. करण थापर ने भी यही किया. हम दोनों की राय थी कि पत्रकार के रूप में, हमारी विचारधारा और मोदी सरकार के बारे में विचारों के बावजूद, हम किसी भी राजनीतिक समूह के पक्ष नहीं हो सकते.
इसके बाद प्रशांत किशोर की गांधी परिवार के साथ बैठक ने एक बार फिर अटकलों को हवा दे दी. फिर से कहा जाने लगा कि पीके किसी बड़ी योजना पर काम कर रहे हैं या कुछ बड़ा करने जा रहे हैं. हरकिशन सिंह सुरजीत जैसी अटकलें कि पीके भी उनकी तरह कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों को एक ही मंच पर एकजुट करने का प्रयास कर रहे हैं. यह भी खबरें हैं कि प्रशांत कांग्रेस जॉइन कर सकते हैं और उन्हें पार्टी में किसी बड़े पद से नवाजा जा सकता है. गांधी परिवार ने पीके के कांग्रेस के साथ आने पर अभी कोई बयान नहीं दिया है. हालांकि शरद पवार ने कहा है कि पीके के साथ उनकी मुलाकात का राजनीति से कोई लेना-देना नहीं था, और उनकी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार होने में कोई दिलचस्पी नहीं है, जैसा कि पीके के साथ उनकी मुलाकातों के आधार पर मीडिया ने पेश किया. यह एक संयोग है कि पीके के किसी शीर्ष नेता से मिलने से पहले ही मीडिया को इसके बारे में पता चल जाता है, और बैठक के बाद, सुर्खियां बड़ी होती हैं - हालांकि इसमें शामिल पक्षों की ओर से कोई पुष्टि नहीं की जाती है जिसमें पीके भी शामिल हैं.
2014 लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की जीत ने पीके को मशहूर कर दिया था. मीडिया ने उस समय संकेत दिया था कि मोदी ने अपनी जीत का श्रेय पीके को दिया, जिन्होंने उनके चुनावी अभियान की रूपरेखा तैयार की थी. उन्होंने कई पुरानी राजनीतिक कहानियों को गलत साबित किया. पीके ने चुनावी अभियान में कुछ पश्चिमी तरीके भी अपनाए. नए मतदाताओं और निर्वाचन क्षेत्रों तक पहुंचने के लिए नई प्रोग्रामिंग शुरू की गई थी. अचानक, मोदी अब वो मोदी नहीं रहे थे, जिन्हें मैं जानता था. वह एक प्रतीक, एक सज्जन व्यक्ति, एक सुपरमैन के रूप में बदल गए थे, जिसके पास 1947 के बाद से देश द्वारा सामना की जाने वाली सभी बीमारियों का इलाज था. उनका व्यक्तित्व ऐसा दिखलाया गया कि वह रूढ़िवादी दृष्टिकोण वाले आरएसएस नेता नहीं थे. वह लैपटॉप और मॉडर्न गैजेट के साथ दिखते थे. वह एक खुशमिजाज शख्स थे, जिनमें युवाओं के लिए एक अपील थी.
मुझे नहीं पता कि पीके ने यह सब डिजाइन किया था या उन्होंने किसी ऐसे विजन को अपनाया था, जिसकी उत्पत्ति कहीं और हुई. किसी भी तरह से यह एक शानदार अभियान था और उन्हें श्रेय मिलना चाहिए, हालांकि इसमें बराक ओबामा के 2012 में हुए चुनावी अभियान के रंग भी झलक रहे थे. ऐसे में उनका मोदी के खेमे से अचानक निकल जाना हैरान करने वाला था. मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद मैं उनसे बड़ी भूमिका निभाने की उम्मीद कर रहा था. मोदी की बहुत मजबूत पसंद और नापसंद है. उनकी कोर टीम के सदस्य शायद ही कभी उनका साथ छोड़ते हैं. पीके के साथ छोड़ने की वजह कभी साफ तौर पर सामने नहीं आई. क्या वह खुद गए या फिर उन्हें टीम छोड़ने के लिए मजबूर किया गया. तब से उन्होंने कैप्टन अमरिंदर सिंह से लेकर जगन मोहन रेड्डी, एम के स्टालिन से लेकर ममता बनर्जी और केजरीवाल तक, भाजपा के लगभग हर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी की मदद करने के लिए उनके साथ जुड़े. कुछ ही समय के लिए ही सही लेकिन पीके ने सक्रिय राजनीति में भी हाथ आजमाया. वह नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड के उपाध्यक्ष बने. उन्हें नीतीश का राजनीतिक उत्तराधिकारी माना जाने लगा लेकिन JDU के साथ उनकी सियासी पारी जल्द ही खत्म हो गई और नीतीश कुमार ने उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया. उन्होंने अपने गृह राज्य बिहार में पॉलिटिकल प्लेटफॉर्म बनाने की भी कोशिश की लेकिन कुछ खास हाथ नहीं लगा और वह उस काम में फिर से लौट आए, जिसमें उनको महारत हासिल थी, वह थी- चुनावी रणनीतिकार की भूमिका. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की शानदार जीत के बाद पीके ने मीडिया से कहा कि अब से वह चुनावी रणनीतिकार के तौर पर काम नहीं करेंगे. वह अपने लिए नया रास्ता तलाशेंगे. ऐसा लगता है कि वह राष्ट्रीय स्तर पर नेता बनना चाहते हैं. जब मैंने उनसे इस बारे में जानने के लिए फोन किया तो उन्होंने मेरी कॉल का जवाब नहीं दिया.
चूंकि वह राष्ट्रीय राजनीति में अपने लिए एक बड़ी भूमिका की तलाश कर रहे हैं, इसलिए उन्हें सार्वजनिक जीवन में खुला होना चाहिए. मैं उनसे तीन सवाल पूछकर इसकी शुरूआत करता हूं.
1- उनकी विचारधारा क्या है. मोदी के साथ बहुत करीब से काम करने वाला कोई व्यक्ति इन दिनों विपक्षी नेताओं को यह कहते सुना जाता है कि मोदी देश के लिए बहुत खतरनाक हैं. मोदी RSS के आदमी हैं. वह अपनी विचारधारा को अपने बाजुओं में लेकर चलते हैं और उन्हें इस पर बहुत गर्व है. मुझे यकीन है कि पीके आरएसएस की विचारधारा से अच्छी तरह वाकिफ हैं और वह गुजरात में 2002 में हुए दंगों के बारे में भी अच्छी तरह जानते हैं. इसके बावजूद उन्होंने 2013-14 में मोदी की मदद की, तो आज मोदी को देश के लिए खतरनाक कहने पर उन्हें गंभीरता से कैसे लिया जा सकता है. क्या उन्होंने इन तथ्यों को अच्छी तरह जानने के बावजूद उनकी मदद की, या यह देर से हुआ अहसास है.
2- धर्मनिरपेक्षता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता क्या है. उन्होंने ममता बनर्जी के साथ भी काम किया है. ममता वैचारिक रूप से मोदी की विरोधी हैं. कोई शुभेंदु अधिकारी और हिमंत बिस्वा सरमा जैसे राजनेताओं को जीवन भर की महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए रातोंरात रंग बदलते हुए समझ सकता है. ये दोनों लोग भाजपा में शामिल होने से पहले धर्मनिरपेक्ष खेमे में थे. उस समय उन्होंने कभी भी मुसलमानों के बारे में बुरा नहीं बोला, लेकिन पाला बदलने के बाद उनकी भाषा बेहद बेहूदा और स्पष्ट थी कि वे किसे निशाना बना रहे हैं. क्या आज उनकी (पीके) बातों पर भरोसा किया जा सकता है, जब वह कहते हैं कि वो भारतीय संविधान, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता को बचाने के लिए निकले हैं.
3- नीतीश कुमार के साथ काम करना मुश्किल है. वह अपने सहयोगियों से पूर्ण अधीनता की अपेक्षा करते हैं लेकिन अन्य राजनीतिक नेता भी ऐसा ही करते हैं. पीके ने नीतीश की टीम को जॉइन किया. वह उनके डिप्टी थे लेकिन यह पारी मुश्किल से एक साल तक चली. मेरे जैसा कोई व्यक्ति जिसने उनसे अधिक समय राजनीति में बिताया है, मैं दावा कर सकता हूं कि राजनीति अनुमान से ज्यादा कठोर है, लेकिन क्या गारंटी है कि अगर वह किसी पार्टी में शामिल हो जाते हैं, तो वह वहां लंबे समय तक रहेंगे.
मैं पीके के काम का प्रशंसक हूं. वे भारतीय राजनीति में नवीनता और रचनात्मकता लाए लेकिन जनता के साथ सीधे काम करने की तुलना में पर्दे के पीछे काम करना ज्यादा आसान है. इस काम के लिए एक अलग स्तर के धैर्य, गहराई, समझ और रचनात्मकता की जरूरत होती है. जनता की चकाचौंध से अपनी 'सुपर' महत्वाकांक्षा को छुपाना ही राजनीति है और अब तक वह उस मोर्चे पर बुरी तरह विफल रहे हैं.
आशुतोष दिल्ली में बसे लेखक व पत्रकार हैं...
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.