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This Article is From Apr 27, 2017

प्राइम टाइम इंट्रो : क्यों हुई देरी लोकपाल की नियुक्ति में?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 27, 2017 21:40 pm IST
    • Published On अप्रैल 27, 2017 21:40 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 27, 2017 21:40 pm IST
लोकपाल भले न आया हो लेकिन इसके आने को लेकर जो आंदोलन हुआ उससे निकल कर कई लोग सत्ता में आ गए. 2011 से 13 के साल में ऐसा लगता था कि लोकपाल नहीं आएगा तो कयामत आ जाएगी. 2013 में लोकपाल कानून बन गया. 1968 में पहली बार लोकसभा में पेश हुआ था. कानून बनने में 45 साल लग गए तो कानून बनने के बाद लोकपाल नियुक्त होने में कम से कम दस बीस साल तो लगने ही चाहिए थे. अभी तो लोकपाल कानून के बने चार ही साल हुए हैं, अभी तो 41 साल और बाकी हैं, मगर लोग इतनी जल्दी भूल गए कि भ्रष्टाचार अगर दूर होगा तो लोकपाल से ही दूर होगा बल्कि लोग इतना भूल गए कि याद ही नहीं रहा कि लोकपाल आंदोलन से निकली दो-दो पार्टियों को दिल्ली नगर निगम के चुनावों में वोट भी देना है. लोकपाल-लोकपाल गाने वाले गिटारिस्ट की बहुत याद आ रही है, उनका गाना बहुत अच्छा था. भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के घोषणा पत्र के पेज नंबर 9 पर लिखा था, 'प्रशासनिक सुधार भाजपा के लिए प्राथमिकता होंगे, इसके लिए हम उनका क्रियान्वयन प्रधानमंत्री कार्यालय के तहत एक उचित संस्था के ज़रिये करने का प्रस्ताव करते हैं, हम एक प्रभावी लोकपाल संस्था गठित करेंगे, हर स्तर के भ्रष्टाचार से तीव्रता और कड़ाई से निपटा जाएगा.'

क्या आपने इन तीन वर्षों में प्रभावी लोकपाल की संस्था गठित होते हुए देखी है. बग़ैर लोकपाल के ही भ्रष्टाचार दूर करने का दावा किया जा रहा है, लोग भ्रष्टाचार की शिकायतों को लेकर कभी प्रधानमंत्री को पत्र लिख रहे हैं तो हमें भी कॉपी कर देते हैं. अगर लोकपाल होता तो भ्रष्टाचार की सारी शिकायतें वहां जातीं और उन पर कार्रवाई होती. बग़ैर लोकपाल के रोज़ाना सर्टिफिकेट जारी होता है कि करप्शन का कोई आरोप नहीं लगा है. लोकपाल को सरकार इतना भूल गई कि याद दिलाने के लिए गैर सरकारी संस्था कॉमन कॉज़ को सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करनी पड़ी. 27 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की हर दलील को ख़ारिज कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कह दिया है कि केंद्र सरकार बिना नेता विपक्ष के ही लोकपाल की नियुक्ति की प्रक्रिया पूरी करे. नेता विपक्ष के न होने की वजह से लोकपाल की नियुक्ति रोके रखने का कोई औचित्य नहीं है. लोकपाल एक्ट पर बिना संशोधन के ही काम किया जा सकता है. केंद्र सरकार की दलील थी कि कानून में संशोधन बिना लोकपाल की नियुक्ति नहीं हो सकती.

28 मार्च को भी बहस हुई थी, कोर्ट में भारत सरकार के अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने कहा था कि वर्तमान हालात में लोकपाल की नियुक्ति संभव नहीं है. ये वर्तमान हालात क्या हैं. सरकार की मुख्य दलील रही है कि विपक्ष का नेता नहीं है और बीस के करीब संशोधन करने हैं जो संसद में लंबित है. पिछले तीन साल में एक से एक मुश्किल कानून पास हुए हैं, जिस कानून को सभी राजनीतिक दलों ने पहले पास नहीं होने दिया, फिर मिलकर पास किया ताकि जनता को यह न लगे कि कोई भ्रष्टाचार के ख़िलाफ नहीं है तो उस कानून में एक मामूली सा संशोधन क्यों नहीं हो सका. 28 मार्च को सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने अपना पक्ष रखा था कि न्यायपालिका को अधिकारों के बंटवारे का सम्मान करना चाहिए और संसद को ये निर्देश जारी नहीं करने चाहिए कि वह लोकपाल की नियुक्ति करे. मगर 27 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने साफ साफ कह दिया कि लोकपाल की नियुक्ति के लिए कोई बहाना नहीं चलेगा.

लोकपाल बिल में 2014 में संशोधन प्रस्ताव लाया गया था लेकिन स्टैंडिंग कमेटी ने एक साल का वक्त ले लिया. अटॉर्नी जनरल ने कहा कि संसदीय समिति ने भ्रष्टाचार निरोधक संस्थाओं के लिए एकीकृत ढांचे की सिफारिश की है. रिपोर्ट में केंद्रीय सतर्कता आयोग, सीबीआई की एंटी करप्शन ब्यूरो को लोकपाल के साथ एकीकृत करने की सिफारिश की गई है. 

कुल मिलाकर लोकपाल नियुक्त न करने के जितने भी तर्क सरकार के थे, अदालत में नहीं टिक सके. तो क्या अब वो दिन आ गया है जब लोकपाल नियुक्त हो सकेगा. यह संस्था अपना काम करेगी और नागरिक भ्रष्टाचार की शिकायतें एक स्वायत्त संस्था से कर सकेंगे. 13 अप्रैल के इंडियन एक्सप्रेस में एक रिपोर्ट छपी थी. केंद्रीय संस्थाओं में भ्रष्टाचार पर निगरानी रखने वाली संस्था केंद्रीय सतर्कता आयोग सीवीसी ने संसद में एक रिपोर्ट सौंपी. इसके अनुसार केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों के कर्मचारियों के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार की शिकायतों में 67 प्रतिशत का उछाल आया है. भ्रष्टाचार की सबसे अधिक शिकायतें रेल मंत्रालय के कर्मचारियों के ख़िलाफ़ आईं हैं. रेलवे के कर्मचारियों के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार की 11,000 शिकायतें आई हैं. गृहमंत्रालय के कर्मचारियों के ख़िलाफ 6,513 शिकायतें आईं हैं. बैंक कर्मचारियों के ख़िलाफ़ 6,018 शिकायतें आईं हैं. पेट्रोलियम मंत्रालय के कर्मचारियों के ख़िलाफ़ 2,496 शिकायतें आईं हैं. रक्षा मंत्रालय के कर्मचारियों के ख़िलाफ़ 689 शिकायतें आईं हैं. 

ये केंद्रीय सतर्कता आयोग की रिपोर्ट है. जबकि सरकार के भ्रष्टाचार मुक्त होने का दावा किया जाता रहा है. अगर लोकपाल होता तो भ्रष्टाचार के दावों के बारे में स्वतंत्र रूप से पुष्टि हो सकती थी. संसद में पेश हुई केंद्रीय सतर्कता आयोग की रिपोर्ट के अनुसार भ्रष्टाचार की शिकायतों में एक साल के भीतर भंयकर उछाल आया है. 2015 में 29,838 शिकायतें दर्ज हुई थीं. 2016 में 49,847 शिकायतें दर्ज हुई हैं. एक साल में 67 फीसदी का उछाल आया. 

यही नहीं, सीवीसी को तमाम राज्य सरकारों और अन्य संगठनों के अफसरों कर्मचारियों के खिलाफ भी बड़े पैमाने पर शिकायतें मिली हैं, इसमें भी 50 परसेंट का उछाल आया है. इन शिकायतों का निपटारा भी किया गया है. रेलवे के कर्मचारियों के ख़िलाफ़ 11,200 शिकायतें मिली थीं जिनमें से 8,852 का निपटारा कर दिया गया. लेकिन छह महीने से कर्मचारियों के ख़िलाफ़ 1,054 शिकायतें लंबित हैं. इस रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के कर्मचारियों के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार की शिकायतों में कमी आई है. 2015 में 5,139 शिकायतें दर्ज हुई थीं, 2016 में घटकर 969 हो गई.

26 अप्रैल के हिन्दुस्तान टाइम्स में चेतन चौहान की एक रिपोर्ट है. इसके अनुसार सरकार सूचना के अधिकार कानून में नया बदलाव लाने जा रही है. दिल्ली हाई कोर्ट में सुनवाई के दौरान सरकार ने हलफनामा दिया है. इसके अनुसार अपील को वापस लिया जा सकेगा. जिसे सूचना के अधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि इससे जो व्हिसल ब्लोअर है यानी जो भ्रष्टाचार को उजागर करता है, उसकी जान ख़तरे में पड़ सकती है. लोग उजागर करने पर तरह तरह के दबाव डाल कर अपील वापस करा लेंगे. यही नहीं, एक प्रावधान यह भी बताया जा रहा था कि आवेदक की मौत के बाद आवेदन निरस्त माना जाएगा. कार्यकर्ता सरकार से मांग कर रहे हैं वो ऐसा न करे. एक आंकड़े के मुताबिक 2005 से अब तक आरटीआई दायर करने वाले 65 लोगों की हत्या हो चुकी है और 400 लोगों पर हमले हो चुके हैं.

हिन्दुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट में सरकार का पक्ष यह बताया गया है कि यह संशोधन नया नहीं है बल्कि यूपीए ने 2012 में लाने का प्रयास किया था, वही है. कोई नया बदलाव प्रस्तावित नहीं है. 2014 में सरकार में आने के बाद प्रधानमंत्री मोदी और अन्य मंत्रियों का दावा रहा है कि पहले ही दिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत काले धन का पता लगाने के लिए एसआईटी का गठन कर दिया गया है. 3 मार्च के हिन्दू अखबार में एसआईटी के डिप्टी चेयरमैन जस्टिस अरिजित पसायत का एक बयान छपा है कि अब तक 70,000 करोड़ काला धन का पता चला है जिसमें 16,000 करोड़ विदेशों में है. नोटबंदी से कितने हज़ार करोड़ काला धन का पता चला है इसकी औपचारिक सूचना नहीं आई है, एसआईटी का जो पता चला है वो नोटबंदी में समाप्त हो गया या नहीं, इसकी भी औपचारिक सूचना नहीं है. तब जस्टिस पसायत ने बताया कि एसआईटी ने सरकार को सुझाव दिया था कि तीन लाख से ज्यादा के कैश में लेनदेन को अवैध घोषित कर दिया जाए तो सरकार ने मान लिया बल्कि सरकार ने इसे अब दो लाख कर दिया है. कितने लोगों को पता है कि वो एसआईटी का नेक सुझाव था. बहरहाल भ्रष्टाचार दूर करने की संस्था लोकपाल ही नहीं है बाकी सब हैं. सबके अपने अपने दावे हैं.

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