भारतीय रिज़र्व बैंक के अस्सी साल पूरे होने के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत में ही करेंसी नोट की छपाई की बात कही। इस बात पर शायद ही किसी का ध्यान गया लेकिन मुझे थोड़ी सुखद हैरानी हुई। प्रधानमंत्री की यह बात हल्की नहीं है। बेहद गंभीर बात है। उन्होंने कहा कि भारतीय मुद्रा की छपाई देश में बने काग़ज़ पर होनी चाहिए।
क्या यह अच्छा लगता है कि स्वदेशी की बात करने वाले महात्मा गांधी की तस्वीर हम विदेशी क़ाग़ज़ पर छापें। क्या भारत में ऐसे उद्यमी नहीं है कि वे भारत में ऐसे क़ाग़ज़ बना सकें। उन्होंने बैंक से यह भी कहा कि एक तारीख तय कर लें जिसके बाद से भारतीय मुद्रा की छपाई यहां तैयार क़ाग़ज़ पर होगी। स्याही भी भारत की बनी होगी।
नोट छापने के मामले में आत्मनिर्भर होने का मतलब है कि शत्रु देश उस क़ाग़ज़ को हासिल नहीं कर सकेगा जिस पर भारतीय मुद्रा की छपाई होती है। ऐसा कर वे भारत में नकली मुद्रा फैला देते हैं। प्रधानमंत्री ने कहा कि कुछ साल पहले अंतरराष्ट्रीय अखबारों में ख़बर छपी थी कि भारत सरकार ग्लोबल सप्लायर से ठेका रद्द कर रही है। यह एक सामान्य बात नहीं है। भारत के प्रधानमंत्री के पास इसकी जानकारी है और वो इसे रोकने के लिए कुछ करना चाहते हैं, ये सुनकर मुझे सुखद हैरानी हुई। क्यों हुई इसकी कहानी बताता हूं।
हम पत्रकारों से कई लोग मिलते रहते हैं। ऐसे ही एक दिन हमारे ही चैनल पर कभी कभार रेलवे के मसले पर बोलने वाले पुणे के विवेक खरे आए। विवेक के हाथ में कुछ यंत्र जैसा था, जिस पर कई नोटों को रखकर वे बारीक अंतरों को उजागर कर बता रहे थे कि ये नोट असली है और ये नकली। उनका कहना था कि ये यंत्र पुणे के अनिल काले ने बनाया है। इसके ज़रिये आप दो नोटों की लंबाई चौड़ाई के बीच एक मिलिमिटर के दसवें हिस्से के अंतर को भी नाप सकते हैं। तब जाकर पता चलेगा कि कौन सा नोट नकली है और कौन नहीं। सिर्फ रोशनी में ऊपर नीचे करके इसका सही मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है।
विवेक किसी रहस्यमयी कहानी की तरह बताने लगे कि कैसे बाहर से आयातित कागज के कारण दूसरे देशों के गिरोहों के लिए नकली नोट छापना आसान हो जाता है। एक सामान्य हिन्दुस्तानी समझ नहीं सकता कि उसके हाथ में कौन सा नोट असली है या नकली। सामान्य मशीन भी इस बारीक अंतर को पकड़ने में सक्षम नहीं होती है।
सबसे पहले समझना ज़रूरी है कि एक नोट में क्या क्या होता है। एक खास वाटर मार्क वाला पेपर होता है जो विदेशों से बन कर आता है। इसमें एक सुरक्षा धागा और अल्ट्रा वायलेट लैंप के नीचे चमकने वाले खास रंग भी बाहर से ही बन कर आते हैं। अब हम इस कागज पर भारत में हर करेंसी के हिसाब से छपाई करते हैं। ये छपाई होती है सरकारी प्रेस में। स्याही भी विदेश से आती है। जिसकी बात प्रधानमंत्री ने की है। इस स्याही में चुंबकीय कण होते हैं और रंग बदलने की भी खूबी होती है। ये सब सुरक्षा के लिहाज से किया जाता है। जो छपाई होती है उसकी लंबाई चौड़ाई को इस तरह से फिक्स किया जाता है कि मिलाना या हेरफेर करना नामुमकिन हो जाए।
लेकिन जैसे ही नकली नोट छापने के लिए आप असली का स्कैन करेंगे कुछ न कुछ अंतर आ ही जाएगा। लंबाई चौड़ाई के बीच यह अंतर इतना मामूली होता है कि पकड़ना मुश्किल हो जाता है। आप जानते हैं कि जाली नोट या जिस नोट को लेकर संदेह होता है उसे प्रमाणित करने का अधिकार और कौशल सिर्फ करेंसी नोट के सरकारी प्रेस के एक्सपर्ट के पास ही होता है। लेकिन इसकी जांच की छूट सामान्य बैंक के अधिकारियों को दे दी गई है।
अब होता यह है कि सामान्य लोग कानूनी पचड़े में फंस जाते हैं। कई बार जेल भी हो जाती है। आईपीसी की धारा 489 सी में प्रावधान है कि जेब में जाली नोट पकड़े जाने पर सात साल की सज़ा तक हो सकती है। इसलिए नकली नोट पर काबू पाना बेहद ज़रूरी है और इसके लिए प्रधानमंत्री की बात सही है कि भारतीय मुद्रा की छपाई आयातित क़ाग़ज़ पर न हो।
हमने तब विवेक की बातचीत तो अनसुना कर दिया था क्योंकि यह स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है कि हम हर विषय को समझने की क्षमता नहीं रखते हैं। कई बार आपको तय करना होता है कि इतने संवेदनशील मुद्दे पर कोई सनसनीखेज रिपोर्ट न हो जाए। लेकिन भारतीय रिज़र्व बैंक के समारोह में प्रधानमंत्री के बयान के बाद विवेक खरे को फिर फोन लगाया और पूरी बात को समझने की कोशिश की। इस जटिल प्रक्रिया को आप तक पहुंचाने के लिए सरल तरीके से लिख रहा हूं।
सुखद हैरानी यह हुई कि प्रधानमंत्री की निगाह इतने जटिल मसले पर गई है। विवेक ने तब भारी भरकम चिट्ठी भी दिखाई थी जो प्रधानमंत्री को लिखी गई थी। लगता है कि प्रधानमंत्री तक वो चिट्ठी पहुंची है। वैसे यह मसला नहीं है, हो सकता है कि प्रधानमंत्री तक यह बात किसी दूसरे ज़रिये से भी पहुंची हो लेकिन एक ऐसी समस्या पर बारीक निगाह का पड़ जाना अच्छी बात तो है ही।