आख़िर कौन रोकेगा BJP का विजय रथ...?

भारत का नेतृत्व एकमात्र वही दल कर सकता है, जिसके मुद्दे राष्ट्रीय हों, जिसकी सोच समग्र भारतीय चेतना का प्रतिनिधित्व करती हो और जो शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक न्याय और सुरक्षा जैसे मुद्दों की राष्ट्र निर्माण में भूमिका को समझता हो. ऐसे में BJP का ईमानदार विकल्प कांग्रेस शायद ही कभी हो सकती है.

आख़िर कौन रोकेगा BJP का विजय रथ...?

देश ने हाल ही में दो चुनावी नतीजे देखे. एक कर्नाटक का चुनावी परिणाम था, जिसमें कांग्रेस ने आशातीत सफलता हासिल करते हुए भारतीय जनता पार्टी (BJP) को राज्य में सत्ता से बाहर कर दिया. इसी दिन एक और चुनाव परिणाम आया, लेकिन कर्नाटक के शोरशराबे में उसकी चर्चा थोड़ी दब गई. यह ख़बर थी जालंधर लोकसभा उपचुनाव में आम आदमी पार्टी (AAP) की शानदार जीत की. जालंधर पारम्परिक रूप से कांग्रेस का अभेद्य गढ़ रहा है. 1999 से ही इस सीट पर कांग्रेस का कब्ज़ा रहा है. गैर-कांग्रेस प्रत्याशी के तौर पर सिर्फ 1989 और 1998 में इंद्रकुमार गुजराल यहां से जीतने में सफल रहे थे. इस बार के चुनाव में AAP के सुशील कुमार रिंकू ने कांग्रेस के अमरिंदर सिंह राजा को पराजित कर कांग्रेस के इस मज़बूत क़िले को भी ध्वस्त कर दिया. इस जीत के बड़े मायने हैं. इससे आगामी लोकसभा में पंजाब में क्या होने वाला है, इसका संकेत साफ है. पंजाब का यह नतीजा राष्ट्रीय राजनीति, खासकर 2024 के आम चुनाव को भी एक दिशा देता दिखाई दे रहा है.

इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस ने कर्नाटक का चुनाव जीता है. इस जीत के बाद से ही इस चुनाव परिणाम को 2024 में लोकसभा चुनाव के लिए संकेत बताने की कोशिश हो रही है. साथ ही एक नैरेटिव गढ़ने की कोशिश की जा रही है कि विपक्षी एकता का केंद्र स्थल कांग्रेस ही है. हालांकि इसमें कोई दम नहीं दिखाई देता. कर्नाटक चुनाव का गणितीय और तार्किक विश्लेषण देखें, तो ज़बरदस्त सत्ता-विरोधी लहर के बावजूद BJP के मतों का प्रतिशत जस का तस बना हुआ है. इसका मतलब तो यह हुआ कि BJP के कोर मतदाताओं को लुभाने में कांग्रेस नाकाम रही है. इसलिए यह जीत स्थायी से ज्यादा तकनीकी है, क्योंकि जनता दल सेक्युलर (JDS) के मुस्लिम वोटरों ने इस बार BJP को हराने के लिए रणनीतिक रूप से कांग्रेस को वोट दिया है. हालांकि ये वोटर हमेशा साथ देंगे, इसकी कोई गारंटी कतई नहीं है, इसलिए यह जीत कांग्रेस या उसकी विचारधारा या उसके कामकाज की जीत नहीं है.

कर्नाटक में BJP के 40 प्रतिशत के कमीशनराज और कुशासन से जनता का हर वर्ग त्रस्त था. हालांकि यह बात भी बहुत पुरानी नहीं है, जब इससे पहले वाला सिद्धारमैया का शासनकाल भी 20 प्रतिशत कमीशन की सरकार के रूप में कुख्यात था. तब अपने कुशासन की वजह से ही कांग्रेस सरकार चुनाव हार गई थी. इस बार चुनाव जीतने के चक्कर में कांग्रेस ने खूब बढ़-चढ़कर वादे किए. इसके लिए कांग्रेस ने किसी और पार्टी के नहीं, आम आदमी पार्टी के ही घोषणापत्र का सहारा लिया. कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में महिलाओं के लिए फ्री बस यात्रा और बेसिक इनकम गारंटी जैसे आम आदमी पार्टी के कई वादे शामिल तो कर लिए, लेकिन इसे पूरा करने की नीयत शुरू से ही दिखाई नहीं दे रही है. महिलाओं को फ्री बस यात्रा पर डी.के. शिवकुमार पहले ही साफ कह चुके हैं कि ऐसा करना मुमकिन नहीं है.

इससे साफ है कि चुनावी फायदे के लिए इन्होंने कॉपी-पेस्ट अंदाज़ में आम आदमी पार्टी की कुछ सफल गारंटियों की नकल तो की, लेकिन उन्हें पूरा करने की कोई ठोस कार्ययोजना दिखाई नहीं देती. वादे पूरा करने की गारंटी तो सिर्फ केजरीवाल मॉडल ही दे सकता है, क्योंकि ठोस वित्तीय प्रबंधन की कला और और टैक्स के पैसे का सदुपयोग करने में आम आदमी पार्टी ने दिल्ली और पंजाब में अपनी क्षमता साबित भी की है.

दूसरी बात, मुख्यमंत्री बनने के सवाल को लेकर कांग्रेस के अंदर ही जिस तरह का नाटक हुआ, उसे पूरे देश ने देखा. अब मुख्यमंत्री फिर से भले ही सिद्धारमैया बन गए हों, लेकिन कुर्सी की खींचतान में फिलहाल पीछे रह गए डी.के. शिवकुमार से उनकी कितने दिन तक बनेगी, यह प्रश्न विचारणीय है. साथ ही इस तरह की अंदरूनी खींचतान के बीच सरकार जनाकांक्षाओं पर कितनी खरी उतरेगी, यह भी देखने वाली बात होगी.

कर्नाटक की इस जीत से मीडिया का एक तबका ऐसा नैरेटिव गढ़ने की कोशिश कर रहा है कि कांग्रेस ही BJP को टक्कर देने वाली एकमात्र राजनीतिक पार्टी है और विपक्षी ख़ेमे में राहुल गांधी ही प्रधानमंत्री पद के एकमात्र योग्य उम्मीदवार हैं, जबकि सच्चाई यह है कि कर्नाटक की जनता ने कांग्रेस को मजबूरी में वोट दिया है. चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने भी कांग्रेस को गलतफहमी न पालने की सलाह दी है. उनकी इस बात में दम भी है. 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी (SP) पूर्ण बहुमत से चुनकर आई, लेकिन दो साल बाद ही लोकसभा चुनाव में BJP ने 80 में 70 से ज़्यादा सीटें जीत लीं. कई और राज्यों में भी ऐसे अनेक उदाहरण हैं. विधानसभा में जीत लोकसभा में भी जीत की गारंटी क़तई नहीं देती. जनता किसी सरकार को बार-बार तभी दोहराती है, जब वास्तव में सरकार के कामकाज में दम हो.

कई राजनीतिक दलों को ऐसा लगता है कि अरविंद केजरीवाल की AAP सरकार की सफलता सिर्फ मुफ्त बिजली-पानी देने की वजह से है. ऐसे दल या विश्लेषक आम आदमी पार्टी के शानदार प्रशासन और सुविचारित वित्तीय प्रबंधन को अक्सर नजरअंदाज़ कर देते हैं. अधिकतर लोगों को यह साधारण गणित समझ नहीं आता कि चुनावी वादे पूरे करने के लिए ईमानदार सरकार और कुशल प्रशासनिक प्रबंधन की ज़रूरत होती है. यही वजह है कि आम आदमी पार्टी न सिर्फ दिल्ली में लगातार तीसरी बार जीती, बल्कि पंजाब में भी परचम लहराया. इसके अलावा गोवा, गुजरात और कर्नाटक में भी चुनाव भले ही न जीती हो, लेकिन लोगों को आम आदमी पार्टी और उसके नेता अरविंद केजरीवाल के बारे में विचार करने को विवश किया है. आज करोड़ों लोग AAP को विकल्प के रूप में देख रहे हैं. आम आदमी पार्टी एक नई पार्टी होने के बाद भी गुजरात जैसे राज्य में BJP जैसी स्थापित पार्टी को ख़ौफ़ज़दा कर देती है.

अगर आम आदमी पार्टी सबसे तेज गति से राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल करने वाला राजनीतिक दल बनी है, तो इसके पीछे सुशासन और गरीबोन्मुख नीतियों के अलावा शिक्षा और स्वास्थ्य के साथ-साथ सामाजिक समरसता के प्रति उसका समर्पण भाव भी है. आज जो लोग कांग्रेस में BJP का विकल्प देख रहे हैं, उन्हें 2014 के पहले की कांग्रेस के कारनामे शायद याद नहीं हैं. भ्रष्टाचार के मामले पर तो BJP और कांग्रेस दोनों का ही ट्रैक रिकॉर्ड एक जैसा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सत्ता में आने पर कहा था - न खाऊंगा और न खाने दूंगा. दूसरी ओर, हक़ीक़त यह है कि वर्तमान में कुल चुनावी चंदे का 90 प्रतिशत BJP को मिलता है.

क्या जनता इतनी भोली है कि इन बातों को नहीं समझती है. वास्तव में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों ही दल शिक्षा, स्वास्थ्य, भूख और रोज़गार जैसी मौलिक समस्याओं को हल करने के प्रति गंभीर नहीं है. इन दोनों ही पार्टियों ने क्रोनी कैपिटलिज़्म को बढ़ावा दिया है. इससे एक ऐसा भ्रष्ट गठजोड़ बना है, जिसका फायदा उठाकर सिर्फ चंद उद्योगपति ही आगे बढ़ते हैं. कांग्रेस और BJP की इन्हीं विफलताओं की वजह से आम आदमी पार्टी का त्वरित और राष्ट्रीय विस्तार हुआ है. आम आदमी पार्टी समाज के सभी तबकों के लिए समान अवसर मुहैया कराने की नीति पर काम करती है. साथ ही समाज के हर तबके को प्रतिनिधित्व देने के चलते जनता उससे सीधे जुड़ाव भी महसूस करती है.

दूसरी ओर, आम आदमी पार्टी दिल्ली के बाद पंजाब में न सिर्फ सरकार बनाने में सफल रही, बल्कि सुशासन का विशिष्ट मॉडल भी पेश किया. जालंधर की जीत ने भगवंत मान सरकार के एक साल के कामकाज के साथ-साथ केजरीवाल मॉडल पर भी अपने विश्वास की मुहर लगा दी है. AAP ने सिद्ध किया है कि जाति या धर्म जैसे विभाजनकारी मुददों के बगैर भी राजनीति की जा सकती है. भारत को नंबर वन बनाने के लिए ऐसी ही राजनीति की आवश्यकता भी है.

यह समझने की आवश्यकता है कि कांग्रेस और BJP का मूल चरित्र एक ही है. मशहूर पत्रकार और BJP के कद्दावर नेता रहे अरुण शौरी ने कभी दोनों दलों के तुलनात्मक संदर्भ में ऐसी टिप्पणी की भी थी. यह व्यंग्य वास्तव में कड़वी हकीकत है. मोदी के अश्वमेध को रोकने का काम निश्चित रूप से क्षेत्रीय पार्टियां ही कर रही हैं. हालांकि इन दलों के साथ समस्या यह है कि वे क्षेत्रीय खांचे में बुरी तरह जकड़े हुए हैं. ये दल अपने ही राज्य में सिमटकर रह गए हैं. पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र से लेकर उत्तर प्रदेश तक मज़बूत क्षेत्रीय दल हैं, लेकिन वे अपने राज्य से बाहर इसलिए नहीं बढ़ पाए, क्योंकि वे क्षेत्रीय आकांक्षाओं का ही प्रतिनिधित्व करते रह गए. इसकी वजह से उनका राष्ट्रीय चरित्र विकसित ही नहीं हो पाया.

दरअसल, भारत का नेतृत्व एकमात्र वही दल कर सकता है, जिसके मुद्दे राष्ट्रीय हों, जिसकी सोच समग्र भारतीय चेतना का प्रतिनिधित्व करती हो और जो शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक न्याय और सुरक्षा जैसे मुद्दों की राष्ट्र निर्माण में भूमिका को समझता हो. ऐसे में BJP का ईमानदार विकल्प कांग्रेस शायद ही कभी हो सकती है. BJP को हटाकर कांग्रेस को ले आना यानी, 'फैन्टा' को हटाकर 'कोक' ले आने जैसा है. ग़ौरतलब है कि देश की सेहत के लिए दोनों ही हानिकारक हैं.

दिलीप पांडेय आम आदमी पार्टी (AAP) की दिल्ली इकाई के उपाध्यक्ष, तिमारपुर विधानसभा से विधायक और दिल्ली विधानसभा में सत्तापक्ष के चीफ़ व्हिप हैं...

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