केंद्र सरकार ने साफ़ कर दिया है कि वह जातिवार जनगणना नहीं कराने जा रही है. राज्यसभा में एक प्रश्न के उत्तर में सरकार की ओर से यह जवाब आया है. सरकार ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि एसटी-एससी की तरह ओबीसी की जनगणना कराने का भी उसका इरादा नहीं है.
सवाल है, जातियों के आधार पर जनगणना क्यों नहीं होनी चाहिए? एक स्पष्ट तर्क इसके विरुद्ध है. हमारा संविधान जातियों को नहीं मानता. तो हमारी जनगणना में जाति की गिनती क्यों हो? जातिवार जनगणना सामाजिक बराबरी के सिद्धांत के विरुद्ध है.
शायद यही वजह रही होगी कि आज़ादी के बाद भारत की जनगणना में जाति की गणना को छोड़ दिया गया. 1931 तक भारत में जातिवार गिनती होती रही. गिनती 1941 में भी हुई, लेकिन उसके नतीजे प्रकाशित नहीं किए गए. तब शायद यह आदर्श सा ख़याल होगा कि आज़ादी के बाद देश धार्मिक और जातिगत भेदभावों से ऊपर उठ जाएगा, एक राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत नए देश में जातियों की न अहमियत बचेगी न उनको गिनने की ज़रूरत.
लेकिन आज़ादी के 75 साल का जश्न मनाने से पहले हम पा रहे हैं कि जाति की रेखाएं हमारे समाज में कुछ गहरी ही हुई हैं. बल्कि आज़ादी के बाद एक दौर ऐसा ज़रूर आया था कि लोग जाति की सामंती ऐंठ को पीछे छोड़ लोकतांत्रिक संकोच के साथ अपनी जाति अपने घर के भीतर रखते थे. लेकिन जातिगत प्रदर्शन का अहंकार भी बड़ा हुआ है और जातियों के टकराव भी. खासकर 1990 के बाद जब मंडल आयोग की सिफारिशें लागू हुईं और नौकरियों और पढ़ाई में अन्य पिछड़ा वर्गों का कोटा शुरू हो गया, तब से जातिगत पहचान को लेकर एक नई आक्रामकता समाज में भी दिखती है और राजनीति में भी. पिछड़ा वर्गों के भीतर यह नई चेतना जागी है कि उसके संसाधनों पर एक बहुत छोटे से वर्ग का क़ब्ज़ा है तो सवर्णों के भीतर ये मायूसी है किन्हीं ऐतिहासिक अन्यायों की आड़ में उनकी प्रतिभा के साथ अब अन्याय हो रहा है, उनके मौक़े उनसे कमतर लोगों को दिए जा रहे हैं.
लेकिन इस मासूम लगने वाली सच्चाई के पहलू कुछ और भी हैं. भारत में अगर जाति बनी रही, अगर ऊंच-नीच बनी रही, अगर जाति के आधार पर अशिक्षा और गरीबी बनी रही तो इसका ज़िम्मेदार कौन है? जाहिर है, वह सवर्ण या अगड़ा तबका जिसने सारे फ़ैसले अपने वर्गहित को ध्यान में रखते हुए किए- न शिक्षा के अवसर सबको सुलभ कराए न सामाजिक बराबरी का एहसास सबको कराया. उल्टे वह अपनी जातिगत श्रेष्ठता के परकोटों को और मज़बूत करने में जुटा रहा. राजनीतिक-प्रशासनिक भ्रष्टाचार के समंदर से लेकर जातिगत पहचानों वाली झीलें तक उसके क़ब्ज़े में रहीं. वह बेशर्मी से अखबारों में अपनी जाति के भीतर गोरी और घरेलू कामकाज में दक्ष लड़कियां खोजता रहा और बहुत बारीकी से इस बात का खयाल रखता रहा कि सत्ता की जो मलाई है वह उसके अपनों को मिले.
दरअसल यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था थी जिसने पिछड़ों को उनके ऐतिहासिक अवसर दिए. यूपी-बिहार से चली समाजवादी राजनीति ने इन मझोली जातियों को एहसास कराया कि उनका वोट अहमियत रखता है और सत्ता-निर्धारण में उनकी सबसे अहम भूमिका है. 90 के दशक में जब मंडल आयोग आया तो इसीलिए मन से उसका विरोध करते रहने के बावजूद कोई भी राजनीतिक दल इसके विरुद्ध नहीं जा सका. मंडल सिफ़ारिशों पर अमल का एलान अगड़ी जातियों की कृपा का नहीं, मजबूरी का नतीजा था. बेशक, मंडल आयोग की सिफ़ारिशों पर चली बहस के बाद बने माहौल से भारतीय लोकतंत्र में जिस रचनात्मक राजनीतिक संभावना की उम्मीद पैदा हुई थी, वह नई तरह की जातिगत जकड़बंदी की शिकार हो गई. इसके बाद इस मंडल की काट में कमंडल उतरा- बीजेपी ने अपने राम मंदिर आंदोलन के दौरान यूपी में सोशल इंजीनियरिंग का नारा देते हुए पिछड़ा नेतृत्व को अपने यहां जगह दी और मंडल को बहुत दूर तक पिचका दिया.
लेकिन यह कहानी पुरानी है. पिछले सात साल से हिंदुत्व के नए और आक्रामक उभार ने मंडल और पुराने कमंडल सबको बेमानी बना डाला है. अब शाह और मोदी की जोड़ी है जिसके विरुद्ध एकजुट होने की कोशिश करता विपक्ष लगातार जैसे लाचार नज़र आता है. इस पूरी प्रक्रिया में लेकिन वास्तविक नुक़सान पिछड़ों और गरीबों को पहुंचा है. क्योंकि हिंदूवादी विकास की नई रणनीति में अमीर और अमीर होते गए हैं, गरीब और गरीब. दो हिंदुस्तान बन गए हैं जिनमें से एक लॉकडाउन के बाद सुपरबाज़ारों में टूट पड़ता है ताकि अपना भंडार भर सके और दूसरा हिंदुस्तान बिल्कुल सड़क पर आ जाता है- पैदल चलता हुआ, भूख से, गाड़ी से कुचल कर मारा जाता है. इस वर्गीय विभेद की जातिगत पड़ताल करें तो यह साफ़ नज़र आएगा कि जिन्हें हम ग़रीब और कमज़ोर आर्थिक हैसियत वाले लोग कहते हैं, उनका बहुत बड़ा हिस्सा पिछड़ी जातियों, दलितों और आदिवासियों से बनता है.
इसमें शक नहीं कि इस तबके के लिए भारतीय राजनीति को जितना संवेदनशील होना चाहिए, उतनी वह है नहीं. वह अब भी अपने वोट गिनने में लगी है और उसके ज़्यादातर फैसलों का आधार वोटों की संख्या है- नेता और दल अपने वोट बैंक पर भरोसा करके चलते हैं. लेकिन ये वोट बैंक बनते कहां से हैं? पहचान का वह कौन सा खेल होता है जो कभी हिंदू वोटों को पिछड़ा वोटों में बदल डालता है और कभी पिछड़ा वोटों को हिंदू वोट बना डालता है? कैसे कभी अलग-अलग जाातिगत समूह अपनी गोलबंदी से चुनावी नतीजे बदल डालते हैं और कैसे उनके बीच कोई नया समूह पैदा हो जाता है?
असली खेल यहीं है. और इसी खेल में छुपी है जातिवार जनगणना से बीजेपी के मुंह छुपाने की रणनीति. बीजेपी को एहसास है कि जब जातियां अलग-अलग गिनी जाएंगी और जब 41 फीसदी अन्य पिछड़ा वर्ग और बाक़ी दलित आदिवासी पाएंगे कि उनको उनके वास्तविक हक़ नहीं मिल रहे तो हिंदू होने का खुमार उनके भीतर कुछ टूटेगा. आज ही राज्यसभा में बहस के दौरान कांग्रेस ने याद दिलाया कि पिछड़ों को जितना आरक्षण मिलना चाहिए, उतना नहीं मिल रहा- यह भी कि सरकार ने जो ओबीसी संशोधन बिल पास कराया है, उसमें आरक्षण की बांधी हुई सीमा रेखा को पार करने का प्रावधान भी होना चाहिए था. दूसरी तरफ़ ख़ुद को पिछड़ा हितों के प्रवक्ता बताने और जताने वाले नेता और दल इसलिए जातिवार जनगणना के पक्ष में हैं. दिलचस्प यह है कि इसमें सिर्फ तेजस्वी या चिराग जैसे वे नेता नहीं हैं जो फिलहाल एनडीए से बाहर हैं, बल्कि एनडीए के भीतर मौजूद नीतीश और अनुप्रिया पटेल जैसे नेता भी हैं. उन्हें लगता है कि इससे उनकी सौदेबाज़ी की हैसियत मज़बूत होगी.
बेशक, इस बात में भी अपनी तरह का सरलीकरण है. जातिवार जनगणना होगी तो राजनीति के समीकरण अनिवार्यतः बदल जाएंगे- यह मान लेना भोलापन है, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि इससे कुछ नई जटिलताएं पैदा होंगी जो फिलहाल बहुत आसानी से बहुमत हासिल कर रही बीजेपी को कम रास आएंगी.
लेकिन क्या जातिवार जनगणना का सवाल सिर्फ राजनीतिक जोड़-घटाव, नफ़ा-नुक़सान के हिसाब से तय होना चाहिए? सच तो यह है कि जातिवार जनगणना कई दूसरी वजहों से भी ज़रूरी है. हम जिस युग में हैं, वहां सटीक सूचनाओं की अपनी अहमियत है. आज जो संविधान संशोधन बिल पास हुआ है, उसकी वजह से राज्यों को फिर से ओबीसी सूची बनाने का अधिकार मिल जाएगा. लेकिन वे किस आधार पर यह सूची बनाएंगे? 90 साल पुरानी जनगणना से हासिल आंकड़ों के आधार पर? या फिर कुछ मनमाने अनुमानों के आधार पर? उनके पास एक ठोस आंकड़ा होना चाहिए कि उनके यहां कौन सी जातियां कितनी हैं? दरअसल पूरी आरक्षण नीति को लेकर जातिवार जनगणना की बड़ी अहमियत है. इसके बिना वह अधूरी और एकांगी नीति है.
जो लोग यह चिंता जताते हैं कि जातिवार जनगणना जातिवाद को बढ़ाएगी और भारतीयता को कमज़ोर करेगी, वे दरअसल सबसे पाखंडी लोग हैं. वे देख रहे हैं कि हर तरफ़ जातिवाद मज़बूत हो रहा है. इस जातिवाद को तोड़ने के उपाय दूसरे हैं. वे अनजाने भी नहीं हैं. लोहिया से लेकर अंबेडकर तक ने इसके फ़ार्मूले दिए हैं. लोहिया कहते थे कि रोटी और बेटी का नाता जोड़ने से- यानी खान-पान और वैवाहिक संबंधों से जाति टूटेगी. खानपान की अस्पृश्यता बेशक इन दशकों में कम हुई है, लेकिन अंतरजातीय विवाह अब भी नियम नहीं हैं- वे अगर बढ़े हैं तो सवर्णों के बीच- पिछड़े सवर्ण या दलित-सवर्ण की शादी अब भी बहुत दुर्लभ सी चीज़ है. अंबेडकर तो मानते थे कि हिंदू धर्म जातियों के समुच्चय के अलावा कुछ नहीं है- जाति खत्म करनी है तो हिंदू धर्म को ही ख़त्म करना होगा. क्योंकि आप किसी जाति में हुए बिना हिंदू हो नहीं सकते.
ये लड़ाइयां हम अब कहीं पीछे छोड़ आए हैं. अब जातियां राजनीतिक लूटपाट और बाड़ेबंदी के आधारों में बदल गई हैं. जातियां जितनी मज़बूत हो रही हैं, हिंदुत्व की राजनीति भी उतनी ही मज़बूत हो रही है. यह सच है कि जातिवार जनगणना हिंदुत्व की इस राजनीति में पिछड़ा कोटा ही बढ़ाएगी- उसे गुणात्मक तौर पर नहीं बदलेगी. लेकिन फिर भी यह ज़रूरी है- अपने समाज और देश को ठीक से पहचानने के लिए ज़रूरी है. जब अमेरिका में एशियन अमेरिकन, वाइट अमेरिकन, अफ्रीकन अमेरिकन हो सकते हैं- यानी अपनी-अपनी पहचानें सुरक्षित रखते हुए भी वे अमेरिकन रह सकते हैं, जब भारत में ही तमाम जातिगत संगठन तिरंगा लेकर निकल सकते हैं और देश की रक्षा का दावा कर सकते हैं तो फिर जाति से इतना डरने की ज़रूरत क्यों है? जातियां बेशक टूटनी चाहिए, उनको बिल्कुल अप्रासंगिक हो जाना चाहिए, लेकिन अगर वे नहीं हो पा रही हैं तो उनको गिनना तो होगा ही- इससे मुंह छुपाने से जाति नहीं टूटेगी, वह एक दुर्गंध की तरह मुंह के भीतर बसी रहेगी. दरअसल हमने जाति छुपाने के पाखंड में ही अब तक इसे बचाए रखा है- इसे तोड़ने के लिए जरूरी है कि इसे पहचानें.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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