जब गांव-शहर और घर-बाहर हर जगह नौकरी की बात होती रहती है तो फिर मीडिया में नौकरी की बात क्यों नहीं होती है. विपक्ष में रहते हुए नेता बेरोज़गारी का मुद्दा उठाते हैं मगर सरकार में आकर रोज़गार के बारे में बताते ही नहीं है. यह बात हर दल और हर मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री पर लागू होती है.
चुनाव के समय के विज्ञापन देखिए, विरोधियों के विज्ञापन में नौकरी प्रमुख होगी, पललायन रोकने की बात होगी, सरकार के विज्ञापन में ये दोनों ही नहीं होते हैं. कितना पलायन रोका और कितनी नौकरियां दीं. भारत के कालेज बेरोज़गारी पैदा करने की फैक्ट्री हैं. दो तरह से. एक तो शिक्षकों के पद ख़ाली हैं, जिसके कारण शिक्षक बन सकने वाले नौजवान बेरोज़गार हैं और दूसरा जब पढ़ाने वाला ही नहीं होगा तो आपका बच्चा रोज़गार पाने के लायक ही नहीं बन पाएगा. अगर यह फोटो क्लियर है तो अब आगे बढ़ते हैं.
नौजवानों से पूछते हैं कि क्या आपको नौकरी नहीं चाहिए, आपकी चर्चाओं में नौकरी का हिस्सा कितना है और कट्टरता और धर्मांधता का हिस्सा कितना है. अगर नौजवानों को बेरोज़गारी से फर्क नहीं पड़ता है तो यह राजनीति का सबसे सुंदर समय है. नौकरी पर बात की भी जाए तो हमारे पास ठोस आधार क्या है
क्या हम धारणाओं के आधार पर नौकरी की बात करते हैं. क्या हमारे पास नौकरी को लेकर ठोस आंकड़े होते हैं. क्या रियल टाइम में काम मिलने और गिने जाने का सिस्टम हो सकता है. क्या हम सरकारी नौकरियों को गिन कर तुरंत बता सकते हैं. क्या आप जानते हैं कि 365 से 183 दिन काम मिलता है उसे ही लेबर फोर्स में गिना जाता है.
29 राज्य हैं और 7 केंद्र शासित प्रदेश. कितना समय लगेगा कि हर महीने इनके यहां निकलने वाली नौकरियों की संख्या लेकर ट्वीट करते हुए, जनता में विज्ञापन देकर बताने में. आधे घंटे से ज़्यादा का समय नहीं लगना चाहिए. हर राज्य से यह आंकड़ा आ सकता है. शिक्षक से लेकर चपरासी के लिए कितनी भर्तियां निकली हैं. रेलवे में कितनी भर्ती निकली है. इस संख्या को पता कर ट्वीट करने में रेलमंत्री पीयूष गोयल को कितना वक्त लगेगा. 10 मिनट हद से हद एक दिन. फिर हमारे मुल्क में सरकारें हर दिन अपना ही क्यों नहीं बताती हैं कि उनके तमाम विभागों में कितनी भर्तियां निकली हैं और कितने लोगों ने ज्वाइन किया है. इंडिया स्पेंड एक वेबसाइट है जो हिन्दी में भी है. इसने पिछले जुलाई में रोज़गार का आंकलन किया था.
2015-16 में बेरोज़गारी की दर 5 प्रतिशत थी जो 2013-14 में 4.9 प्रतिशत थी. इन आंकड़ों से क्या आपको ठीक ठीक अंदाज़ा होता है. मसलन कितने करोड़ बेरोज़गार रह गए. क्या आप जान पाते हैं कि जिन्हें काम मिला, उन्हें कैसा और कितने का काम मिला. इनमें से कितनी नौकरियां स्थायी हैं और कितनी दिहाड़ी प्रकृति की. हम यूनिवर्सिटी सीरीज़ की तरह नौकरियों पर सीरीज़ करना चाहते हैं. हमारे पास संसाधन की कमी है. अगर आप नौजवान जो दिन भर कोचिंग सेंटर में खपे रहते हैं अपने अनुभव ठीक-ठीक बताएंगे तो अच्छा रहेगा.
2014 के चुनावों में वादा किया गया था कि दो करोड़ रोज़गार हर साल पैदा करेंगे. मगर केंद्रीय श्रम मंत्रालय का कोई भी आंकड़ा 10 लाख भी नहीं पहुंचता दिखता है. राज्यों में भी तो श्रम मंत्रालय होंगे, वो क्यों नहीं अपने यहां का आंकड़ा जारी करते हैं. श्रम मंत्रालय का सर्वे हो या आर्थिक सर्वे सबमें रोज़गार की रफ्तार सुस्त होती दिख रही है. अक्सर रोज़गार के जो भी सर्वे आते हैं वो मुख्य रूप से 8 सेक्टरों के होते हैं. मैन्यूफैक्चरिंग, व्यापार, निमार्ण, शिक्षा, स्वास्थ्य, सूचना, टेक्नालजी, ट्रांसपोर्ट, होटल, रेस्त्रां वगैरह. जुलाई 2014 से दिसंबर 2016 के बीच मात्र 6, 41, 0000 नौकरियां इन सेक्टरों में दी गईं. जुलाई 2011 से दिसंबर 2013 के बीच 12.8 लाख नौकरियां इन सेक्टरों में दी गई थीं. 12 लाख से घटकर हम साढ़े छह लाख पर आ गए हैं. ये श्रम मंत्रालय के सर्वे का ही आंकड़ा हैं जिसे इंडियास्पेंड.कॉम ने छापा है.
आम तौर पर ऐसे सर्वे में उन्हीं फैक्ट्रियों को शामिल किया जाता है जहां दस या दस से अधिक लोग काम करते हैं. मगर ज़्यादातर लोग इससे भी कम के समूह में काम करते हैं. क्या उनकी कोई गिनती होती है. क्या उनकी संख्या से हमें रोज़गार के बारे में कोई सही तस्वीर मिलती है. परमानेंट नौकरियां कम होती जा रही हैं. कैजुअल और कांट्रैक्ट की नौकरियां बढ़ने लगी हैं. जहां मज़दूरी या पगार कम होता है, सामाजिक सुरक्षा बिल्कुल नहीं होती है. इंडिआ स्पेंड ने श्रम मंत्रालय के तिमाही सर्वे, Prime Ministers Employment Generation Programme (PMEGP) का मिलाकर आठ सेक्टरों का डेटा देखा है तो 2014 के बाद तीन साल में करीब 15 लाख रोज़गार पैदा हुआ है. जबकि इसके पहले के तीन साल में करीब 25 लाख रोज़गार पैदा हुआ था. सेंटर फॉर मोनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) के महेश व्यास रोज़गार पर लगातार लिखते हैं और इनकी कंपनी रोज़गार को लेकर सर्वे भी कराती रहती है. महेश व्यास ने बिजनेस स्टैंडर्ड में कुछ दिन पहले लिखा कि सितंबर 2017 से लेकर दिसंबर 2017 के बीच सर्वे किया है. इसके नतीजे बता रहे हैं कि रोज़गार घटता जा रहा है. इन्होंने 4 लाख 36 हज़ार लोगों से सवाल किए हैं जो 15 साल से अधिक के हैं और लेबर फोर्स का हिस्सा हैं.
इस सर्वे का यह नतीजा है कि सितंबर 2017 से दिसंबर 2017 के बीच करीब 6 लाख रोज़गार पैदा हुआ है. मई से अगस्त 2017 की तुलना में इस लिहाज़ से थोड़ी वृद्धि दिखती है. मगर सितंबर से दिसंबर खेती का मौसम होता है तो काम मिलना बढ़ जाता है. अगर हम मौसम के असर को माइनस कर दें तो रोज़गार बहुत ज़्यादा घट जाता है. सितंबर से दिसंबर 2016 की तुलना में करीब साढ़े दस लाख कम हो जाता है. जहां रोज़गार बढ़ता भी तो किसी आंकड़ें में छह से सात लाख ही दिखता है, लेकिन दस लाख घट जाए तो इसका क्या मतलब है. इसे नोटबंदी का लाभ देखा जाए या जीएसटी का मुनाफा समझा जाए.
ऐसा क्या हुआ कि इस दौरान इतनी नौकरियां चली गईं. पूरे साल भर में इतनी नौकरियां कैसे चली गईं. लोगों को काम मिलने की उम्मीद कम होती है तो लोग लेबर मार्केट में आना बंद कर देते हैं. 2017 में 2 करोड़ लोग काम खोज रहे थे. शहरी भारत में 41 प्रतिशत लोग बेरोज़गार हैं. निवेश के घटने से रोज़गार में कमी देखी जा रही है. कोलंबिया यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया ने 16 जनवरी के इकोनोमिक टाइम्स में एक लेख लिखा है. अरविंद पनगढ़िया ने रिलायंस इंडस्ट्री और शाही एक्सपोर्ट के एसेट और रोज़गार की तुलना की है.
रिलायंस इंडस्ट्री का एसेट 7 लाख 15 हज़ार करोड़ रुपये है और कर्मचारियों की संख्या ढाई लाख है. शाही एक्सपोर्ट का एसेट 1203 करोड़ रुपये है जो कि रिलायंस से काफ़ी कम है, लेकिन कर्मचारियों की संख्या है 1 लाख 60 हज़ार. रिलायंस इंडस्ट्री के बारे में आप काफी कुछ जानते हैं, शाही एक्सपोर्ट के बारे में शायद न जानते हों. अगर प्रति 143 करोड़ रुपये पर रिलायंस जहां पांच लोगों को नौकरी देती है वहीं शाही एक्सपोर्ट प्रति 143 करोड़ के एसेट पर 1,260 लोगों को नौकरी देती है. यानी रिलायंस के मुक़ाबले 252 गुना ज़्यादा.
अरविंद पनगढ़िया का कहना है कि शाही एक्सपोर्ट पांचवी पास लोगों को लेती है. छह हफ्ते की ट्रेनिंग देकर औसतन 15000 रुपये प्रति माह पगार देती है. 60 फीसदी महिलाएं हैं. फिर भारत ने इस सेक्टर में आज तक अच्छा क्यों नहीं किया. क्यों भारत इस कपड़ा सेक्टर में आगे नहीं है. लेकिन अरविंद पनगढ़िया इस सेक्टर में हो रहे आटोमेसन की बात नहीं करते हैं जिसके कारण अब कम लोगों की ज़रूरत होने लगी है. जो भी रोज़गार से संबंधित इन जानकारियों को पढ़ना चाहिए, जानते रहना चाहिए. भारत में रोज़गार कैसे बढ़ेगा, क्यों रोज़गार नहीं बढ़ रहा है और इसके बढ़ने या नहीं बढ़ने का जो सिस्टम है क्या वो दुरुस्त है, भरोसेमंद है. क्या हम काम की दुनिया के बारे में ठीक से जान पाते हैं.
This Article is From Jan 16, 2018
एक करोड़ नौकरियों का वादा कहां गया? रवीश कुमार के साथ प्राइम टाइम
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:फ़रवरी 03, 2018 11:36 am IST
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Published On जनवरी 16, 2018 21:25 pm IST
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Last Updated On फ़रवरी 03, 2018 11:36 am IST
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