गिद्ध! इनका महत्व क्या है? गिद्ध यानी उड़ने वाले कुदरती सफाईकर्ता; गिद्ध मरे हुए पशुओं को खाते हैं. इनसे ही उनका जीवन चलता है. कुदरत ने उन्हें यही जिम्मेदारी दी है. यदि गिद्ध न हों, तो पशुओं के शवों का क्या होगा? शव सड़ेंगे. उनमें विषाणु-कीटाणु जन्म लेंगे. बीमारियों का विस्तार होगा. दुनिया में सबसे तेजी से खत्म होने वाली यदि कोई प्रजाति है, तो वह है गिद्ध! बहरहाल हमें बचपन से ही “गिद्धों” के प्रति एक नकारात्मक नजरिया दिया जाता है. उन्हें भी ठीक उसी नजर से देखा जाता है, जैसे हमारे समाज में मानव मल ढोने वालों को देखा जाता है, जबकि सच यह है कि गंदगी की सफाई का काम अस्तित्व को बचाने के काम से जुड़ा है. हम यानी इंसान तभी जिन्दा रह सकते हैं, जब मानवों और जानवरों के शवों का सही तरह से निपटान हो.
मैं गिद्ध के बारे में क्यों बात कर रहा हूं? रामायण के कथानक में एक स्थान पर “जटायु” का जिक्र आता है. जटायु यानी एक गिद्ध, जिसमें आकाश मार्ग से सीताहरण के दौरान रावण से टक्कर ली. जटायु के भाई सम्पाती की भूमिका थी कि वह आसमान में उड़कर बड़े इलाके की जानकारी और रास्तों का अंदाजा राम और उनकी सेना को देता था, ताकि सीता को खोजा जा सके. उत्तर में तिब्बती संस्कृति में इन्हें आकाशीय अंत्येष्टि या अंतिम संस्कार के स्रोत के रूप में सम्मान दिया जाता है, तो जोरोस्ट्रियन पारसी समाज में शव को मौन के स्तंभ (टावर आफ सायलेन्स) पर रख दिया जाता है, जहां गिद्ध उन शवों को चुग लिया करते रहे हैं. बीस-पच्चीस साल पहले तक दिल्ली के बाग बगीचों में भी गिद्ध दिखाई देते थे.
हमारे यहां मुख्य रूप से लाल सिर (रेड हेडेड), पीला चोंच (येलो बीक्ड) और काली चोंच (ब्लेक बीक्ड), हिमालयन गिद्ध, इजिप्शियन गिद्ध पाए जाते रहे हैं. भारत में गिद्धों के जीवन पर संकट लाने में हमारे नासमझ व्यवहारों की मुख्य भूमिका रही है. भारत में जानवरों (पशुधन) को जोड़ों की सूजन, बुखार और दर्द से निजात दिलाने के लिए “डायक्लोफेनेक” तत्व वाली दवा का इस्तेमाल किया जाता रहा. यदि इस दवा को खाने के बाद किसी गाय की मृत्य हो जाती है और उसे गिद्ध अपना भोजन बनाते हैं यानी खाते हैं, तो इससे गिद्ध की किडनी (गुर्दा) काम करना बंद कर देता है, उनकी आंतों में यूरिक अम्ल का जमाव हो जाता है और गिद्ध की भी मौत हो जाती है. वैज्ञानिक बताते हैं कि यदि एक प्रतिशत गायों, भैंसों और बैलों में भी डायक्लोफेनेक पाया जाता है, तो ही गिद्धों का अस्तित्व खत्म हो जाएगा; भारत में तो दस प्रतिशत पशुओं में यह दवा पाई गई.
यह स्थिति केवल गिद्धों के लिए ही विनाशकारी नहीं रही, कुछ अन्य पक्षी भी इस तरह के शवों और घातक हो जाने वाले कचरे के निपटान के लिए महत्वपूर्ण स्रोत बने क्योंकि कुदरत के द्वारा उनकी दांतदार चोंच और पेट में पाया जाने वाला अम्ल कई गंभीर रोग पैदा कर सकने वाले कीटाणुओं को खत्म करने में सक्षम बनाया गया. मरे हुए जानवरों के शव का जब निपटान नहीं हो पाता है, तब वहां कई तरह के रोगजनक कीटाणु पैदा हो जाते हैं. गिद्ध किसी भी जानवर के शव को विषाणु-कीटाणु पैदा होने से पहले खत्म कर देते हैं.
गिद्धों और इन पक्षियों के अभाव में भारत में पशुओं (खास तौर पर गायों, बैलों और भैंसों) के शव का कुदरती निपटान नहीं हो पा रहा है. कई जगहों पर इन शवों को सड़ते हुए देखा जा सकता है. यह जैविकीय सफाई की व्यवस्था का आधार हैं, किन्तु कीटनाशकों और डायक्लोफेनेक दवा के बेतरतीब इस्तेमाल ने गिद्धों के अस्तित्व को खात्मे की कगार पर ला खड़ा किया. इसका परिणाम यह हो रहा है कि अब चूहों और जंगली कुत्तों की संख्या में वृद्धि हो रही है, जो रैबीज नामक घातक बीमारी को बढ़ा रहे हैं. यही कारण है कि भारत में रैबीज के कारण होने वाली मौतों में भारी वृद्धि हुई है.
बहरहाल जब गिद्धों के खात्मे का सर दिखने लगा, तब भारत में जानवरों के उपचार के लिए डायक्लोफेनेक दवा के इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई. लेकिन तब मानवीय उपयोग के लिए बड़ी और ज्यादा खुराक वाली यही दवा (जिसका उपयोग मांसपेशियों और जोड़ों के दर्द के लिए खूब किया जाता है) बाजार में उपलब्ध रही. तब लोगों ने बड़ी खुराक वाली इस दवा का उपयोग जानवरों के उपचार के लिए करना शुरू कर दिया. आखिर में वर्ष 2015 में मानवीय उपयोग के लिए भी इसकी एक बार की खुराक के बराबर की दवा की अनुमति दी गई. एक से ज्यादा खुराक की डायक्लोफेनेक की उपलब्धता पर बंदिश लगा दी गई.
गिद्धों को पुनर्जीवन देना बहुत कठिन काम है. गिद्ध जब 6 साल के हो जाते हैं, तब वह प्रजनन करते हैं. इनमें से भी आधे यानी 50 फीसदी ही बच पाते हैं. इन्हें प्रजनन केन्द्र में रखकर नहीं बचाया जा सकता है. इन्हें बचाने के लिए इनका प्राकृतिक रहवास और कुदरती दुनिया का माहौल दिया जाना जरूरी है.
भारत में वे जहरीली दवा के उपयोग के कारण मर रहे हैं और अफ्रीकी देशों में गिद्धों को मारा जा रहा है शिकारियों द्वारा. गिद्धों की संख्या कम होने का मतलब है जंगली कुत्तों की संख्या में बढ़ोतरी होना. जब किसी पशु की मृत्यु होती है, तब गिद्धों की संख्या जंगली कुत्तों को शव से दूर रखती थी. लेकिन अब जंगली कुत्तों के लिए माकूल वक्त है. जंगली कुत्तों की संख्या में इस तरह की वृद्धि मानवों और जानवरों, दोनों के लिए घातक है क्योंकि गिद्ध मरे हुए जानवरों का निपटान करता है, जबकि जंगली कुत्ते जानवर की हत्या करके खाते हैं.
बहरहाल मध्यप्रदेश के पन्ना टाइगर रिज़र्व (542.67 किलोमीटर) में एक बड़े हिस्से में भारतीय गिद्ध प्रजातियों और मौसमी गिद्धों को बचाने की कोशिशें हुई हैं. यहां ऊपरी तलगांव पठार, मध्य में हिनौता पठार और केन घाटी की संरचना गिद्धों के आवास के लिए बहुत माकूल है. यहां के धुंधुआ सेहा क्षेत्र में इनकी शादार दुनिया को देखा जा सकता है. यहां लांग बिल्ड गिद्ध की संख्या सबसे ज्यादा है. इस साल मध्यप्रदेश में मई 2016 में 7000 से ज्यादा गिद्धों की गणना की गई. इनमें से सबसे ज्यादा पन्ना रिज़र्व में (793) गिने गए.
वास्तव में गिद्धों के संरक्षण की कोई योजना सफल नहीं हो सकती, यदि हम अपने व्यवहार और विकास की योजना को नहीं बदलते. कभी गिद्धों के घौंसले देखिए, उनके प्रति नजरिया बदलकर देखिए. यह कुदरत और इंसानी समाज की सुरक्षा में आपका योगदान होगा.
सचिन जैन, शोधार्थी-लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
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