पुलवामा हमले के बाद सोशल मीडिया में फेक न्यूज और आपत्तिजनक मैसेजों की बाढ़ सी आ गई है. पड़ोसी राज्य नेपाल में सोशल मीडिया पर सरकार विरोधी पोस्ट डालने या टिप्पणी करने वालों पर 15 लाख का जुर्माना और/या 5 साल की सजा के प्रावधान वाला बिल संसद में पेश किया गया है. भारत में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66-A के तहत सोशल मीडिया साइटों पर आपत्तिजनक और अश्लील सामग्री पोस्ट करने वाले के लिए तीन साल तक की जेल की सजा का प्रावधान था. श्रेया सिंघल मामले में सन 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने आईटी एक्ट की धारा 66-A को गैर-संवैधानिक बताते हुए उसे निरस्त कर दिया था. पीयूसीएल नामक संगठन ने पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगाकर बताया था कि निरस्त होने के बावजूद धारा 66-A के तहत देशभर में अनेक गिरफ्तारियां और मामले चल रहे हैं.
सुप्रीम कोर्ट के जज नरीमन की बेंच ने सख्त नाराजगी जताते हुए केन्द्र सरकार सहित अन्य प्रतिवादियों को नोटिस जारी किया था. सुनवाई के बाद यह मामला तो अब खत्म हो गया है, पर इसके बाद अनेक सवाल खड़े हो गए हैं-
66-A निरस्त होने के बावजूद गिरफ्तारियां क्यों?
66-A को निरस्त करने का फैसला ऐतिहासिक और स्वागत योग्य था. असल सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा 66-A निरस्त किए जाने के बावजूद आपत्तिजनक पोस्टों पर गिरफ्तारियों की संख्या क्यों बढ़ती जा रही है. 66-A दरअसल भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की मिरर इमेज है. नफरत, घृणा, हिंसा, साम्प्रदायिकता, अराजकता, देशद्रोह, अश्लीलता जैसे अपराधों के लिए आईपीसी में अनेक कानूनी प्रावधान हैं, जिनका अब सोशल मीडिया मामलों में भी पुलिस द्वारा इस्तेमाल किया जाने लगा है. मजिस्ट्रेट की अनुमति के बगैर गिरफ्तारी करने के लिए राजनेताओं के इशारों पर पुलिस द्वारा कठोर कानूनों के तहत एफआईआर दर्ज करने का रिवाज सभी राज्यों में बढ़ रहा है. गिरफ्तारी से बचाव और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट ने अनेक फैसले दिए हैं, जिन पर शायद ही अमल होता हो. इसी तर्ज पर 66-A पर 4 साल पुराने फैसले को राज्यों द्वारा दरकिनार किया जा रहा है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा सख्त कार्यवाही नहीं किए जाने से लोगों में निराशा है.
दोषियों के खिलाफ कार्यवाही क्यों नहीं?
सुप्रीम कोर्ट द्वारा 66-A निरस्त करने के बावजूद पुलिस और अदालतों द्वारा इस कानून का दुरुपयोग हैरतअंगेज है. पीयूसीएल द्वारा दायर अर्जी में इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन के वर्किंग पेपर का जिक्र था जिसके अनुसार 66-A अभी तक खत्म नहीं हुआ है. सुप्रीम कोर्ट के सामने पेश अर्जी में पुलिस और अदालतों के 45 मामलों का विवरण दिया गया था, जिनमें 66-A के प्रावधानों का दुरुपयोग हुआ था. अर्जी में झारखंड, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, पटना, बॉम्बे, गुजरात और केरल हाईकोर्ट के मामलों का जिक्र किया गया था, तो फिर पुलिस के मामलों पर कौन बहस करे? जनवरी में सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के जजों ने दोषी अधिकारी और जजों के खिलाफ सख्त कार्यवाही की बात कही थी, लेकिन मौखिक आदेश में उसका अनुपालन क्यों नहीं हुआ? सुप्रीम कोर्ट द्वारा दोषी लोगों को जांच के बाद दंडित किए जाने से, भविष्य में ऐसे मामलों की पुनरावृत्ति पर सख्त लगाम लगती.
सभी राज्यों का पक्ष सुने बगैर सुप्रीम कोर्ट का फैसला क्यों?
संविधान के अनुसार कानून और व्यवस्था का मसला राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में है, इसलिए 66-A के तहत अधिकांश गिरफ्तारियां भी राज्यों की पुलिस द्वारा हो रही थीं. सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई की तय प्रक्रिया के अनुसार ऐसे मामलों में राज्यों का पक्ष भी सुना जाना चाहिए. अखबारों में सरकारी विज्ञापन के अन्य मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों का पक्ष नहीं सुना था, जिस वजह से उस आदेश में बदलाव करना पड़ा था. 66-A मामले में सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार के साथ पश्चिम बंगाल सरकार का ही पक्ष सुना, इसलिए यह गफलत हो रही है. राज्यों की सरकार या पुलिस को औपचारिक तौर पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश की तामील नहीं हुई थी, इसलिए अब चार साल बाद उन्हें आदेश की प्रति भेजे जाने का क्या तुक है?
सरकार और संसद द्वारा कानूनों में बदलाव क्यों नहीं?
संविधान के अनुच्छेद 141के तहत 66-A जैसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट का आदेश देश का कानून माना जाता है. संवैधानिक प्रक्रिया के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के अनुसार आईटी एक्ट से 66-A को निकालने या रिपील करने की जिम्मेदारी संसद की है, जिसे पूरा करने में सरकार विफल रही. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से सिस्टम ठीक करवाने के बजाए, पुराने आदेश की कापी राज्यों और जिला में भेजने का नया निर्देश दे दिया है. सवाल यह है कि फाइलों के ढेर में सुप्रीम कोर्ट के आदेश को कौन ढूंढेगा? सुप्रीम कोर्ट द्वारा तीन तलाक के मामले में फैसले के बाद सरकार ने कानूनों में बदलाव किया, परन्तु ऐसा सभी मामलों में क्यों नहीं होता है? आईटी एक्ट से यदि 66-A को निकाल दिया जाए तो फिर देश में सभी सरकारें, पुलिस और जज इसका दुरुपयोग नहीं कर सकेंगे. अधिकारी, सांसद और जज संविधान की शपथ लेकर व्यवस्था को लीड करते हैं, परन्तु 66-A जैसे मामलों में उनकी विफलता देश के सिस्टम की बदहाली को ही दर्शाती है.
विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं...
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