साल 2008, जम्मू-कश्मीर में विधानसभा के चुनाव हो रहे थे. दिसंबर का महीना था. उन दिनों मैं बीबीसी में था. मतदान के दिन सुबह के रेडियो प्रसारण के लिए 'लाइव' करना था. होटल से निकला और पास के एक मतदान केंद्र की ओर चल पड़ा. दो किलोमीटर का फ़ासला तय करना था. पैदल ही, क्योंकि वाहन ले जाने की अनुमति नहीं थी. हर 10 मीटर बाद सेना के दो जवान हथियार लिए खड़े थे. इंसास या फिर एके-47 लिए, एक सड़क के दाईं ओर और एक बाईं ओर. मीडिया का पास गले में लटका हुआ था. हाथ में माइक, रिकॉर्डर और कैमरा था. लेकिन मन आश्वस्त नहीं था. एक अजीब सा डर मन में था.
चुनाव लोकतंत्र का उत्सव होते हैं. वो नागरिकों के हाथों में एक ऐसा अधिकार देते हैं जिसकी ताक़त किसी भी हथियार से अधिक होती है - वोट की ताक़त. लेकिन पता नहीं क्यों यहां उत्सव पर संगीनों का साया भारी दिखाई दे रहा था. मेरे साथियों ने बताया था कि इससे पहले के चुनाव तो और भी भयावह थे लेकिन इससे मन का डर कम नहीं हुआ. रेडियो पर प्रसारण शुरू हुआ. स्टूडियो में बैठे मेरे साथी का पहला सवाल था, कैसा माहौल है? और मुझे फ़ैज की इन पंक्तियों के अलावा कुछ याद नहीं आया,
"निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन कि जहां
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहनेवाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जां बचा के चले"
बाद में बीबीसी के श्रीनगर संवाददाता अल्ताफ़ हुसैन ने कहा, आप दिल्ली से आए हो, फ़ैज़ को पढ़ सकते हो. हम कश्मीरी ऐसा नहीं कर सकते. वह एक जुदा बहस है. लेकिन एक सवाल मन में बहुत दिनों तक बसा रहा कि सेना के जवान तो संगीन मेरी रक्षा के लिए खड़े हुए थे, फिर डर कैसा? फ़ौज के कई अफ़सरों से बात हुई, पुलिस के अधिकारियों से बात हुई तब इसका सिरा समझ में आया.
सेना आखिरकार सेना होती है. उसका गठन ही दुश्मनों से निपटने के लिए किया जाता है. सेना के लोग बता सकते हैं कि भर्ती के साथ ही उनको ट्रेनिंग दुश्मन को ख़त्म करने की दी जाती है. उसकी धाक ही इस बात से जमती है कि दुश्मन उससे कितना डरता है. आप याद करें कि जब शहरी इलाक़ों में गड़बड़ी के हालात हों और पुलिस से बात न संभल रही हो तो सेना को बुलाया जाता है. सेना शहरी सड़कों पर मार्च करती है और दंगा शांत होने लगता है. सिर्फ़ सेना का मार्च दंगाइयों को डरा देता है. पुलिस नागरिकों के बीच रहकर, उनसे दोस्ताना संबंध बनाकर रखते हुए काम करने के लिए तैनात की जाती है. पुलिस का जवान डराता नहीं है. आश्वास्त करता है. सेना देश की रक्षा का आश्वासन तो देती है लेकिन वह नागरिकों को व्यक्तिगत रूप से कोई आश्वासन नहीं देती.
भारत सरकार की ओर से यह कभी स्पष्ट नहीं किया जाता कि कश्मीर में कितनी सेना तैनात है. वर्ष 2007 का एक आंकड़ा इंटरनेट पर एक अधिकारी के हवाले से मिलता है. तब 3.37 लाख जवान वहां तैनात थे. आज अनुमान पांच लाख का है. इसके अलावा अर्द्धसैनिक बल और फिर जम्मू-कश्मीर पुलिस. आंकड़े बताते हैं कि पूर्वोत्तर राज्यों के बाद प्रति एक लाख आबादी पुलिसकर्मियों की संख्या सबसे ज्यादा जम्मू-कश्मीर में ही है. दो साल पुराना आंकड़ा कहता है 646. जबकि तब भारतीय औसत था 106.
कश्मीर और उत्तर पूर्वी राज्यों के हालात देखकर बार बार मन में यह सवाल आता है कि क्या सेना की तैनाती सही विकल्प है? उत्तरी आयरलैंड से लेकर वियतनाम तक और इराक़ से लेकर अफ़ग़ानिस्तान तक हर जगह सेना की भारी भरकम मौजूदगी का एक सबक है. लेकिन दुर्भाग्य से हमने अब तक कोई सबक नहीं सीखा.
हर कोई सवाल पूछता है कि कश्मीर की समस्या का क्या हल है? क्यों पाकिस्तान चुप नहीं रहता? क्यों कश्मीरी युवा बात बात पर तुनक जाते हैं आदि आदि. ऐसे दर्जनों सवाल हैं और उस पर सैकड़ों तर्क वितर्क हैं. बिना कश्मीर जाए, बिना हालात समझे लोग - 'दूध मांगोगे तो खीर देंगे' जैसा नारा लगवाते और लगाते हैं. बिना समझ के हल सुझाते हैं. लेकिन एक सवाल कोई नहीं पूछता, उन सैन्यकर्मियों और अर्द्धसैनिक बल कर्मियों का क्या जो वहां तैनात हैं?
कभी सोचना चाहिए कि एक सैनिक कश्मीर में किस तरह की विपरीत परिस्थितियों में रहता है. उसे ट्रेनिंग मिली है दुश्मन को ख़त्म करने की, लेकिन जहां वह तैनात है वहां तय नहीं हो पाता कि दुश्मन कौन है. जहां आबादी का बहुसंख्य कहता है कि हमें आज़ादी चाहिए वहां सेना को ख़ुद को समझाना पड़ता है कि ये आज़ादी मांग रहे लोग दुश्मन नहीं हैं. वहां अक्सर लोग भारत को 'आपका हिंदुस्तान' कहते मिल जाते हैं लेकिन सैनिक को निर्देश हैं कि वह उन्हें भी हिंदुस्तानी माने. उसकी ट्रेनिंग है कि वह नागरिकों से दूर रहे लेकिन कश्मीर में सेना से उम्मीद है कि वह लोगों से दोस्ती करे, उनके साथ क्रिकेट खेले, त्यौहार मनाए. जिसे सेना की ट्रेनिंग दुश्मन मानती है वह हो सकता है कि स्थानीय आबादी के लिए 'हीरो' की तरह उभर जाए. जिसे शेष भारत अलगाववादी (यानी एक तरह का दुश्मन) मानता है उसे कश्मीरी आबादी अपना लड़ाका मानती है, तो फिर सेना उसे क्या माने? यह कहना सुनना बुरा लगता है लेकिन सच है कि सेना की ट्रेनिंग उन्हें मानवीय बनाने के लिए नहीं अमानवीय बनाने के लिए होती है. फिर उससे आप मानवीय होने की उम्मीद रखते हुए कश्मीर में तैनात कर देते हैं.
यही हालात अर्द्धसैनिक बलों के जवानों का है. 2008 के दौरान ही कुछ अर्द्धसैनिक बलों के जवानों से लंबी चर्चा हुई. ऑफ़ द रिकॉर्ड. बिहार, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ के उन जवानों ने कहा कि यह सबसे कठिन काम है कि आप कश्मीर में तैनात हैं. यहां हालात एकाएक किस तरह बदल जाते हैं कहना मुश्किल है. उन्होंने बताया कि शेष भारत में ऐसे हालात हों तो कुछ और कार्रवाई होती है लेकिन कश्मीर में कुछ और. हमारी बातचीत के बीच ही कुछ दूर एकाएक फ़ायरिंग होने लगी. दो राजनीतिक दलों के लोग भिड़ गए और उनमें से दो युवकों ने जवानों से एके-47 छीनी और हवाई फायरिंग करने लगे. मुझे जवानों ने एक गली में छिपा दिया. जब गोलीबारी रुकी तो उन्होंने मुझे बाहर निकाला और कहा, "और हमें कहा गया है कि हम किसी भी हालात में गोली न चलाएं. अभी तो लड़कों ने हवा में गोली चलाई. हमारी ही बंदूक छीनकर. जब वे हम पर गोली चलाने लगते हैं तब बात बिगड़ती है. हमें भी तो जान बचानी होती है."
आंकड़े बताते हैं कि कश्मीर में सिर्फ़ आतंकवादी या कश्मीरी नागरिक ही नहीं मारे जाते, जवान भी अच्छी खासी संख्या में मारे जाते हैं. वर्ष 2013 का एक आंकड़ा इंटरनेट पर मिला. 20 नागरिक मारे गए, 61 सुरक्षाबल सैनिक और 100 आतंकवादी. इसका मतलब भी साफ़ है कि जवानों की जान हर वक़्त हथेली पर होती है. इस तनाव का क्या करें कि देश में युद्ध भी नहीं हो रहा और जवान शहीद हुए जा रहे हैं. अगर मान भी लें कि यह एक युद्ध है तो यह ख़त्म होता भी नहीं दिख रहा है. राजनीति इतनी है कि हालात एक बार सुधरते दिखें तो फिर राजनीति उसे ख़राब कर देती है.
कश्मीर के अलग-अलग इलाक़ों में रहकर ही समझ में आ सकता है कि सेना के लिए वहां हर वक़्त तैनात रहना कितना कठिन है. ख़ासकर उन सैनिकों और अर्द्धसैनिकों के लिए जो देश के दूसरे हिस्सों से आए हैं. मौसम ही दुश्मन की तरह लगता रहता है. और फिर दूसरी दुश्वारियां. जैसे कि हर आम मनुष्य की तरह ही सैनिकों की भी शारीरिक ज़रूरतें होती हैं. उन्हें भी सेक्स चाहिए होता है. जिस कश्मीर में वे तैनात हैं वहां वेश्यालय नहीं हैं. कोई रेड लाइट एरिया नहीं है. महीनों महीनों छुट्टियां नहीं हैं. तो फिर वे क्या करें?
इसका अर्थ ये कतई नहीं कि वे गांवों में जाकर बलात्कार करने लगें. वे किसी को भी दुश्मन बताकर मार दें और अपनी जवाबदेही से बच जाएं. श्रीनगर के आसपास मिली कब्रगाहें चुगली करती हैं कि 90 के दशक के बुरे वक़्त में सेना ने क्या क्या किया है. भारतीय सेना का मानवाधिकार रिकॉर्ड न पूर्वोत्तर राज्यों में अच्छा है और न कश्मीर में. लेकिन जिन परिस्थितियों में भारत सरकार ने उन्हें ठेल रखा है वह भी मानवाधिकार का कम हनन नहीं करती.
-विनोद वर्मा वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं।
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This Article is From Jul 13, 2016
...और उन लाखों जवानों का क्या जो कश्मीर में तैनात हैं?
Vinod Verma
- ब्लॉग,
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Updated:जुलाई 13, 2016 13:11 pm IST
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Published On जुलाई 13, 2016 13:10 pm IST
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Last Updated On जुलाई 13, 2016 13:11 pm IST
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