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This Article is From Dec 11, 2015

डॉ विजय अग्रवाल : यदि सलमान खान नहीं तो फिर 'वह' कौन था?

written by Dr. vijay agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 11, 2015 18:31 pm IST
    • Published On दिसंबर 11, 2015 17:59 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 11, 2015 18:31 pm IST
50वें जन्मदिन के सत्रह दिन पहले मिला यह तोहफा निश्चित ही 27 दिसंबर की तारीख को सलमान और उनके चहेतों के लिए खुशनुमा बनाने जा रहा है। 'हिट एंड रन' केस में पिछले 13 सालों से उलझे हुए अब्दुल रशीद सलीम सलमान खान को मुम्बई हाईकोर्ट ने मानसिक सुकून मुहैया कराया है।

सलमान ही नहीं, बल्कि उनके करोड़ों चहेतों को भी, और उन्हें भी, जिनके करोड़ों रुपए सलमान पर लगे हुए हैं। लेकिन क्या ऐसा ही सुकून उस परिवार के लोग भी महसूस कर रहे होंगे, जिनका कमाऊ बेटा-पति-बाप रात के करीब दो बजे किसी एक बड़ी-सी कार के नीचे दबकर मारा गया था और पांच लोग बुरी तरह घायल हो गए थे। जाहिर है कि कानून का काम तो पूरा हो गया है। लेकिन जिंदगी का काम पूरा नहीं हुआ है। आज कोई उस शख्स का नाम तक नहीं जानता, जो मारा गया था। आज कोई उस शख्स का नाम भी नहीं जानता, जिसने मारा था। तो शाहरुख खान के लफ्ज़ों को उधार लेकर फिलहाल यह कहना पड़ रहा है कि 'फिल्म अभी जारी है, मेरे दोस्त।' काश स्क्रीन पर 'लार्जर देन लाइफ' की छवि को पेश करके लोगों के दिल और दिमाग पर जबर्दस्त कब्जा करने वाले हमारे सुपरमैन असल जिन्दगी में उसका थोड़ा-सा करिश्मा तो दिखा पाते।

'फुटपाथ सोने के लिए नहीं होते', एक अरबपति के तथाकथित अपराधी बेटे को बचाने के लिए उनका वकील जब अपनी यह तीखी दलील पेश करता है, तो सुनने वाले लोग उसकी इस बुद्धिमत्ता पर दंग रह जाते हैं। लेकिन जैसे ही उनका विरोधी वकील उसकी काट में अपनी यह दलील पेश करता है कि 'फुटपाथ गाड़ी चलाने के लिए भी नहीं होते, मी लार्ड',  वैसे ही थिएटर तालियों की गूंज से झनझना उठता है। लोग राहत की सांस लेते हैं और अन्त में अपराधी को सजा मिल ही जाती है। जैसा कि अक्सर हिन्दी फिल्मों में होता है, इसमें भी हुआ, क्योंकि यहां भी एक हिन्दी फिल्म की ही बात हो रही है।

सन् 2013 में आई फिल्म 'जॉली एल.एल.बी.' की, जो कहा जाता है कि एक उद्योगपति के बेटे के 'हिट एंड रन' की सच्ची घटना पर आधारित थी। काश! कि हमारी असल जिन्दगियों की भी कहानियों का अंत कुछ ऐसा ही हो पाता। इस बारे में इसी संदर्भ में हम कुछ ही महीने पहले आई फिल्म 'जज्‍बा' को याद कर सकते हैं कि सच में क्या होता है तथा सपनों में क्या होता है।

आज से लगभग 2400 साल पहले यूनान के दार्शनिक सुकरात को जिस धार्मिक न्यायालय ने 'धर्मद्रोही' ठहराकर विषपान की सजा दी थी, वह सजा जनता द्वारा चुने गए 500 लोगों के द्वारा दिए गए बहुमत पर आधारित थी। यदि आज स्वयं जनता को इस 'हिट एंड रन' के मामले में फैसला करने का अधिकार दे दिया जाए, तो निसंदेह सलमान खान बहुत अधिक बहुमत से बरी हो जाएंगे। लेकिन मत देने वाले इन्हीं लोगों के दिमाग में यह सवाल तो हमेशा बना ही रहेगा कि 'यदि सलमान नहीं, तो फिर 'वह' कौन था? कोई तो था, क्योंकि जो आदमी मरा था, वह आदमी ही था। सच का आदमी।' आदमी के इस सच को बचाना और सच के आदमी को बचाना आज के समय की सबसे बड़ी चुनौती है-न्यायालय के सामने भी और समाज के सामने भी।

डॉ. विजय अग्रवाल जीवन प्रबंधन विशेषज्ञ हैं...

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