कांधार कांसुलेट से भारतीयों की वापसी, अफगानिस्तान में पाकिस्तान का खेल

तालिबान को रोकना पाकिस्तान के बूते में ही नहीं है, आईएसआई ने कुछ ताक़तों के साथ मिल कर जो जिन्न पैदा किया था, जिसके पीछे सीआईए का अपरोक्ष सहयोग भी बताया जाता रहा है, वो अब बोलत में वापस जाने से रहा.

भारत ने कांधार से अपने तमाम राजनयिकों और कर्मचारियों को वापस बुला लिया है. विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने जो बयान जारी किया है उसमें कहा गया है कि भारत ने अपना कांसुलेट बंद नहीं किया है. कांधार शहर के आसपास जिस तरह से भारी लड़ाई चल रही है उसके मद्देनज़र भारतीयों की वापसी कराई गई है. भारतीय कर्मियों की की सुरक्षा पहली प्राथमिकता है. ये भी कहा गया है कि कांसुलेट का कामकाज़ स्थानीय, यानी अफगानी कर्मचारियों के माध्यम से किया जा रहा. साथ ही वीजा और दूसरी कांसुलेट सेवा को काबुल दूतावास के जरिए जारी रखा जाएगा.

इस बयान में कहीं भी ‘तालिबान से ख़तरे' का ज़िक्र नहीं है. पहले इसे समझ लेते हैं क्यों? अफ़ग़ानिस्तान की बदली हुई परिस्थिति में भारत तालिबान को साथ लेकर चले ये एक ज़रूरत बन गई है. हालांकि विदेश मंत्रालय ने विदेश मंत्री के तालिबानी प्रतिनिधि से मुलाक़ात की बात से इनकार किया है. लेकिन भनक ये भी मिलती रही है कि ख़ुफ़िया स्तर के अधिकारी तालिबान के साथ एक तालमेल बनाने की कोशिश में हैं. ये इसलिए भी ज़रूरी है ताकि तालिबान, जिसने कि दोहा समझौते के ज़रिए अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता में हिस्सेदारी की पात्रता हासिल कर ली है, के साथ एक वर्किंग रिलेशन की शुरुआत हो सके. खासतौर पर अमेरिका के अफगानिस्तान से निकल जाने के बाद ये न सिर्फ़ भारतीयों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिहाज़ से अहम है बल्कि भारत अफ़ग़ानिस्तान में जिस तरह की परियोजनाएं चला रहा है और करीब 3 अरब डालर का निवेश कर अफ़ग़ानिस्तान के विकास में भागीदार बना है, उसे निर्बाध रूप से चलाते रहने के लिए भी ज़रूरी है. तालिबान की सत्ता में वैधानिक भागीदारी जब होगी तब होगी, अभी तो तालिबान के तांडव से भी संरक्षण की ज़रूरत है. इसलिए ये कूटनीति का तकाज़ा है कि बेशक ख़तरा तालिबान से ही हो लेकिन सीधे उसका नाम लेने से वह और आंखें तरेर सकता है. इसलिए बयान में भारी लड़ाई की बात तो की गई है लेकिन तालिबान को जिम्मेदार ठहराने से बचा गया है.

अमेरिकी या नाटो सेना के निकलने के बाद अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद हर उस देश को ख़तरा है जिसने कभी तालिबान को एक शासक के तौर पर मान्यता नहीं दी. जो अमेरिकी कार्रवाईयों से साथ खड़े रहे और जिन्होंने भी कभी तालिबान के संम्पूर्ण नाश की वकालत की. लेकिन भारत के मामले में ये ख़तरा दोहरा हो जाता है. वजह है पाकिस्तान.

अफ़ग़ानिस्तान में भारत की मज़बूत मौजूदगी पाकिस्तान को कभी पंसद नहीं आई. भारत के चार-चार कांसुलेट पर वो लगातार सवाल उठाता रहा. वो खुलेआम कहता रहा है कि इसके ज़रिए भारत पाकिस्तान को अस्थिर करने की कोशिश कर रहा है. भारत ने इन आरोपों को हमेशा बेबुनियाद बताया. ख़ैर. चार में से दो, हेरात और जलालाबाद के कांसुलेट भारत ने पिछले साल अप्रैल में ही अपने राजनयिकों और कर्मियों को बुलाकर उसे एक तरह से बंद कर दिया. तब हवाला कोरोना महामारी का दिया गया लेकिन इन दोनों कांसुलेट्स के खुलने के आसार आज की तारीख़ में नगण्य हैं. अब कांधार से तमाम भारतीय कर्मियों की वापसी हो गई है. मज़ार ए शरीफ़ के कांसुलेट में अभी भारतीयों की तैनाती है लेकिन वहां के भी सुरक्षा हालात बिगड़ते जा रहे हैं. काबुल अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित शहर है इसलिए फिलहाल वहां दूतावास काम कर रहा है लेकिन अगर काबुल के भी हालात ख़राब हुए तो फिर कुछ कहा नहीं जा सकता. भारत साफ़ कर चुका है कि वो हालात पर नज़र बनाए हुए है और फ़ैसला परिस्थितियों को देख कर लिया जाएगा.

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का ज़ोर बढ़ने से भारतीयों पर ख़तरा इसलिए बढ़ गया है क्योंकि तालिबान को पाकिस्तान भारत के ख़िलाफ़ प्रॉक्सी के तौर पर इस्तेमाल करता है. अब जबकि नैटो फोर्स की सुरक्षा अफ़ग़ानिस्तान में नहीं है, पाकिस्तान अपने असर वाले तालिबान को उकसा कर भारतीयों और भारतीय केंद्रों पर हमले करवा सकता है. वह विकास परियोजनाओं में काम करने वाले भारतीयों को भी भगाने की फिराक में रहा है. तालिबान का पुनरोत्थान उसे यह मौक़ा देता है. लिहाज़ा भारत के लिए चुनौती बढ़ गई है.

दरअसल पाकिस्तान अफ़ग़ानिस्तान में अपना स्ट्रैटेजिक डेप्थ देखता रहा है. उसे लगता है कि अफ़ग़ानिस्तान में भारत की मज़बूत मौजूदगी उसे दो तरफ़ से घेरने की रणनीति है. पूर्वी सीमा पर भारत की तरफ़ से और पश्चिमी सीमा पर अफ़ग़ानिस्तान की तरफ़ से. साथ ही भारत की बड़ी मौजदूगी तालिबान के साथ उसके पर्दे के पीछे समझौतों और करतूतों की भी पोल खोलती है. जिस तरह से अफ़ग़ानिस्तान के लोग भारत को अपना ख़ास दोस्त और पैरोकार समझते हैं, पाकिस्तान के पेट में इससे भी दर्द होता है. इन सब वजहों से पाकिस्तान अफ़ग़ानिस्तान से भारत को बाहर देखना चाहता है.

कहा तो ये भी जा रहा है कि कांधार में तालिबान के रूप में लड़ने वाले लड़ाकों में बड़ी तादाद में लश्करे तोइबा जैसे तंजीम के आतंकवादी शामिल हैं. ये भी कहा जा रहा है कि पाकिस्तान से इनको भेजा ही इसलिए गया है कि वे भारतीयों को या तो बाहर भगाएं या फिर उनको नुकसान पहुंचाएं. इस आकलन या यूं कहें कि ख़ुफ़िया जानकारी ने भी कांधार से भारतीयों की एकाएक वापसी के फ़ैसले को विवश किया. कांधार जो कि 90 के दशक में भी तालिबान का गढ़ रहा और जहां 1999 में अपहृत भारतीय विमान आईसी 814 को ले जाया गया. तब आठ दिनों की बातचीत के बाद मसूद अजहर जैसे खूंखार आतंकवादियों की रिहाई के बदले ही यात्रियों को छुड़ाया जा सका. इस बीच रुपेन कत्याल नामक एक यात्री की हत्या भी कर दी गई. तब भी इसके पीछे पाकिस्तान का हाथ साफ़ तौर पर नज़र आया था. अपहरण के बाद विमान को जब लाहौर उतारा गया तो ये भी कहा गया कि अपहर्ताओं को और असहले वहां मुहैया कराए गए. तब अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का शासन था और तालिबान सरकार को मान्यता देने वाले गिने चुने देशों में पाकिस्तान अव्वल नंबर पर था. तालिबान और पाकिस्तान का यही गठजोड़ भारत के लिए चिंता का सबब है. यही वजह है कि, जैसा कि सूत्रों के हवाले से जानकारी आई, वापस लाने के लिए भारतीय वायुसेना का जो एयरक्राफ़्ट भेजा गया उसने पाकिस्तान के हवाई क्षेत्र से उड़ान नहीं भरी. ज़ाहिर सी बात है ऐसी उड़ान की जानकारी पाकिस्तान से साझा करनी पड़ती जिसके अपने ख़तरे हो सकते थे.

ऐसा भी नहीं है कि अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान से एकाएक लौटने का फ़ैसला कर लिया. 2001 में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद अल क़ायदा को ख़त्म करने लिए अफ़ग़ानिस्तान में घुसा अमेरिका लड़ाई के लंबा खिंच जाने के बाद से ही परेशान था. 2011 में ओसामा बिन लादेन को अमेरिकी सील कमांडोज़ ने पाकिस्तान में मार गिराया. लेकिन उससे कहीं पहले ही ‘गुड तालिबान और बैड तालिबान' की थ्योरी को आगे बढ़ाने के सहारे अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान से लौटने का ताना बाना बुनने लगा था. ‘गुड तालिबान' यानी हथियार छोड़ चुका और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भागीदार बनने को तैयार तालिबान. ‘बैड तालिबान' जो हिंसा के ज़रिए न सिर्फ़ विदेशी ताक़तों को बाहर खदेड़ना चाहता था बल्कि पूरे अफ़ग़ानिस्तान को अपने कब्ज़े में लेकर कट्टर इस्लामी रूल चाहता था.

सनद रहे कि तब भी भारत ‘गुड तालिबान' और ‘बैड तालिबान' की थ्योरी को नकारता रहा. वह अमेरिकी को समझाने की कोशिश करता रहा कि तालिबान, तालिबान है, और वह सिर्फ़ बैड है. भारत की इस समझ के पीछे उसके अपने अनुभव रहे. ख़ासतौर पर पाकिस्तान के इशारे और असर से चलने वाले तालिबान को लेकर. भारत हमेशा समझता और मानता रहा है कि तालिबान अपने कट्टरपंथी और हिंसात्मक विचारों से इतर नहीं जा सकता. ख़ासतौर पर तब जब उसको पाकिस्तान से निर्देशित और समर्थित किया जा रहा हो.

भारत की वो आशंका आज सच साबित हो रही है. सालों चली वार्ता के बाद जो दोहा समझौता हुआ है, तालिबान उसकी धज्जियां उड़ा रहे हैं. या तो जो वार्ताकार बने उनके मन में ही पाप था या फिर ज़मीनी लड़ाके उनकी सुन नहीं रहे. जो भी हो, तालिबान अपने हिंसात्मक मंसूबों से साथ आगे बढ़ रहा है.

अमेरिकी सेना की वापसी के लिए चाहे उसे जितना कोसा जाए लेकिन अब तो वो फ़ैसला कर चुका है और फिर अफ़ग़ानिस्तान आने वाला नहीं. लेकिन इससे सुरक्षा के ऐसे गंभीर हालात पैदा हुए हैं कि चीन को भी अपने 200 से ज़्यादा नागरिकों को रेस्क्यू करना पड़ा है. आस्ट्रेलिया जैसा देश मई में ही दूतावास बंद करने का ऐलान कर चुका. और तो और ख़ुद अफ़ग़ानी भी सुरक्षित महसूस नहीं कर रहे. एक आकलन के मुताबिक़ करीब पांच लाख अफ़ग़ानी शरणार्थी पाकिस्तान का रुख़ कर सकते हैं. हालांकि पाकिस्तान डुरंड लाइन के पास बने शरणार्थी कैंप में उनको प्रश्रय देने की तैयारी कर रहा है लेकिन अगर वह अफ़ग़ानिस्तान का सच्चा दोस्त होता तो ऐसे हालात बनने ही नहीं देता. पर तालिबान को रोकना उसके बूते में ही नहीं है. आईएसआई ने कुछ ताक़तों के साथ मिल कर जो जिन्न पैदा किया था, जिसके पीछे सीआईए का अपरोक्ष सहयोग भी बताया जाता रहा है, वो अब बोलत में वापस जाने से रहा.

उमाशंकर सिंह NDTV में सीनियर एडिटर, पॉलिटिकल एंड फॉरेन अफेयर्स हैं...

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