क्या आपको पता है 5वीं शताब्दी से 8वीं शताब्दी के बीच चीन, इंडोनेशिया, कोरिया, जापान, तिब्बत, फारस और मध्य एशिया के छात्रों को अपनी ज्ञान की प्यास बुझानी होती थी तो वे कहां आते थे...जवाब है- बिहार के नालंदा. ऐसे में सवाल बनता है कि क्यों? तो इसका जवाब है कि तब नालंदा विश्वविद्यालय एशिया की बौद्धिक राजधानी थी. 1193 में तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने ज्ञान के इस सूर्य को हमेशा के लिए डूबो दिया. इसी खिलजी का जिक्र बीते दिनों अमित शाह ने किया और कहा- अब 100 बख्तियार खिलजी भी आ जाएं, नालंदा विश्वविद्यालय को कोई हाथ नहीं लगा सकता. ऐसे में ये जानना दिलचस्प हो जाता है आखिर नालंदा विवि की कहानी क्या है? ये कैसे बना? कैसा था? कैसे नष्ट हुआ और फिर कैसे खोजा गया?...इन्हीं सवालों के जवाब आपको इस रिपोर्ट में मिलेंगे.
'सी-यू-की' बनी ‘चाबी', खुल गया नालंदा का ‘ताला'
बात शुरु से शुरू करते हैं. 23 जनवरी 1814 को लंदन में एक बालक का जन्म हुआ...नाम रखा गया- अलेक्जेंडर कनिंघम. कनिंघम बचपन में ही माता-पिता के साथ भारत आ गए. 19 वर्ष की आयु में उन्होंने यानी 1833 में बंगाल इंजीनियर समूह में एक सेकंड लेफ्टिनेंट के तौर पर काम करना शुरु किया. कनिंघम की दिलचस्पी बंदूक और बारूद से ज़्यादा यहां के प्राचीन स्मारकों में थी. उनकी यही दीवानगी उन्हें चीन के यात्री ह्वेन त्सांग की किताब 'सी-यू-की' तक ले गई, जो नालंदा का गुप्त नक्शा थी. ह्वेन त्सांग के सटीक विवरणों को आधार बनाकर, कनिंघम ने 1861 में बिहार के बड़गांव के पास मिट्टी के ऊंचे टीलों को खोज निकाला. गांव वालों ने इन ढेरों को 'नाला' या 'नालंदा' बताया.
600 साल पुराना विश्वविद्यालय, जिसका पुस्तकालय नौ मंजिला था!
दरअसल, नालंदा दुनिया का पहला ज्ञात आवासीय विश्वविद्यालय था, जहाँ गुरु और शिष्य एक ही परिसर में रहते थे. इसकी अहमियत बस इतनी समझिए कि जब यूरोप की सबसे पुरानी यूनिवर्सिटी, जैसे इटली की यूनिवर्सिटी ऑफ बोलोग्ना (1088 ई.) और पेरिस यूनिवर्सिटी (1150 ई.) की नींव रखी जा रही थी, तब हमारा नालंदा उनसे छह सौ साल से भी ज़्यादा पुराना होकर अपने वैभव के शिखर पर था. यहाँ दाखिला लेना बच्चों का खेल नहीं था. प्रवेश के लिए, छात्रों को मुख्य द्वार पर बैठे 'द्वार-पंडित' द्वारा ली गई एक बेहद कठिन मौखिक परीक्षा पास करनी होती थी. चीनी यात्री ह्वेन त्सांग बताते हैं कि इस परीक्षा में 10 में से सिर्फ 2 या 3 छात्र ही सफल हो पाते थे.
ज्ञान की हत्या: 90 लाख पांडुलिपियां जलकर हुईं राख
अब बात नालंदा विश्वविद्यालय कैसे नष्ट हुआ. दरअसल बख्तियार खिलजी एक तुर्क सेनापति था, जो धन और सत्ता की तलाश में उत्तर भारत में घूम रहा. था. उसके नालंदा पहुँचने की वजह केवल लूट या साम्राज्य विस्तार नहीं थी, बल्कि ज्ञान की श्रेष्ठता से पैदा हुई गहरी ईर्ष्या थी. एक कहानी भी सूनी और सुनाई जाती है. जिसके मुताबिक खिलजी जब बुरी तरह बीमार पड़ा. उसके तुर्की हकीम उसे ठीक नहीं कर पाए. सलाह पर उसने अनिच्छा से नालंदा के वैद्य आचार्य राहुल श्रीभद्र से इलाज कराया. जब खिलजी ठीक हुआ तो उसे अपमान महसूस हुआ कि उसके अपने हकीमों से ज्यादा ज्ञान एक 'हिंदुस्तानी' के पास है. इसी अपमान और ईर्ष्या की आग में जलकर खिलजी ने फैसला किया कि नालंदा विश्वविद्यालय को नष्ट कर दिया जाए. इसके बाद नालंदा के शांत परिसर में अचानक बर्बर तुर्की सैनिकों का दल घुस आया.
वहां पढ़ने-पढ़ाने में लगे विद्वान और छात्र निहत्थे थे. हमलावरों ने सैकड़ों भिक्षुओं को मार डाला. इसके बाद खिलजी और उसके सैनिकों ने विशाल पुस्तकालय 'धर्म-गंज' में आग लगा दी. किताबों की संख्या इतनी ज्यादा थी कि यह आग एक-दो दिन नहीं, बल्कि तीन महीने तक धधकती रही. कहा जाता है कि इन ग्रंथों में भारत का वह सारा ज्ञान था, जिसने दुनिया को शून्य, दशमलव प्रणाली और उन्नत आयुर्वेद दिया था. तीन महीनों तक जलने के बाद, नालंदा सिर्फ खंडहरों का ढेर रह गया. इसके बाद नालंदा दोबारा कभी पूरी तरह से उठ नहीं पाया. कुछ छोटे-मोटे प्रयास हुए, लेकिन वे नाकाफी थे. जाहिर है नालंदा की ईंटें भले ही जल गईं, लेकिन ज्ञान का जो बीज यहाँ बोया गया था, वह आज भी भारत और पूरे एशिया की बौद्धिक विरासत में जीवित है.