हरियाणा में हुड्डा खेमे ने बग़ावत की या सियासी शतरंज की एक चाल भर चली?

हरियाणा में हुड्डा खेमे ने बग़ावत की या सियासी शतरंज की एक चाल भर चली?

हरियाणा में राज्यसभा के इनेलो समर्थित उम्मीदवार आरके आनंद चुनाव हार गए और उनकी इस हार में हरियाणा के कांग्रेसी विधायकों की बड़ी भूमिका रही। कांग्रेस के 17 में से 14 विधायकों का वोट गिनने लायक नहीं माना गया। और तो और पूर्व मुख्यमंत्री और 10 जनपथ के क़रीबियों में गिने जाने वाले भूपिन्दर सिंह हुडा ने तो अपना बैलेट खाली ही छोड़ दिया। जो तीन कांग्रेसी वोट आनंद को मिले वे किरण चौधरी और हाल ही में कांग्रेस में अपनी पार्टी का विलय करने वाले कुलदीप विश्नोई और उनकी पत्नी रेणुका विश्नोई के रहे।

ग़ौरतलब है कि एक दिन पहले ही हरियाणा प्रदेश कांग्रेस विधायक दल की बैठक हुई थी जिसमें राज्यसभा के लिए किस उम्मीदवार को समर्थन दिया जाए इस पर चर्चा हुई। इस दौरान समर्थन की चाह में आरके आनंद भी कांग्रेस मुख्यालय पहुंच गए। सीएलपी में कांग्रेस की परंपरा के मुताबिक़ ये फैसला लिया गया कि फ़ैसला कांग्रेस आलाकमान पर छोड़ते हैं। फिर संदेश दिया गया कि कांग्रेस आरके आनंद के साथ जाएगी।

लेकिन अंदरखाने कांग्रेस की दुविधा बहुत गहरी थी। आरके आनंद जहां इनेलो समर्थित उम्मीदवार थे वहीं सुभाष चंद्रा को बीजेपी का समर्थन हासिल था। ऐसे में कांग्रेस के एक बड़े नेता ने एक कहावत सुनाई कि मानो एक कमरे में एक सांप और एक जाट बंद हो गया हो और उनमें से एक का मरना तय हो। लेकिन दिक्कत तो ये है कि हम भी उसी कमरे में बंद हों तो फिर हम कहां बचेंगे। कांग्रेस अगर वोटिंग से दूर भी रहती तो वो सुभाष चंद्रा की जीत तय कर देती और बीजेपी के साथ जाती दिखाई पड़ती। ये कांग्रेस की सेकुलर छवि के लिए नुकसानदेह होता।

फिर बचे आरके आनंद। पर आरके आनंद कांग्रेस के किस काम के ये भी एक सवाल था। राज्यसभा पहुंचने वाले वकील नेताओं की कांग्रेस के पास पहले से भी कमी नहीं थी। और यही आरके आनंद हैं जो जेएमएम घूस कांड में पीवी नरसिंहाराव के वकील रह चुके हैं। वो राव जो कभी 10 जनपथ को नहीं भाए। ख़ैर तब की बात अलग थी। आरके आनंद बाद में कांग्रेस के सहारे ही राज्यसभा भी पहुंच गए।

आरके आनंद को लेकर हरियाणा कांग्रेस में भी दो धड़ा था। एक नवीन जिंदल का जो आनंद को सिर्फ इसलिए चाहता था ताकि अपने कट्टर दुश्मन सुभाष चंद्रा का रास्ता रोका जा सके। कोयला खान मामले में दोनों के बीच की लड़ाई जगज़ाहिर है। ज़ी न्यूज़ की तरफ से कैमरे पर 100 करोड़ की उगाही का स्टिंग ऑपरेशन और फिर ज़ी पत्रकार का जेल जाना आदि सबने आग में घी डाला। जिंदल ने तो यहां तक लड़ाई लड़ी की बात ज़ी न्यूज़ के लाइसेंस तक पर आन पड़ी। नाम तक बदलना पड़ा।

लेकिन वहीं कांग्रेस के कद्दावर नेता और राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके भूपिंदर सिंह हुडा की सुभाष चंद्रा से हमेशा से छनती रही। कहते हैं कि दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है। हुड्डा की नवीन जिंदल से नहीं बनती और नवीन जिंदल की सुभाष चंद्रा के दुश्मनी। तो ऐसे में दोस्ती का एक और सिरा जुड़ता है।

कांग्रेस के कई नेता उन दिनों की भी याद दिलाते हैं जब सुभाष चंद्रा राजीव गांधी के नज़दीकियों में गिने जाते थे। हालांकि वे बाद में अलग हो गए लेकिन फिर अलग होने का अफ़सोस भी जताया। कांग्रेस के एक बड़े नेता ने अनौपचारिक बातचीत में यहां तक कह दिया कि सुषाभ चंद्रा के लिए दस जनपथ के दरवाज़े हमेशा खुले हैं। वे जब चाहें मिल सकते हैं। लेकिन सुभाष चंद्रा के सामने की मजबूरी ये थी कि जिस घाट पर वे बीजेपी के साथ पानी पी रहे थे उसी घाट पर वे कांग्रेस के सामने आपना लोटा कैसे आगे करते। हालांकि सूत्रों ने बताया कि 10 जनपथ के क़रीबी नेताओं के साथ चंद्रा टच में थे। जानकारी ये भी आई कि सुभाष चंद्रा की पैरवी करने अमर सिंह 6 या 7 तारीख को ख़ुद राहुल गांधी से मिलने पहुंचे। कांग्रेस या राहुल गांधी के दफ्तर ने इस बात की तस्दीक नहीं की।

अब सवाल है कि आखिर कांग्रेस ने आरके आनंद के सामने थाली रख कर भी खाना क्यों छीन लिया। जवाब सीधा सा है। आरके आनंद के पास कांग्रेस के एहसान का बदला चुकाने के लिए क्या है और सुभाष चंद्रा के पास क्या। आरके आनंद के पास वक़ालत की क़ाबिलियत है जिसपर बीएमडब्ल्‍यू केस मामले में स्टिंग का डंक लग चुका है। एनडीटीवी के उस स्टिंग में जब कोर्ट में आरके आनंद दोषी पाए गए थे तो उसके बाद कांग्रेस ने उन्हें पार्टी से निकाल बाहर किया था। कुछ कांग्रेसी ये भी याद कर बताते हैं कि निकाले जाने से नाराज़ आरके आनंद ने सीधे 10 जनपथ पर सवाल उठाए थे। ये बात भी आनंद के खिलाफ तर्क के तौर पर देखा जा सकता है।

दूसरी तरफ सुभाष चंद्रा के पास लंबा चौड़ा मीडिया नेटवर्क है। सवाल ये भी था कि सुभाष चंद्रा तो घोषित तौर पर बीजेपी और मोदी की लाइन लेते हैं। तो चंद्रा के चाहने वालों ने उसे इस तर्क से काटा कि चंद्रा की नाराज़गी जिंदल की वजह है। और क्योंकि वे राजनीति में कदम रख चुके हैं तो वे भी जानते हैं कि इसमें कोई परमानेंट दोस्त या परमानेंट दुश्मन नहीं होता। कई कांग्रेसियों की नज़र में चंद्रा अपना रुख बदलने के लिए जाने जाते हैं। मीडिया के अलावा सुभाष चंद्रा के कई बिजनेस हैं जिसके लिए उन्हें सत्ता के साथ तालमेल बिठा कर चलना पड़ता है।

पार्टी के भीतर के तर्क वितर्क चाहे जो भी रहे हों, चुनाव का परिणाम ये बताने को काफी है कि कांग्रेस ने चंद्रा को ही चाहा। नहीं तो खुद पूर्व मुख्यमंत्री ने तो बैलेट खाली छोड़ा ही, ऑल इंडिया कांग्रेस कमिटी के मीडिया चेयरमैन रणदीप सिंह सुरजेवाला जो कि राहुल की टीम में भी शुमार माने जाते हैं, का वोट भी रद्द हो गया। अब इस पर तकनीकी सफाई जो भी आए लेकिन ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के ये तमाम विधायक पहली बार राज्यसभा के लिए वोट कर रहे थे कि ग़लती हो गई।

आने वाले दिनों में दो बातों पर नज़र रहेगी। अगर जो हुडा खेमे ने बग़ावत की तो गांधी परिवार उन पर नकेल कसेगा। राहुल गांधी के ख़ास में शुमार हो चुके सुरजेवाला की स्थिति कमज़ोर होगी। अगर टीम राहुल में उनको महासचिव का पद मिलने वाला है तो वो नहीं मिलेगा। मीडिया सेल के चेयरमैन पद से हटा दिया जाएगा। और तदनुसार दूसरे विधायकों पर भी गाज गिरेगी। ये सही है कि गांधी परिवार की ख़ुद की स्थिति अभी इतनी डावांडोल है कि कोई भी कुछ भी सुना के निकल जाता है। लेकिन 10 जनपथ से आशीर्वाद प्राप्त भूपिंदर सिंह हुडा और 11 तुगलक लेन तक पहुंच रखने वाले सुरजेवाला की ‘इंटिग्रीटी’ पर कोई सवाल नहीं उठा सकता।


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