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This Article is From Aug 27, 2023

भोपाल में फिर चल गया रंग विदूषक का ‘तुक्का’

Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 07, 2023 15:24 pm IST
    • Published On अगस्त 27, 2023 18:09 pm IST
    • Last Updated On सितंबर 07, 2023 15:24 pm IST

भोपाल के रंगश्री लिटिल बैले ट्रुप का सभागार. कम ही होता है कि बिना ज्यादा पब्लिसिटी के दर्शकों का हुजूम उमड़ आए, इतना कि बैठने को जगह मुश्किल पड़ जाए. संभवत: नाटक और नाटक करने वालों से एक जुड़ाव इसकी एक बड़ी वजह है. ये एहसास और भी अलहदा है कि इस जुड़ाव की कड़ी नाटक को रचने वाला वो शख़्स है जो आज सभागार में  मौजूद नहीं है. सामने मंच पर एक नहीं दो-दो तस्वीरें हैं. नाटक शुरू होने से पहले उद्घोषक इन दोनों शख्सियत के लिए दो मिनट का मौन करवाते हैं. एक तस्वीर है देश के ख्यात रंगकर्मी बंसी कौल की और दूसरी तस्वीर इस नाटक के सहनिर्देशक फ़रीद बज़्मी की. इन दो शख़्सियतों का आपसी लगाव ऐसा कि रंग विदूषक समूह के इस ख्यात नाटक को निर्देशित करने वाले बंसी दादा के जाने के कुछ समय बाद फरीद भाई ने भी दुनिया से ‘एग्जिट' ले ली.

वैसे नाटक के ब्रोशर में इस नाटक के लेखक का नाम राजेश जोशी लिखा है। संयोग ही है कि राजेश जोशी का घर इस सभागार से चंद मिनट की दूरी पर है. उन्हें जब मंच पर दो शब्द कहने के लिए बुलाया जाता है तो वह इस बात का खुलासा करते हैं कि दरअसल इस नाटक का शुरुआती ड्राफ्ट  फ़रीद बज़्मी ने ही लिखा था.

अपनी लंबी यात्रा में यह नाटक खुद में बदलाव करता गया. एक चीनी किताब को भारतीय लोक कथा की तरह तैयार किया गया यह नाटक देश दुनिया के विभिन्न मंचों पर तकरीबन 140 बार खेला जा चुका है. किसी नाटक का 140 बार मंचन आसान नहीं होता.

खुद राजेश जोशी ने बताया कि तुक्के पे तुक्का में वक्त के अनुसार परिवर्तन होते चले गए, लेकिन नहीं बदले तो इस नाटक के कुछ किरदार. मसलन तुक्कू मियाँ को ही लें. जब उदय शहाणे ने पहली बार इस नाटक में तुक्कू मियाँ का किरदार निभाया था तब उनकी उम्र 39 साल की थी, लेकिन आज भी नाटक में अपने अभिनय से जान फूंकने वाला शख्स जीवन के 74 वसंत देख चुका है. क्या रंगकर्म इस तरह भी व्यक्ति को सक्रिय रखता है? ऐसे और भी कलाकार हैं, जो एक किरदार से इस कदर जुड़े हैं.मंच पर नाटक के साथ कुछ यादें भी उमड़ती घुमड़ती रहीं। लगा मानो नाटक के निर्देशक बंसी कौल आज भी तस्वीर से नहीं मंच के किसी कोने से ही कलाकारों का हौसला बढ़ा रहे हों.

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हम भले ही वैश्विक दुनिया में आज जी रहे हों लेकिन स्थानीयता का रस हमेशा हमें गुदगुदाता रहेगा। तुक्के पे तुक्का नाटक फिर से इसी एक बात को स्थापित करता है. भाषा, किरदार, कलाकारों की नाम, दैहिक गतिविधियों का प्रयोग और उपमाएं देख-सुनकर लगता है कि हमारे ही आसपास का किस्सा तो चल रहा है. इस नाटक के जरिए भी हमारी यह रवायत देश-दुनिया के कई कोनों तक सहजता से पहुंची रही है। नाटक इस तरह भी भाषा, संस्कृति और देशजपन का दस्तावेज बन जाते हैं. इतने कि कई बार तो वह नाटक में ही बचे रहते हैं, उन्हें संरक्षित करने का कोई भान भी नहीं होता और  नाटक चुपके से यह जरूरी काम भी कर जाते हैं.

दूसरा रंग-विदूषक के नाटक में किया गया रंगों का अतिरिक्त प्रयोग बहुत ही आकर्षित करता है.मेरे देखे गए अब तक के सारे नाटकों में यह पहला ऐसा नाटक है जो रंगों की एक कमाल दुनिया में जाता है, जहां आंखों के सामने से तेजी से रंगों के बिंब उभरते हैं, जिन्हें देखना अच्छा लगता है.

वक्त के साथ धीरे-धीरे नाटक गंभीर विषयों पर भी कटाक्ष करते हुए आगे बढ़ता है, लेकिन इसके बाद भी नाटक देखते रहने की उमंग बनी रहती है. संभवत: यह सोचकर ही इसे रंगों से इतना गुथा गया होगा. इसके पीछे शायद बंसी कौल का वह नजरिया रहा होगा जिसमें वह कहते थे कि लोगों को हंसाना भी मनुष्यता का एक काम है.

इसलिए रंग-विदूषक एक गंभीर काम को हंसाते-गुदगुदाते पूरा करता है.

 प्रदेश की राजधानी जिसे अफसरों और बाबुओं का शहर कहा जाता हो, वहां बैठकर नौकरशाही की परतें उघड़ते देखना अपने आसपास जैसा ही लगता है. नाटक मानवीय मूल्यों के पतन और आम लोगों के विषयों को हाशिए पर जाने और लालफीताशाही के चरित्र को भी सामने लाता है. जिस सहजता के साथ नाटक रोज़मर्रा के यथार्थ की नाटकीयता को सामने लाता है. तुक्कू मियां का तुक्कों के जरिए नवाब बनने का सफर बार बार सामाजिक विडम्बनाओं और सत्ता की प्राथमिकताओं पर करारा प्रहार करता है. चाटुकारिता के नए आयाम गढ़ते इस नाटक का संगीत पक्ष केवल फिलर की तरह नहीं है. संगीत निर्देशन अंजना पुरी का है. संगीत रचना तो नाटक का अंत-अंत आते में इतनी दिलचस्प हो जाती है कि वह खुद को संवादों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण बना देती है. नवाब का किरदार अपनी भाव—भंगिमाओं में थोड़ा अतिरंजित दिखाई देता है, लेकिन जब अंधेर नगरी में चौपट राजा हो सकता है, तो इस नाटक में नवाब ऐसा क्यों नहीं?

लेखक राकेश कुमार मालवीय पिछले 13 साल से पत्रकारिता, लेखन और संपादन से जुड़े हैं. वंचित और हाशिये के समाज के सरोकारों को करीब से महसूस करते हैं. ग्राउंड रिपोर्टिंग पर फोकस.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. 

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