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This Article is From Feb 25, 2015

एक वो भी था आपदा प्रबंधन

Sushil Bahuguna
  • Blogs,
  • Updated:
    फ़रवरी 25, 2015 16:32 pm IST
    • Published On फ़रवरी 25, 2015 16:23 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 25, 2015 16:32 pm IST

कुदरती आपदाओं से निपटने का हमारा रिकॉर्ड बहुत उत्साहजनक नहीं रहा है। अब लद्दाख के ज़ांस्कर इलाके में एक नदी के रुकने से बनी झील के फटने की आशंका हमें डरा रही है, लेकिन ऐसे मामलों में अगर हम इतिहास में थोड़ा और झांककर देखें, तो हमें अपने ही देश में कुछ बड़ी नज़ीर मिल जाएंगी।

ऐसा ही एक दिलचस्प वाकया है सवा सौ साल पुराना। उत्तराखंड के चमोली ज़िले में अलकनंदा नदी की एक सहायक नदी है विरही गंगा। सवा सौ साल पहले जुलाई 1893 में इस नदी में क़रीब की एक पहाड़ी टूटकर जा गिरी। बरसात के दिन थे और इस भूस्खलन ने तेज़ रफ़्तार से बहती नदी का रास्ता रोक दिया।

ये घटना जैसे ही क़रीब के ग्रामीणों ने अंग्रेज़ अधिकारियों को दी तो वो हरकत में आ गए। क़रीब पौने दो सौ किलोमीटर दूर हरिद्वार के रायवाला में सुपरिंटेंडिंग इंजीनियर लेफ्टिनेंट कर्नल पुलफोर्ड ने फौरन अपने इंजीनियर को मौके पर भेजा। स्थिति का जायज़ा लेने के बाद ये अनुमान लगाया गया कि इस झील को भरने में एक साल लग सकता है, लेकिन उसके बाद अगर झील फटी तो भयानक नतीजे हो सकते हैं। इस झील को गौना ताल नाम दिया गया।

ले. कर्नल पुलफोर्ड ने अपने स्टाफ़ के तकनीशियनों को झील पर ही तैनात कर दिया। इस झील से नीचे रायवाला तक पौने दो सौ किलोमीटर लंबी टेलीग्राफ़ की लाइन बिछाई गई। वो टेलीग्राफ़ यानी तार जो पिछले साल दम तोड़ चुका है। इस टेलीग्राफ़ लाइन के तारों को पहाड़ों के जंगलों में पेड़ों पर ठोक-ठोक कर लगाया गया। लगातार झील की मॉनीटरिंग चलती रही। इस बीच झील तीन किलोमीटर लंबी हो गई। अंग्रेज़ों ने पास ही एक गेस्ट हाउस बना दिया, जहां से पूरी झील का नज़ारा दिखता था। झील में बोटिंग और फिशिंग भी शुरू हो गई।

ये झील भूवैज्ञानिकों के लिए भी कुतूहल का विषय रही। उस दौर के सबसे बड़े अंग्रेज़ भूवैज्ञानिक हालात का जायज़ा लेने पहुंचे। साल भर बाद 15 अगस्त, 1894 के आसपास इस झील के फटने का अनुमान लगाया गया। समय रहते ही अंग्रेज़ों ने निचले इलाके से लोगों को हटाना शुरू कर दिया। लोगों को सुरक्षित जगहों पर भेज दिया गया। रास्ते में अलकनंदा नदी पर बने कुछ पुल हटा दिए गए। भारी बरसात के बीच 27 अगस्त 1894 को ये बड़ी झील फूटी और वो चमोली, रुद्रप्रयाग, श्रीनगर में तबाही मचाती हुई ऋषिकेश, हरिद्वार की ओर बढ़ी। रुड़की तक अपर गंगा कैनाल सिल्ट से भर गई। इस तबाही को कोई नहीं रोक सकता था, लेकिन ख़ास बात ये रही कि इस तबाही में एक भी इंसान की मौत नहीं हुई।

85 साल बाद 1970 में यही झील जब दोबारा फूटी तो जनधन की भारी तबाही हुई। तो साफ़ हो जाता है कि सवा सौ साल पहले 1894 में अंग्रेज़ों के दौर में हुई वो कवायद अपने आप में आपदा प्रबंधन की कितनी बड़ी औऱ ऐतिहासिक मिसाल है। देश-विदेश के भूवैज्ञानिक और आपदा प्रबंधन गुरु आज भी उस प्रयास को बड़े ही सम्मान के साथ याद करते हैं, लेकिन हमारी सरकारों के लिए ये घटना फाइलों में दबा एक उल्लेख भर मात्र है, जिसकी धूल झाड़कर उससे सबक लेने की सुध किसी को नहीं है।

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