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This Article is From Aug 07, 2018

तमिलनाडु की राजनीति के एक युग का अंत

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 07, 2018 23:09 pm IST
    • Published On अगस्त 07, 2018 23:09 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 07, 2018 23:09 pm IST
तमिलनाडु की राजनीति का आज दूसरा युग समाप्त हो गया. डीएमके नेता एम करुणानिधि का देहांत हो गया. 94 साल के करुणानिधि 28 जुलाई से अस्पताल में भर्ती थे. तमिलनाडु में जयललिता और करुणानिधि का लंबा दौर चला है. 5 दिसंबर 2016 को जयललिता के निधन के बाद तमिलनाडु की राजनीति अनिश्चतता से गुज़र रही थी. 5 बार मुख्यमंत्री रहे एम करुणानिधि के निधन ने राज्य की राजनीति का मैदान खुला छोड़ दिया है. जयललिता और करुणानिधि की राजनीति सिर्फ प्रतिस्पर्धा की राजनीति नहीं थी, दोनों ने विचारधारा के स्तर पर कई रेखाएं खीचीं हैं. आज स्क्रीन पर आप भले ही करुणानिधि के उदास और टूटे हुए समर्थकों को देख रहे हैं मगर इस शख्स ने तमिलनाडु का ग़ज़ब का इतिहास लिखा है. आप जानते है कि डीएमके की स्थापना अन्ना दुरई ने की थी. इस पार्टी में नौजवान नेता के रूप में एम करुणानिधि आए थे. इससे पहले वे पत्रकारिता में थे.

तमिलनाडु के महान समाज सुधारक पेरियार के कहने पर उन्होंने कुड़ीयारसू पत्रिका का संपादन छोड़ दिया. बाद में करुणानिधि पेरियार से अलग होकर अन्ना से जुड़ गए. उन्होंने कई फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखी है. करुणानिधि और एम जी आर की दोस्ती हो गई, इसी फिल्म के सिलसिले में. एम जी आर गांधी को मानने वाले थे तो वे करुणानिधि को गांधी पर लिखी किताबें दिया करते थे और करुणानिधि एम जी आर को अन्ना दुरई की लिखी किताबें दिया करते थे. स्क्रिप्ट राइटर के रूप में करुणानिधि ने खूब नाम कमाया. वे अपनी लिखी फिल्मों में एम जी आर का नाम सुझाते थे. एम जी आर रातों रात स्टार बन गए.

करुणानिधि फिल्म लिख रहे थे और एम जी आर सुपर स्टार बन रहे थे. इस दोस्ती का एक परिणाम यह हुआ कि एम जी आर कांग्रेस पार्टी छोड़ 1953 में डीएमके में आ गए. अन्ना दुरई और करुणानिधि ने देखा कि एम जी आर की लोकप्रियता उनके राजनीतिक संदेशों को फैलाने में खूब काम आ रही है. लेकिन यह दोस्ती बहुत लंबी नहीं चली. करुणानिधि जब मुख्यमंत्री बने तो एम जी आर ने उनसे कहा कि मुझे स्वास्थ्य मंत्री बना दें, करुणानिधि ने मना कर दिया. कहा कि पहले एक्टिंग छोड़ो फिर मंत्री बनो. इस बात पर अलग-अलग राय है कि एम जी आर क्यों करुणानिधि से अलग हुए मगर यह भी इतिहास का एक शानदार मोड़ है कि एम जी आर उनसे अलग होकर एआईडीएमके बनाते हैं और उनके प्रतिद्वंदी बन जाते हैं. उसके बाद राज्य और भारत की राजनीति एक लंबे दौर तक दोनों की सियासी प्रतिस्पर्धा की गवाह बनती है. पहले एम जी आर का निधन हुआ, उसके लंबे समय बाद जे जयललिता का और उसके बाद अब एम करुणानिधि.

कहानी तो यह भी कि है कि एम जी आर अलग होने के बाद भी करुणानिधि की इतनी इज्ज़त करते थे कि एक बार उनकी पार्टी के नेता ने उनका आदर से नाम नहीं लिया तो उन्होंने चांटा जड़ दिया और कहा कि करुणानिधि मेरे नेता हैं. मैं खुद उन्हें कलैंगर कहता हूं. तो ये कहानी है जो आज ख़त्म हो गई. तमिलनाडू के लोग जो इन दो नेताओं के पीछे राजनीतिक प्रतिस्पर्धा करते थे, वो आज कैसा महसूस कर रहे होंगे, यहां दूर से बताना मुश्किल है. दक्षिण की राजनीति के दो महानयकों की विदाई का विश्लेषण सिर्फ रूटीन बातों से नहीं हो सकता है.

बेशक करुणानिधि हिन्दी विरोध की राजनीति से उभरे थे. 10 फरवरी 1969 को पहली बार मुख्यमंत्री बने थे. 2003 से 2008 तक मुख्यमंत्री रहे. हम ऊपर से तो जयललिता और करुणानिधि का ही चेहरा देखते रहे हैं मगर राज्य की ज़मीन पर दोनों दलों के पास ज़रूर शानदार कार्यकर्ताओं और स्थानीय नेताओं की फौज रही होगी जो दोनों की राजनीति के स्तंभ रहे होंगे. जयललिता पाश गार्डन में रहती थीं तो करुणानिधि गोपालपुरम में. एक बार कांग्रेस ने इनकी सरकार बर्खास्त कर दी मगर करुणानिधि ने कांग्रेस से मिलकर सरकार बना ली और एम जी आर की सरकार बर्खास्त करवा दी. फिर कांग्रेस से मिलकर विधानसभा का चुनाव लड़ा और हार गए.

इसके बाद भी यूपीए सरकार में पार्टनर रहे. इन नेताओं की खूबी यह है कि कई बार चुनाव जीता है, कई बार हारा है. इनके बीच खुद को कहने वाली नेशनल पार्टी कभी जगह नहीं बना सकी. कारवां पत्रिका के संपादक विनोद के होज़े ने अप्रैल 2011 में करुणानिधि पर रोजक लेख लिखा है, जिसका नाम है 'दि लास्ट ईयर'. इसमें इस बात का ज़िक्र है कि 1957 और 62 में जब डीएमके हार गई तब अन्नादुरई ने सोचा कि बगैर पैसे के सिर्फ विचारधारा से जीत नहीं मिलेगी. तब कोषाध्यक्ष के रूप मे डीएमके ने कहा कि वे दस लाख जमा कर देंगे. किसी ने यकीन नहीं किया. करुणानिधि ने दस लाख से ज्यादा चंदा जमा कर दिया. एक रैली में अन्नादुरई ने उन्हें श्रीमान ग्यारह लाख की उपाधि दी थी.

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