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This Article is From May 19, 2017

अनिल दवे की रगों में बहती थी नर्मदा नदी

Suryakant Pathak
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 19, 2017 04:02 am IST
    • Published On मई 19, 2017 04:02 am IST
    • Last Updated On मई 19, 2017 04:02 am IST
अनिल माधव दवे एक राजनीतिज्ञ से ज्यादा समाजसेवी थे. उनका जन्म स्थान उज्जैन शिप्रा के तट पर स्थित है लेकिन उनकी अगाध श्रद्धा नर्मदा नदी में थी. उनमें नर्मदा और इसकी नदी सभ्यता को जानने-समझने की उत्कट आकांक्षा थी. वे प्रकृति के प्रति अनन्य अनुराग से भरे हुए थे.

अनिल दवे ने नर्मदा को करीब से जाना था. नर्मदा नदी मेरे अंदर भी हमेशा जिज्ञासाएं जगाती रही है, आकर्षित करती रही है. मैं जब-जब नर्मदा तट पर पहुंचा हूं, मुझे नदी के कलकल में आनंद का प्रवाह मिला है. मैंने इसके तटों पर बसे लोगों में एक ऐसी परंपरा प्रवाहित होते हुए देखी जिसकी निरंतरता नदी के कलकल के साथ ध्वनित होती रहती है.            

अनिल दवे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता होने के साथ-साथ एक पर्यावरण सुधार को समर्पित व्यक्ति भी थे. एक दशक से कुछ अधिक समय पहले मध्यप्रदेश के जबलपुर में अनिल दवे से मेरी पहली मुलाकात हुई थी. मुलाकात का कारण भी नर्मदा नदी ही थी. उन दिनों में अनिल दवे नर्मदा नदी की हवाई यात्रा करते हुए परिक्रमा और फिर राफ्टिंग करते हुए यात्रा करने की तैयारी कर रहे थे. मैं नर्मदा को लेकर अनिल दवे का इंटरव्यू करना चाहता था. नर्मदा की कई बार परिक्रमा करने वाले और अपने तरह की अलग किताब 'सौंदर्य की नदी नर्मदा' के लेखक अमृतलाल वेगड जबलपुर में रहते हैं. उनके निवास पर अनिल दवे से मुलाकात हुई.

अनिल दवे ने इंटरव्यू के बाद अनौपचारिक चर्चा की. उन्होंने नर्मदा को लेकर अपनी चिंताएं जाहिर कीं. खास तौर पर नर्मदा में हो रहे प्रदूषण को लेकर वे व्यथित थे. कुछ दिन पहले ही मैंने नर्मदा के प्रदूषण पर रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय में किए गए शोध पर खबर की थी. मैंने जब उसके बारे में बताया तो वे और अधिक विस्तार से जानने के लिए ललायित हो गए और मुझसे मदद चाही. मैंने वहीं से विश्वविद्यालय की उस प्रोफेसर से फोन पर बात की जिनके निर्देशन में शोध किया गया था. प्रोफेसर ने कहा कि वे मिलने के लिए आ जाएंगी. इस पर अनिल दवे ने कहा कि उन्हें मत बुलाइए मैं स्वयं उनके विभाग में जाकर उनसे मुलाकात करूंगा, प्यासे को कुएं के पास जाना चाहिए. उन्होंने प्रोफेसर से मुलाकात के लिए अगले दिन का समय लिया. नेताओं में यह सहजता सामान्य रूप से देखने को नहीं मिलती.                

नेता पार्टी और सरकार के एजेंडे से हटकर काम नहीं करते, लेकिन अनिल दवे के विचार इससे ऊपर रहे हैं. वे पर्यावरण को सरकारी या राजनीतिक हितों से ऊपर मानते थे. शायद यही कारण है कि आज 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' की नेत्री मेधा पाटकर ने कहा कि अनिल दवे नर्मदा बांध परियोजना के विस्थापितों की मदद करना चाहते थे लेकिन सरकार ने उनको ऐसा नहीं करने दिया. मध्यप्रदेश और गुजरात में नर्मदा बचाओ आंदोलन और राज्य सरकारों का टकराव हमेशा होता रहा है. केंद्र सरकारें भी बांधों का विरोध करने वाले इन आंदोलनकारियों को अनसुना करती रही हैं. बांधों के निर्माण से होने वाले विकास का प्रतिपक्ष भी है जो पर्यावरण का विनाश दिखाता है. बड़े भू भागों में बसे लोगों को जड़ों से जुदा होने की त्रासदी भी इसका प्रतिपक्ष है.

केंद्रीय पर्यावरण राज्यमंत्री अनिल दवे के निधन से देश की राजनीति को ही क्षति नहीं हुई पर्यावरण और समाज को भी आघात पहुंचा है.

सूर्यकांत पाठक Khabar.ndtv.com के डिप्टी एडिटर हैं.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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