अपने दो साल की उपलब्धियों का प्रचार करने में सरकार ने पूरी ज़ान लगा दी। कई क्षेत्रों के कलाकारों के जरिए इसे देशव्यापी बनाने की कोशिश हुई। सरकारी टीवी पर रंगारंग कार्यक्रम लगातार दिखाकर गाव गांव तक अपनी छवि बचाने का इरादा था। इसी बीच एक सवाल उठा है कि इस तरह के प्रचार करने की जरूरत क्यों पड़ी। वैसे तो इसके कई जवाब हो सकते हैं।
बदलाव का इंतजार करने वाले लोग बेचैन होने लगे थे
किसी काम के लिए दो साल कितने कम या ज्यादा हैं इसे तय करना मुश्किल काम है। लेकिन इस बात में कोई शक नहीं कि पुरानी यूपीए सरकार को बेदखल करते समय इस सरकार ने सबसे ज्यादा यही बात कही थी कि आपने उन्हें 60 साल दिए, हमें 60 महीने देकर देखिए। इस बात से यह उम्मीद लगाना स्वाभाविक था कि यह सरकार जो जो काम कह रही है उसे एक एक करके करती चली जाएगी। गड़बड़ यह हो गई कि बहुत सारे कामों का ऐलान हो चुका था और सरकार बनने के बाद यह तय नहीं हो पाया कि सबसे पहले क्या शुरू करें। सब कुछ एक साथ शुरू कर डालने के ऐलान होने लगे। सरकार के पास पैसे उतने ही थे जितने हर साल होते थे। लिहाजा हो यही पाया कि अपने ढेरों वायदो को पूरा करने के लिए कार्यक्रमों के ऐलान में ही दो साल गुजर गए।
पानी और बेरोजगारी का काम बहुत ही बड़ा निकला
सामान्य प्रवृत्ति है कि अपने पास अक्ल और दूसरों के पास पैसा हमेशा ज्यादा ही दिखता है। मौजूदा सरकार जब विपक्ष में थी तो उसे भी यही क्यों नहीं लगता होगा। खासतौर पर पैसे के मामले में हिसाब लगाने में तो हद दर्जे का भ्रम हो गया। देश में पानी का इंतजाम और रोजगार बढ़ाने के लिए पैसे के जुगाड़ के लिए यह सोचा गया था कि भ्रष्टाचार खत्म करके दस लाख करोड़ रुपए तो चुटकी बजाते ही आ जाएंगे। यह बात ख़ामख्याली निकली और देश में पानी और बेरोजगारी का न्यूनतम काम इतना बड़ा निकला कि देश में 84 फीसद बारिश के बावजूद जहां तहां सूखा पड़ गया। देश का युवा वर्ग बेरोजगारी के हालात न सुधरने से बेचैन होने लगा।
मेक इन इंडिया के नारे ने हाथ पैर फुला दिए
मौजूदा सरकार के सलाहकारों ने ही यकीन दिलाया होगा कि इस मंदी के माहौल में भी विदेशी धन लाकर लोग भारतवर्ष में उद्योग धंधे लगाने आ जाएंगे। यह कहना झूठ होगा कि उन सलाहकारों से भूल हो गई। सही बात यह है कि वे झूठे निकले। भूल की बजाए झूठ का आरोप इस आधार पर है कि अर्थशास्त्र के समयसिद्ध नियमों के लिहाज से साघारण से साधारण निवेशक भी तब तक किसी भी उद्यम की बात सोच ही नहीं सकता जब तक उसमें बने माल के बिकने की गारंटी न हो। यूपीए सरकार के विशेषज्ञ एफडीआई योजना पर काम करते समय इस बारे में सोच चुके थे। बहरहाल मौजूदा सरकार के मेक इन इंडिया के नारे के जोर न पकड़ने से सरकार के हाथ पैर फूल रहे होंगे।
जब तक कोई नई उम्मीद नहीं जगती, ऐसे आयोजन सबसे अच्छा विकल्प हैं
वैश्विक अर्थजगत में नवीनतम खोज यह है कि अगर अर्थतंत्र की हालत अचानक नाजुक हो जाए तो कोई भी जोर लगाना उल्टा ही पड़ता है। इसीलिए विशेषज्ञों का सुझाव है कि कुछ देर के लिए कुछ न किया जाए। अंग्रेजी में इसे 'हैंड्स ऑफ' कहते हैं। यह काम पिछली यूपीए सरकार ने मंदी के दौर में किया था और वाकई कारगर रहा था। यह वही दौर था कि आर्थिक वृद्धि दर वक्त के साथ रिकार्ड तोड़ स्तर पर चली गई थी जिसके बारे में दिग्गज अर्थशास्त्रियों ने यह तर्क ढूंढा था कि उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं पर मंदी का असर नहीं पड़ता क्योंकि वहां मांग बढ़ाने की गुंजाइश होती है। लेकिन उभरती अर्थव्यवस्था का स्वाभाविक फायदा देश पिछली सरकार के समय उठा चुका है। जाहिर है उस स्थिति के फायदे की हम इतनी जल्दी फिर से होने की उम्मीद नहीं लगा सकते। जब तक कुछ नया ईजाद नहीं कर पाते तब तक हंसी खुशी वाले ऐसे ही जश्नों के जरिए माहौल बनाए रखना सबसे अच्छा विकल्प है।
चुपके चुपके कुछ ठोस भी करते रहना पड़ेगा
यह बात सही हो सकती है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के दौर में किसी भी देश के पास अकेले ज्यादा कुछ करने को होता नहीं है। वैश्विक बाजार ही अपने आप संतुलन बैठाता रहता है। लेकिन यह बात भी उतनी सही है कि मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था में देशों के बीच एक दूसरे के शोषण की शाश्वत प्रवृत्ति खत्म नहीं हो जाती। इसीलिए एक देश के तौर पर अपने हित को देखते रहना भी जरूरी होता है। जिस तरह से बेरोजगारी एक करोड़ युवा प्रतिवर्ष की रफ्तार से दौडती हुई आ रही है उससे बचने के लिए तो चुपके चुपके कुछ करते ही रहना पड़ेगा। चुपके-चुपके इसलिए क्योंकि समस्या इतनी बड़ी बनती जा रही है कि इससे पूरी तौर पर निपटना फिलहाल संभव नहीं दिखता। ज्यादा उम्मीदें बंधाने से और अब और ज्यादा ऐलानों से आपाधापी ज्यादा मचेगी। इसलिए ज्यादा शोर मचाए बगैर...
(सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं)
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