जो अंदेशा था, वही हुआ। बजट में शब्द ही शब्द भरे हैं, आंकड़े ढके-छिपे हैं। साफ-साफ पता नहीं चला कि सरकार ने खेती-किसानी पर ज्यादा गौर किया या उद्योग-व्यापार पर। इस बात का सबूत यह है कि सरकारी दावा भी संतुलित बजट के प्रचार का है। हालांकि कुछ दिनों से माहौल बनाया जा रहा था कि इस बार सरकार का ध्यान गांव, किसान और गरीबी पर होगा, और बजट देखकर यह बात भी सिर्फ कथनी साबित हुई। करनी में उद्योग-व्यापार बचाने पर ही ध्यान लगा दिखा। सरकार को संतुलित बजट का प्रचार करना पड़ा। ऐसे प्रचार के चक्कर में अब अंदेशा है कि मझोले तबके वाला उद्योग जगत भी मुंह फुलाकर बैठेगा। उनके निवेशक बजट भाषण के बीच में ही शेयर बेचने पर उतारू हो गए थे। वह तो बजट के सरकारी पक्ष वाले विश्लेषकों ने शेयर बाजार को जमीन से उपर उठाया। इधर किसान को तो बजट समझ में आने की कोई स्थिति है ही नहीं। वह तो सिर्फ अपने कर्जो की माफी के इंतजार में था। खेतिहर मजदूरों पर तरस खाने वालों को मनरेगा की रकम कम से कम दोगुनी होने की उम्मीद थी। दोनों ही निराश हुए।
वैसे, इसमें भी कोई शक नहीं कि देश की माली हालत उतनी अच्छी नहीं थी कि उद्योग-व्यापार जगत को छप्पर फाड़कर कुछ दिया जा सके। हां, इस बजट की सबसे बड़ी खासियत यह जरूर है कि बजट आश्वासनों और बहुत दूर के सपनों से भरा हुआ है। यानी अच्छे दिनों की उम्मीद को एक और साल आगे टिकाकर रखा गया है। किसानों को हाल के हाल कुछ मिलता नहीं दिखता। उसे यह आश्वासन थमाया गया है कि अगले पांच साल में उनकी आमदनी दोगुनी करने के लिए कुछ किया जाएगा।
किस आधार पर करें विश्लेषण...?
सिर्फ अपने देश में नहीं, पूरी दुनिया में सरकारों ने आर्थिक वृद्धि को ही अपने प्रदर्शन का आधार बना रखा है। अपने देश के मामले में अभी पक्का नहीं है, सिर्फ अनुमानित दावा है कि पिछले साल की आर्थिक वृद्धि दर सात से साढ़े सात फीसदी बैठेगी। इस अनुमान के आधार पर आगे का अनुमान यह लगाकर बताया गया है कि इस साल के बजट से यह बढ़कर अगले साल आठ फीसदी हो जाएगी। अगर यह सही भी निकल आए तो इस आंकड़े से खुशफहमी पैदा करते समय क्या जनता को यह भुला दिया जाएगा कि अभी चार साल पहले ही इससे ज्यादा आर्थिक वृद्धि दर की आलोचना हमने जोर-शोर से की थी। यह कहते हुए यूपीए सरकार की आलोचना की थी कि यह आर्थिक वृद्धि जॉबलैस, यानी रोजगारविहीन आर्थिक वृद्धि है। उस दौर में किसानों के कर्जे माफ करने, मनरेगा, कौशल विकास और सिंचाई परियोजनाओं पर ज्यादा खर्च किया गया था। सबसे ज्यादा आस मनरेगा की रकम दोगुनी बढ़ने की थी, लेकिन वह सिर्फ 34 से बढ़कर 38 हजार करोड़ ही की गई। इसे नगण्य ही माना जाएगा।
सरकार के आया तो छप्पर फाड़कर, फिर क्यों नहीं भरा खजाना...?
बजट पेश होने के ऐन पहले तक सबसे बड़ी जिज्ञासा बजट के आकार को लेकर थी। गैर-सरकारी अर्थशास्त्रियों का तर्कपूर्ण अनुमान था कि इस बार बजट का आकार बढ़कर कम से कम डेढ़ गुना हो जाएगा। उनका तर्क था कि टूजी-थ्रीजी जैसे आवंटनों, कोयला खदानों की भ्रष्टाचारमुक्त नीलामियों से पांच-सात लाख करोड़ की आमदनी बढ़ेगी, लेकिन यह आमदनी बढ़ी नहीं दिखी। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम एक चौथाई रह जाने से सरकार का खर्चा खूब कम होने से कई लाख की बचत अलग से हुई, लेकिन बजट आकार में बढ़ोतरी नहीं दिखने को हैरत ही माना जा रहा है। बजट आकार न के बराबर बढ़ना यह बताता है कि सरकार अपने सुशासन से आमदनी नहीं बढ़ा पाई। आमदनी न बढ़ पाने के पीछे क्या कारण बताए जाएंगे, इस रहस्य को जांचने-समझने में अभी समय लगेगा।
इस बजट के तथ्यों से अभी यह साफ नहीं हो पाया है कि गांव-किसान और गरीबी के मोर्चे पर काम करने के लिए पैसे का टोटा क्यों पड़ गया। साथ ही बेरोजगारी मिटाने का सबसे बड़ा काम फिर क्यों टल गया। किसान को सिंचाई के इंतजाम की उम्मीद थी। अगले साल पूरे देश में सिंचाई के इंतजाम के लिए सिर्फ 19,000 करोड़ का जिक्र है। छह लाख गांवों के खेतों तक यह सुविधा बढ़ाने के लिए कम से कम दो लाख करोड़ का खर्चा बताया जाता है। सिंचाई की मंजूरशुदा परियोजनाओं पर ही काम शुरू करने के लिए एक लाख करोड़ रुपये कम बैठते हैं।
अमीरों का पलड़ा भारी करने की चतुराई
ऐसा नहीं है कि बजट भाषण की चतुराइयां पकड़ी न जा पाएं। मसलन, गांव-किसान और गरीबों को बजट के जरिये मदद पहुंचाने के लिए जो कुछ किए जाने का दावा है, वह रकम क्या सीधे-सीधे गांव, किसान, गरीबों को नहीं पहुंचाई जा सकती थी। ग्रामीण अर्थव्यवस्था के सुधार के नाम पर निजी क्षेत्र और पीपीपी के रास्ते से रकम खर्च करने का तरीका क्या सरकार की चतुराई की तरफ इशारा नहीं कर रहा है। आधारभूत ढांचे और खासतौर पर हाईवे के लिए और दूसरे शहरी कामों के लिए कोई छह लाख करोड़ का खर्चा होगा। भले ही भाषण में इसका प्रचार जरा दबी जुबान से किया गया। छह लाख गांवों में, यानी ग्रामीण विकास के लिए सिर्फ 85,000 करोड़ सुनकर विश्लेषकों को चौंककर पूछना चाहिए कि यह बजट किस तरह गांव पर जोर देने वाला बजट साबित किया जा सकता है।
गरीबों को झुनझुना
देश के ज्यादातर गरीब, किसान और खेतिहर मजदूर ही हैं। मौजूदा हालात में गरीब के घर को गांव पुकारा जाने लगा है। सवाल यह बनता है कि गरीबों के घर, यानी गांव को इस बजट से क्या मिला...? हमेशा से उसे जो मिलता आया है, उसे मुहावरे की भाषा में झुनझुना कहा जाता रहा है। क्या उसके खेत की मिट्टी के परीक्षण की रिपोर्ट उसे देना उसे झुनझुना थमाना नहीं होगा। वैसे देश के ज्यादातर जिलों में दसियों साल से भूमि संरक्षण और मृदा परीक्षण करने वाले कर्मचारी पहले से काम पर लगे हैं, और कौन-सा ऐसा किसान है, जिसे पता न हो कि उसके खेत में अच्छे से क्या उगता है। उसकी असली जरूरत पानी, खाद और बीज की है। इसके लिए उसे हर साल समय पर पैसे की जरूरत पड़ती है। उसके बाद उसे अपनी मेहनत से उपजाई फसल के वाजिब दाम की उम्मीद होती है। इस बजट में इन उम्मीदों के पूरे होने का प्रबंध कहां दिखता है...? न्यूनतम समर्थन मूल्य तक का कहीं जिक्र नहीं आया। उसे बैंक से कर्ज लेने के लिए नौ लाख करोड़ के आंकड़े के जिक्र की तुक क्या है। सबको पता है किसानों की अब और कर्ज लेने की हैसियत चुक गई है। इन सवालों के जवाब बजट के शब्दों से नहीं, बल्कि वस्तुनिष्ठ आंकड़ों से मिल सकते है। इन आंकड़ों को तफसील से समझाने में विशेषज्ञों को अभी कई घंटे लगेंगे। पुराने वित्तमंत्रियों, शिक्षित-प्रशिक्षित सांसदों और मीडिया के जागरूक तबके पर यह बड़ी जिम्मेदारी है कि हर बार की तरह हिसाब लगाकर समझाएं कि गांव, किसान और गरीब को वाकई क्या मिला।
बजट के फौरी असर का अंदाजा
देश के मौजूदा हालात देखते हुए एक अंदेशा यह भी है कि देश की दशा और दिशा तय करने वाले इस बजट का विश्लेषण करने का पर्याप्त समय ही न मिले। बजट से ज्यादा दूसरे मुद्दों में उलझाए जाने की स्थिति बन सकती है। बजट पर ज्यादा बातचीत को टलवाया जा सकता है, लेकिन इसके असर को टाला नहीं जा पाएगा, इसलिए रस्म के तौर पर ही सही, यह तो देखना ही पड़ेगा कि क्या यह बजट सिर पर आ खड़ी हुई भयावह बेरोजगारी की समस्या की अनदेखी तो नहीं कर गया। डेढ़-दो महीने बाद ही आने वाली फसल, देशभर में चौतरफा पानी का संकट, बैंकों के दरवाजों पर कर्ज मांगने वाले किसानों की भारी भीड़, बेरोजगारों का सैलाब कहीं इस बजट की नाकामी के तौर पर हमारे सामने न आ जाएं। बजट के फौरी असर का अनुमान लगाने वालों को अभी से यह भी सोचकर रख लेना चाहिए कि अगर 'मेक इन इंडिया' का दांव फिट न बैठा तो किस तरह की अफे-दफे हो सकती है। उस आर्थिक आपदा प्रबंधन की योजना क्या अभी से सोचकर नहीं रखी जानी चाहिए...?
सरकार के बाकी बचे तीन साल पर इस बजट का असर
इस तरह के बजट ने सरकार के बाकी बचे तीन साल की मजबूरियों को काफी कुछ उजागर कर दिया है। मसलन, मौजूदा सरकार ने साफ कह दिया है कि किसान की अच्छी हालत अब से पांच साल बाद, यानी 2022 में बनेगी। बजट पेश होने के एक रोज पहले ही प्रधानमंत्री ने कहा है कि 2022 में किसान की आमदनी दोगुनी हो जाएगी। पांच साल बाद भी हो कैसे जाएगी, इसका जिक्र लगभग गायब है। बजट भाषण में भी इसे दोहराया गया। देश में अच्छी आर्थिक वृद्धि दर के लिए भी तीन-चार साल का समय बताया गया है। ये बातें हमें यह निष्कर्ष निकालने का आधार दे रही हैं कि इस बजट का इस सरकार के बचे समय पर कोई अच्छे असर होने के लक्षण नहीं दिखते। जरा तल्खी से कहा जाए तो इस बजट को हम मुश्किल हालात से जान छुड़ाने की कवायद भर कह सकते हैं। इस तरह हमारे पास 'मेक इन इंडिया' के लिए आने वाले संभावित विदेशी निवेश की बाट जोहने के अलावा और कोई विकल्प हैं नहीं। आर्थिक वृद्धि की उम्मीद के लिए एक विकल्प फीलगुड का माहौल बनाए रखना जरूर है, लेकिन मैक्रो-इकोनॉमिक्स के ज्ञाता बताते हैं कि यह उपाय ज्यादा देर टिकता नहीं है, और फीलगुड से जो कुछ लाभ उठाया जाना था, वह पिछले दो साल में उठाया जा चुका है। फीलगुड का आसरा कब तक रह पाएगा...?
बैंकों की हालत का सवाल
वैसे बजट के आंकड़ों में घपले की गुंजाइश कम रहती है, लेकिन इस बार के बजट के हिसाब-किताब में एक मद ऐसी भी है, जिसमें थोड़ी-सी भी हेरफेर निकट भविष्य में बड़ा बखेड़ा खड़ा कर सकती है। वह मद है सरकारी बैंकों की भारी रकम बट्टे खाते में चली जाना। ऐसा हादसा बेशक किसी घपले की श्रेणी में न रखा जा सके, लेकिन इस रकम की मात्रा अगर गलत निकल आए तो बहुत ही बड़ा बखेड़ा खड़ा हो जाएगा। मसलन, कुछ हफ्ते पहले ही बैंकों के बट्टेखाते वाली रकम का अंदाजा कोई चार-पांच लाख करोड़ का लगाया जा रहा था, और इससे सनसनी फैल रही थी। फिर सुनने में आया कि रिजर्व बैंक गंभीरता से हिसाब लगवा रहा है। फिर उड़ती खबर मिली कि किसी तरह से समायोजन दिखाकर इसकी मात्रा को निचले स्तर पर दिखाया जाए। कहते हैं, बैंकों को इशारों में सलाह दी गई कि नियमों के मुताबिक जिन कर्जो की वसूली को अब एनपीए के खाते में डाला जाना है, उन्हें नई किस्ते बांधकर आगे वसूली की उम्मीद वाला दिखा दिया जाए। बैंक वालों की भाषा में इस करनी को री-स्ट्रक्चरिंग कहते हैं। यह री-स्ट्रक्चरिंग कुल कर्जे की दो-तीन फीसदी भी हुई तो एनपीए यानी बट्टेखाते की रकम पौने चार लाख करोड़ के अनुमान से बढ़कर सात-आठ लाख करोड़ तक पहुंच जाने का अंदेशा होगा। और अगर यह सही हुआ तो बजट का सारा हिसाब-किताब बेमानी साबित होते देर नहीं लगेगी। गौरतलब है कि रिजर्व बैंक ने सरकारी बैंकों को अपने हिसाब दुरुस्त करने की समझाइश दे रखी है। मामला कितना गंभीर है, यह इस बात से पता चलता है कि बजट में बैंकों को प्रतीकात्मक राहत के लिए सिर्फ 25 हजार करोड़ दिए गए हैं। इतनी-सी रकम सुनकर शेयर बाजार में बैंकों के शेयर अगले दो मिनट में ही औंधे मुंह गिर पड़े।
आर्थिक इमरजेंसी के हालात में सलाह-मशविरा किससे करें...?
वास्तविक हालात कितने भी भयावह हों, हाथ-पैर फुलाने से तो कुछ होगा नहीं। अगर वास्तविकता को कबूल कर लिया जाए तो इत्मीनान से बैठकर सोचा भी जा सकता है। समस्या के समाधान के लिए प्रबंधन प्रौद्योगिकी के प्रशिक्षित विशेषज्ञ देश में उपलब्ध हैं, जो भले ही खुद कोई समाधान न सुझा पाएं, लेकिन समष्टिभाजी अर्थशास्त्र और राजनीतिक अर्थशास्त्र के विद्वानों को बिठाकर सार्थक वैज्ञानिक विमर्श यानी ब्रेन स्टॉर्मिंग करवाने में पटु हैं। इसी विमर्श में पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह को भी बिठाया जा सकता है, जिन्होंने एक समय कहा था कि पैसे पेड़ पर नहीं उगते। जिन्होंने एक बार यह भी कहा था कि हमें किफायत बरतने की बातें शुरू कर देनी चाहिए। ऐसे विद्वानों के सोच-विचार से ही आसन्न संकट से निकलने का कोई रास्ता पकड़ में आ सकता है, वरना कहीं ऐसा न हो कि आर्थिक दुर्घटना की स्थिति में हम अफसोस मनाएं कि पहले सोचा जाना चाहिए था। वैसे माली हालत का यह संकट सिर्फ विश्लेषकों को ही दिख रहा है। सरकार का अपना काम फीलगुड से चलता ही चला आ रहा है।
सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं...
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This Article is From Feb 29, 2016
हकीकत को छिपाकर ख्वाब दिखाता बजट 2016
Sudhir Jain
- ब्लॉग,
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Updated:फ़रवरी 29, 2016 16:01 pm IST
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Published On फ़रवरी 29, 2016 15:50 pm IST
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Last Updated On फ़रवरी 29, 2016 16:01 pm IST
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