जनता में लोकसभा चुनाव का कौतूहल बढ़ता जा रहा है. राजनीतिक दलों की हलचल शबाब पर है. आजाद भारत के इतिहास में पहली बार दिख रहा है कि मीडिया ने अपना भूत, वर्तमान, भविष्य सब कुछ झोंक दिया है. लेकिन फिर भी यह अभी तक साफ नहीं हो पाया कि चुनाव का मुख्य मुद्दा क्या बनेगा. पहले ऐसा कभी नहीं हुआ कि चुनाव में गिनती के दिन बचे हों और यह पता न चले कि मुख्य मुद्दा क्या बनेगा. हो सकता है, चुनावी पंडितों ने कुछ भांप लिया हो, लेकिन वे अभी बता न रहे हों. हो यह भी सकता है कि इसका इंतजार किया जा रहा हो कि पहले गठबंधनों की एक निश्चित शक्ल बन जाए फिर वाकयुद्ध शुरू हो. फिर भी सत्ता और विपक्ष की तरफ से माहौल बनाए रखने के लिए अब तक जो कहा गया है, उससे एक मुद्दा ज़रूर निकलकर आ रहा है - वह है, सरकार हटाओ या सरकार बचाओ.
इस मुद्दे पर गजब की आमराय : वाकई यह हैरत की बात है. सत्ता और विपक्ष दोनों ने बेहिचक मान लिया है कि मोदी सरकार को हटाना या बचाए रखना ही मुददा है. यह भी कम हैरत की बात नहीं है कि इसकी शुरुआत सत्ता की तरफ से हुई थी. शायद माहौल को भांपते हुए, सबसे पहले सत्तारूढ़ों ने ही कहना शुरू किया था कि विपक्ष मोदी सरकार को हटाना चाहता है. हालांकि सत्तारूढ़ों की इस बात का मज़ाक भी उड़ा था. मज़ाक इसलिए उड़ा था कि यह सार्वभौमिक और सार्वकालिक तथ्य है कि राजनीति में विपक्ष हमेशा यही चाहता है. जबकि मुद्दे वे कारण बनते हैं कि सरकार को क्यों हटाना चाहिए. हालांकि इस बार सरकार को हटाने के लिए ढेरों मुद्दे बनकर तैयार हो चुके हैं. खासतौर पर पिछले चुनाव में जो नारे लगाकर यह सरकार सत्ता में आई थी, वे नारे ही चुनावी मुद्दे के तौर पर तैयार हैं. मसलन युवाओं को नौकरी के सपने, किसानों, छोटे कारोबारियों की खुशहाली के वादे, भ्रष्टाचार मिटाने और ऐसे ही ढेरों अन्य वादे. सरकार हटाने के लिए उन्हीं वादों-नारों को इस बार चुनावी मुददा बनना था, बन रहे हैं और आखिर में बनेंगे भी. लेकिन फिलहाल मीडिया के सजाए चुनावी बाज़ार में भाव गठबंधन के मुददे का ज्यादा है. खासतौर पर विपक्षी दलों के गठबंधन के मुददे का. जबकि इस बात में चुनावी मुददे के तत्व ही नहीं दिखते.
यह क्यों नहीं बन सकता चुनावी मुददा : गठबंधन भारतीय राजनीति में साधारण-सी बात हो चुकी है. सत्तापक्ष हो या विपक्ष, उसमें तरह-तरह के राजनीतिक दल शामिल हैं. कोई भी दावा नहीं कर सकता कि वह अकेले बाकी सब से लड़ लेगा. भारत जैसे लोकतंत्र में तो बिल्कुल भी नहीं. वैसे लोकतंत्र में जहां जाति और धर्म के आधार पर अन्याय और शोषण होने लगा हो, गरीब और अमीर की खाई अचानक चौड़ी हो गई हो और कृषि और उद्योग के बीच खुल्लमखुल्ला भेदभाव बढ़ चला हो. क्षेत्र, भाषा, खानपान की विविधताओं और हद दर्जे की आर्थिक विषमताओं वाले लोकतांत्रिक देश में सबके हितों का प्रतिनिधित्व करने के लिए ईजाद की गई गठबंधन की नायाब राजनीति को एक राजनीतिक वरदान क्यों न माना जाए? और अगर राजनीतिक दर्शन के लिहाज़ से देखें तो लोकतंत्र में भिन्न-भिन्न विचारधाराओं को स्वीकार किया जाता है. इस आधार पर भिन्न-भिन्न विचारधाराओं के बीच साम्य के लिए गठबंधन से अच्छा विकल्प हो भी क्या सकता है. और जब पक्ष और विपक्ष के लगभग सभी राजनीतिक दल गठबंधन के दर्शन को स्वीकार कर रहे हों, तो इसे लोकतंत्र का शुक्लपक्ष ही कहा जाना चाहिए. लेकिन इस विषय पर अगर सर्वसम्मति हो, तो वह चुनावी मुददा तो बिल्कुल नहीं बन सकता. यानी चुनाव का वास्तविक मुख्य मुददा या मुद्दे तय होना अभी बाकी हैं.
लेकिन इतना तय है : सांप्रदायिकता का उफान मुद्दा बनेगा ही. अचानक भयावह हो उठी बेरोज़गारी चुनावी मुद्दा बने बगैर रह नहीं सकती. देश की आधी से ज्यादा आबादी वाले गांव या किसान मुददा बनेंगे ही. एक अलग तरीके से देश की आधी आबादी, यानी महिलाओं का दुःख शायद पहली बार चुनावी मुददों की लिस्ट में शामिल होने जा रहा है. राजनीति में शाश्वत बन चुका भ्रष्टाचार का मुददा इस बार के चुनाव में भी बेदखल नहीं हो पाएगा, मसलन नोटबंदी और राफेल. लोकसभा चुनाव में क्षेत्रीय और स्थानीय स्तर के तमाम मुददों को उठाए जाने से कोई भी कभी भी रोक नहीं पाया, सो, वे इस बार भी रहेंगे, बल्कि इस बार कुछ ज्यादा तीव्रता के साथ उठ खड़े हो सकते हैं, क्योंकि इस बार विपक्ष के गठबंधन का मुख्य आधार क्षेत्रीय आकांक्षाओं को प्रतिनिधित्व देना है.
और यह भी तय है : पांच साल के लिए देश की मैनेजरी का लाइसेंस पाए सत्तारूढ़ों के पास से यह कहने का मौका जाता रहा है कि वह देश में घी-दूध की नदियां बहा देंगे. वैसे भी लगभग ऐसा ही नारा लगाकर वे सत्ता में आए थे. यानी विपक्ष को अपनी तरफ से ज्यादा सपने दिखाने या ज्यादा वायदे ओढ़ने की जरूरत ही नहीं पड़नी चाहिए. विपक्षी गठबंधन के पास सत्तारूढ़ों के पिछले वादों को याद दिलाते रहने का जायज़ और सुनहरा मौका उपलब्ध है. सत्तारूढ़ों की मज़बूरी होगी कि वे कच्चे-पक्के जो भी पारंपरिक बचाव उपलब्ध हैं, उन्हीं में लगे रहें, और अगर वे बचाव करने में कमजोर पड़ गए, तो इसके अलावा चारा ही क्या बचता है कि अपनी तरफ से और अपने तरफदार मीडिया के ज़रिये विपक्ष की विश्वसनीयता पर सवाल उठवाते रहें.
सरकार की एक और मुश्किल : सत्तारूढ़ पक्ष इस समय निश्चित ही अपनी मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के धैर्यधारण से बेहद परेशान होंगे. कांग्रेस ने अपनी अनुभवी बुद्धिमत्ता से खुद को विपक्षी गठबंधन की अगुवाई करने से बचाए रखा. अपने समय, ऊर्जा, संसाधन और साख बचाते हुए उसने गठबंधन का काम स्वाभाविक रूप से होने दिया. कांग्रेस ने ज्यादा दखल नहीं दिया. इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि विपक्षी गठबंधन का जो भारी-भरकम काम अब तक निपटा है, वह कांग्रेस के हित में भी जाता है. लिहाज़ा सत्तारूढ़ गठबंधन आज तक अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस पर हमलों का मौका ही नहीं निकाल पा रहा है. चुनावी विश्लेषकों को भूलना नहीं चाहिए कि आज तक लोकसभा की जिन 115 सीटों पर सीधा मुकाबला तय दिख रहा है, उनमें ज्यादातर सीटों पर सत्तारूढ़ों को सीधी टक्कर कांग्रेस से ही लेनी पड़ेगी. इतना ही नहीं, कांग्रेस ने बाकी 430 सीटों पर सभावित गठबंधन के साथ रणनीतिक साझीदारी के विकल्प बचाकर रखे हैं.
कुल मिलाकर चुनाव पूर्व गठबंधन में जितने झंझट होते हैं, उतने इस बार दिख नहीं रहे हैं. कम से कम यह तो तय हो ही गया है कि कौन-कौन से विपक्षी दल अपने-अपने साझीदारों के साथ बैठने-चलने को तैयार हैं. यानी यह अनुमान लगाने का एक बड़ा आधार उपलब्ध है कि अगर विपक्षी दलों के एक से ज्यादा गठबंधन भी बने, तो उन गठबंधनों के बीच भी साझेदारी का विकल्प अभी खुला हुआ है. खैर, देखते हैं कि गठबंधन या गठबंधनों की आखिरी शक्ल क्या बनती है.
सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं...
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