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शिबू सोरेन: कोई ऐसे ही नहीं बनता है दिशोम गुरु, झारखंड कैसे करेगा याद

अनुज सिन्हा
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 04, 2025 17:58 pm IST
    • Published On अगस्त 04, 2025 17:07 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 04, 2025 17:58 pm IST
शिबू सोरेन: कोई ऐसे ही नहीं बनता है दिशोम गुरु, झारखंड कैसे करेगा याद

दिशोम गुरु शिबू सोरेन नहीं रहे. देश के सबसे बड़े आदिवासी जननेता का जाना भारतीय राजनीति खास कर आदिवासी राजनीति को प्रभावित करेगी. शिबू सोरेन का क्या कद था, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब वे बीमार होकर दिल्ली के अस्पताल में भर्ती थे तो उनके स्वास्थ्य की जानकारी लेने के लिए राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू खुद अस्पताल गई थीं. सिर्फ झारखंड मुक्ति मोर्चा या उसके सहयोगी दल के नेता ही नहीं, भारतीय जनता पार्टी के बड़े-बड़े नेता (इसमें गड़करी भी शामिल थे), भी गुरुजी का हाल जानने के लिए अस्पताल गए थे. उनका यह सम्मान था. पदों से ऊपर. झारखंड के अभिभावक के तौर पर उनकी पहचान रही है. एक ऐसा व्यक्ति जिसने अपना पूरा जीवन झारखंड राज्य के निर्माण-पुनर्निर्माण और महाजनी प्रथा को खत्म करने में लगा दिया, जिसने पूरे झारखंड को अपना परिवार माना, जिसने आदिवासी समाज को मान-सम्मान के साथ जीना सिखाया, जिसने आदिवासी समाज के उत्थान के लिए संघर्ष किया, सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए सामाजिक आंदोलन चलाया, उस व्यक्ति का नहीं रहना झारखंड के लिए असहनीय है.

गुरु जी से अंतिम मुलाकात

इसी साल 11 जनवरी को गुरुजी से मेरी अंतिम मुलाकात हुई थी. उस दिन उनका जन्मदिन था. लगभग 38 साल का मेरा संबंध रहा. यह संबंध एक आंदोलनकारी-राजनेता और पत्रकार का ही नहीं, उससे बढ़ कर था. लंबे समय तक उनका साथ रहा. गुरु जी को बेहतर तरीके से समझा था. यही कारण था कि देश-दुनिया को उनके बारे में बताने के लिए मैंने 'दिशोम गुरु: शिबू सोरेन' नामक किताब लिखी. कारण था देश को असली शिबू सोरेन के बारे में बताना. उनके संघर्ष, उनके योगदान और उनकी महत्ता को ध्यान में रखते हुए मैंने यह काम किया था. इस किताब का विमोचन खुद शिबू सोरेन और उनके पुत्र हेमंत सोरेन ने किया था. उनके प्रति श्रद्धा और पत्रकारिता में अपनी जिम्मेवारी निभाने का यह एक प्रयास रहा.

शिबू सोरेन गुरुजी दिल के साफ व्यक्ति थे, छल-कपट से दूर, जो मन में बात है, वही जुबान पर भी रहती थी.

शिबू सोरेन गुरुजी दिल के साफ व्यक्ति थे, छल-कपट से दूर, जो मन में बात है, वही जुबान पर भी रहती थी.
Photo Credit: Special Arrangement by Anuj Sinha

गुरुजी का जो मान-सम्मान मिलता है, वह मुख्यमंत्री रहने या केंद्रीय मंत्री रहने के कारण नहीं बल्कि उस संघर्ष के कारण जिसने महाजनी प्रथा को खत्म कराया, जिसने अलग झारखंड राज्य दिलाया, जिसने अन्याय के खिलाफ संघर्ष कर आदिवासियों को मान-सम्मान दिलाया.  उनके जीवन का बड़ा हिस्सा संघर्ष के दौरान पहाड़ों और जंगलों के बीच गुजरा. नेमरा से निकल कर देश के सबसे बड़े आदिवासी जननेता के तौर पर खुद को स्थापित करना कोई मामूली बात नहीं बल्कि बड़ी उपलब्धि है. 

 झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन

गुरुजी जमीनी हकीकत को बेहतर जानते थे और जानने का प्रयास भी करते थे. सही मामले में लोकतांत्रिक थे. सलाह लेते, जानकारी लेते, फिर निर्णय लेते थे. मुझे उनका स्नेह बराबर मिला. जमशेदपुर जब भी आते, जरूर मुलाकात होती. एक बार तो खुद मिलने के लिए प्रभात खबर (जहां मैं संपादक था) के दफ्तर में आ गए. वर्ष 2000 में एक बार हटिया-हावड़ा ट्रेन जब जमशेदपुर पहुंची तो ट्रेन को रुकवा कर मुझे देर रात में बुला लिया और ट्रेन में ही झारखंड से जुड़ी कुछ बात की. मैं एक सामान्य पत्रकार पर गुरुजी का मुझ पर इतना भरोसा था कि अपने राजनीतिक जीवन के कई बड़े फैसलों में उन्होंने मेरी राय ली और मैंने पूरी ईमानदारी से उन्हें अपनी राय दी. उन्हें खुश करने के लिए कभी मैंने कोई राय नहीं दी. इतने बड़े नेता ने मुझ पर इतना भरोसा किया, यही मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है. उनके बारे में सैकड़ों स्मृतियां-जानकारियां हैं जिनमें कुछ का उल्लेख आज करुंगा.

शिबू सोरने आंदोलन करते थे तो परिवार को संभालने की जिम्मेदारी पत्नी रूपी सोरेन को सौंप दिया था.

शिबू सोरने आंदोलन करते थे तो परिवार को संभालने की जिम्मेदारी पत्नी रूपी सोरेन को सौंप दिया था.

Photo Credit: Special Arrangement by Anuj Sinha

गुरुजी नब्ज को पहचानते थे. किस समय, कौन सा निर्णय लेना है, इसे बखूबी जानते थे. राज्य और झारखंडियों के हित को सबसे ऊपर मानते थे. बिनोद बिहारी महतो और एके राय के साथ मिल कर झारखंड मुक्ति मोर्चा नामक इतना मजबूत संगठन बनाया, जिसने बाद में झारखंड की सत्ता संभाली. निर्मल महतो को खोज कर निकाला और उन्हें भरपूर सम्मान दिलाया. खुद अध्यक्ष न बन उन्हें अध्यक्ष बनाया. सच्चे लीडर यानी जमीन पर उतर कर उन्होंने झारखंड आंदोलन या धनकटनी आंदोलन का नेतृत्व किया था. पारसनाथ की पहाड़ियों और जंगलो में रह कर लोगों को एकजुट किया था. सिर्फ राजनेता या आंदोलनकारी ही नहीं, समाज सुधारक के तौर पर भी गुरुजी को याद किया जाएगा. आदिवासी समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने का आंदोलन उन्होंने चलाया था. खुद कभी शराब नहीं पी. शराबबंदी के लिए गांव से लेकर संसद तक में आवाज उठायी. शुद्ध शाकाहारी. मांस-मछली का सेवन नहीं करते थे और बिल्कुल सादा जीवन जीने में विश्वास किया. संथालों को शिक्षित करने के लिए रात्रि पाठशाला खोली और खुद भी पढ़ाया, सामूहिक खेती का मॉडल बनाया और त्योहारों पर अधिक पैसा खर्च करने के बजाय उसे बच्चों की पढ़ाई पर खर्च करने के लिए प्रेरित किया.

शिबू सोरेन ने कई बार कोई फैसला कोई से पहले इस लेख के लेखक अनुज सिन्हा की राय ली.

शिबू सोरेन ने कई बार कोई फैसला कोई से पहले इस लेख के लेखक अनुज सिन्हा की राय ली.
Photo Credit: Anuj Sinha

कार्यकर्ताओं और सहयोगियों का सम्मान

गुरुजी दिल के बिल्कुल साफ व्यक्ति थे, छल-कपट से दूर, जो मन में बात है, वही जुबान पर भी. कोई दोहरा चरित्र नहीं. किसी से नाराजगी हुई तो पीठ पीछे बोलते नहीं थे, सामने ही उसको डांट देते या जो  बोलना होता था, बोल देते थे. कोई बुरा माने तो माने, फर्क नहीं पड़ता था. अपने पुराने सहयोगियों को भूलते नहीं थे. हाल-हाल तक उनके पुराने साथी अगर उनसे मिलने आ जाते, तो पूरा सम्मान देते और जाते समय गाड़ी भाड़ा तक के बारे में पूछते या सहयोगियों के पाकेट में कुछ राशि रख देते. सबसे बड़ा सम्मान मानते थे.

शिबू सोरेन झारखंडियों के हित को सबसे ऊपर मानते थे.

शिबू सोरेन झारखंडियों के हित को सबसे ऊपर मानते थे.
Photo Credit: Special Arrangement by Anuj Sinha

गुरुजी सभी को बराबर मानते थे. बाहरी-भीतरी में फर्क नहीं करते थे. कर्म के बल पर फर्क करते थे. बिहारी हो या अन्य राज्य का, अगर उसने झारखंड का अहित नहीं किया, झारखंड के लिए लड़ा तो उसे सबसे ज्यादा मानते थे. अगर झारखंड का ही हो, आदिवासी भी हो और अगर उसने झारखंड विरोधी कार्य किया तो उस पर भरोसा नहीं करते थे. साल 1975 में समर्पण के बाद गुरुजी धनबाद जेल में थे तो गीता नाम की एक बिहारी महिला को छठ पूरा कराने के लिए गुरुजी ने सारे कैदियों को एक शाम उपवास रखने के लिए तैयार किया था. इससे जो पैसा बचा था, उससे गीता ने छठ किया था. ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं. झारखंड में जब डोमिसाइल का आंदोलन चल रहा था, रांची-जमशेदपुर में पुलिस फायरिंग में पांच लोग मारे गए थे. झारखंड जल रहा था और गुरुजी ने बंदी का आह्वान किया था. उस दिन जब फोन पर मैंने उनसे बात की तो गुरुजी ने बंदी वापस लेने का फैसला कर लिया ताकि झारखंड जलने से बच सके. गुरुजी हिंसा में नहीं बल्कि शांति से मामले को सलटाने में विश्वास करते थे.

महिलाओं का सम्मान

धनकटनी आंदोलन और झारखंड आंदोलन के दौरान भी उनका स्पष्ट आदेश था कि खेत की लड़ाई खेत में होगी, किसी के घर में घुस कर कोई कार्रवाई नहीं होगी, अगर महाजन का भी परिवार भी हो, तब भी किसी महिला के साथ कोई भी दुर्व्यवहार नहीं करेगा, उनका सम्मान करेगा. उनका यह आदेश बताता है कि महिलाओं की वे कितनी इज्जत करते थे. यही कारण है कि गुरुजी के पूरे आंदोलन के दौरान किसी भी महिला के साथ कोई अप्रिय घटना नहीं घटी.

शिबू सोरेन ने अपने आंदोलन के दौरान महिलाओं के सम्मान का पूरा ख्याल रखा.

शिबू सोरेन ने अपने आंदोलन के दौरान महिलाओं के सम्मान का पूरा ख्याल रखा.
Photo Credit: Photo Credit: Special Arrangement by Anuj Sinha

जो भी हो, शिबू सोरेन यानी गुरुजी यानी दिशोम गुरु का कद इतना बड़ा है जिस तक पहुंचना किसी और के लिए असंभव है. स्वार्थ से दूर. आंदोलन में पूरा समय लगाया और परिवार देखने का जिम्मा अपनी पत्नी रूपी सोरेन को सौंप दिया. जब उन्हें लगा कि उनका स्वास्थ्य अब ठीक नहीं चल रहा तो उन्होंने धीरे-धीरे सारी जिम्मेवारी अपने पुत्र हेमंत सोरेन को सौंप दीं. जब गुरुजी इस बार बीमार पड़े तो मुख्यमंत्री पद की जिम्मेवारी निभाते हुए हेमंत सोरेन ने पुत्र का भी दायित्व बखूबी निभाया. अपना पूरा समय अस्पताल में उनकी देख-रेख में बिताया. तमाम प्रयास के बाद भी इस बार गुरुजी को बचाया नहीं सका. गुरुजी का जाना एक युग का अंत है. सच तो यही है कि गुरुजी की कमी को भरा नहीं जा सकता.

अस्वीकरण: लेखक झारखंड के वरिष्ठ पत्रकार हैं. उन्होंने 'दिशोम गुरु: शिबू सोरेन' शीर्षक से शिबू सोरेन पर किताब लिखी है. इस लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.
 

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