लेकिन शेन वॉर्न ने लय में आने में और बल्लेबाज़ों को उनकी हैसियत बताने में ज़्यादा समय नहीं लिया. उसी साल मेलबॉर्न टेस्ट में हेंस, ब्रायन लारा और रिचर्डसन जैसे बल्लेबाज़ों से सजी वेस्ट इंडियन टीम ने पहली बार उनकी घूमती गेंदों का असली जादू देखा. टेस्ट की दूसरी पारी में उन्होंने सात विकेट लिए.इसके बाद तो दुनिया भर के क्रिकेट के मैदानों पर शेन वॉर्न की तूती बोलती रही. कुल 145 टेस्टों में उन्होंने 708 विकेट लिए और 194 वनडे मैचों में 293 विकेट. यानी अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में कुल 1001 विकेट. मगर ये आंकड़े नहीं हैं जो शेन वॉर्न को महान बनाते हैं. आंकड़ों के लिहाज से मुथैया मुरलीधरन उन पर भारी पड़ते हैं, जिन्होंने टेस्ट मैचों में 800 से ज़्यादा विकेट लेने का करिश्मा किया.
बेशक, उनकी एक आलोचना यह की जाती रही कि उन्होंने ज़्य़ादातर विकेट श्रीलंका के मैदानों में लिए. लेकिन इस आलोचना का भी अर्थ नहीं है. मुरलीधरन अपनी तरह के अजूबा गेंदबाज रहे और क्रिकेट में यह बहस हमेशा चलती रही कि वॉर्न महान या मुरलीधरन. बेशक, अपने अनिल कुंबले इनसे कुछ ही पीछे थे और उन्होंने भी 600 से ज्यादा टेस्ट विकेट लिए थे. लेकिन इस त्रिमूर्ति ने नब्बे के दशक के अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में अपना दबदबा कुछ इस तरह बनाया कि क्रिकेट में स्पिन गेंदबाज़ी को नए सम्मान के साथ देखा जाने लगा.
दरअसल शेन वॉर्न के होने का मोल यही था. वे टॉमसन और लिली जैसे तेज़ गेंदबाज़ों के दौर में थे. मैकग्रा और ब्रेटली के समकालीन. वे ऐसे दौर में हुए थे जब स्पिन गेंदबाज़ी को हमेशा-हमेशा के लिए ख़त्म माना जा रहा था. सत्तर और अस्सी के दशकों में सिर्फ भारतीय टीम के पास स्पिनर होते थे. भारत में बेदी, चंद्रशेखर, प्रसन्ना, और वेंकट राघवन का जलवा ज़रूर था मगर माना जाता था कि वे टेस्ट मैच नहीं जिता सकते. उन दिनों दुनिया की अजेय मानी जाने वाली टीम वेस्टइंडीज के तेज़ गेंदबाज़ों का ख़ौफ़ था लेकिन उनके पास कोई हार्पर-हूपर के बावजूद कोई विश्व स्तरीय स्पिनर नहीं था. इंग्लैंड में अंडरवुड ज़रूर होते थे, लेकिन उनका जादू सीमित था. पाकिस्तान के पास अब्दुल क़ादिर और इकबाल कासिम और सकलैन मुश्ताक जैसे स्पिनर हुए, लेकिन इमरान ख़ान, सरफ़राज नवाज़, वसीम अकरम, अकीब जावेद जैसे तेज़ गेंदबाज़ों का ही जलवा रहा.
ऐसे माहौल में नब्बे के दशक में भारत में कुंबले, श्रीलंका में मुरलीधरन और ऑस्ट्रेलिया में शेन वॉर्न ने तस्वीर बदलनी शुरू की. अचानक हमने पाया कि यह तेज़ गेंदबाज़ नहीं, बल्कि स्पिनर हैं जो क्रिकेट का रुख़ बदल रहे हैं.शेन वॉर्न निस्संदेह इनमें सबसे विशिष्ट थे- वे सबसे प्रयोगधर्मी स्पिनर रहे. वे लेग स्पिनर रहे, लेकिन गेंदों में विविधता पैदा करने में उनका सानी नहीं था. उनकी लेग ब्रेक, फ्लिपर, उछाल का इस्तेमाल, बॉल को ड्रिफ्ट कराने का कौशल- ये सब जैसे किसी कला के अन्यतम रूप थे. स्पिन को उन्होंने नए नाम दिए, नया व्याकरण दिया.
उनकी घूमती हुई गेंदें क्रिकेट की अनिश्चितता का सौंदर्यशास्त्र रचती थीं. वे बल्लेबाज़ों के पांव बांध देते थे. जब वे हल्के से रनअप से अपनी उठी हुई बांह नीचे लाकर कलाइयों में छुपी गेंद को मनचाहा लोच देने में लगे रहते तब बल्लेबाज़ बस अनुमान लगाता रहता कि वह फ्रंटफुट पर जाकर खेले या बैकफुट पर आकर झेले. बेशक, सचिन जैसे दुस्साहसी युवा बल्लेबाज तब थे जो क्रीज़ से आगे जाकर गेंद को स्पिन के मोड़ तक आने से पहले बाउंड्री के बाहर भेजने का इंतज़ाम कर देते थे. लेकिन गेंद और बल्ले के इस संघर्ष में शेन वॉर्न ज़्यादातर यह साबित करते कि उनकी गेंदें बल्ले की चौड़ाई को बेमानी बना डालती हैं, पैड्स के बीच सुराख बनाना जानती हैं या फिर बल्लेबाज़ को ऐसा बेबस छोड़ जाती हैं कि वह एलबीडब्ल्यू हो जाए.
बेशक, जीवन उनकी गेंदों से कम घुमावदार नहीं रहा. उन पर मैच फिक्सिंग के आरोप में पाबंदी लगी, उन पर ड्रग्स लेने के इल्ज़ाम लगे, बदतमीज़ी करने की तोहमत लगी, अपने कप्तानों से झगड़ा भी रहा, लेकिन सबको मालूम था कि ये शेन वॉर्न हैं- उनके बिना टीम नहीं चलेगी, टीम का काम नहीं चलेगा.बरसों बाद जब आइपीएल शुरू हुआ और अपने खेल जीवन के उत्तरार्ध में वे सबसे कमज़ोर मानी जाने वाली राजस्थान रॉयल्स की टीम के कप्तान बनाए गए तब उन्होंने असली खेल दिखाया. सारे धुरंधरों से भरी टीमों को चित करते हुए राजस्थान को पहला आईपीएल दिलाया.
क्या दुर्योग है कि निधन से कुछ ही घंटे पहले उन्होंने रॉडनी मार्श के लिए शोक जताया था. सत्तर के दशक में लिली और टॉमसन की गेंदों को विकेट के पीछे झेलने वाले और बिल्कुल चौथी स्लिप तक जाकर कैच लपकने के लिए मशहूर रॉडनी मार्श भी आज ही नहीं रहे. वाकई यह बुरा दिन था. जाते-जाते शेन वॉर्न ने याद दिलाया- क्षुद्रता पीछे छूट जाती हैं, महानता बची रहती है.