रणजी सीजन के पहले दिन जब कुछ पत्रकार मैच कवर करने पहुंचे तो उनके लिए नजारा झटका देने वाला था. कुछ जगहों पर हालत ऐसी थी, जैसे मेजबान एसोसिएशन को कोई मतलब न हो. मैच कवर करने के लिए सुविधा क्या, टीमों के लिए भी तमाम बेसिक चीजों की कमी. एक अधिकारी के शब्दों में, ‘मतलब होना भी क्यों चाहिए. हमारी टीम मैच में शामिल नहीं है. दो बाहर की टीमें आकर खेल रही हैं. ऐसे में किसकी क्या रुचि होगी?’ पहली बार रणजी सीजन न्यूट्रल जगहों पर खेला जा रहा है. मतलब घरेलू टीम जैसा कुछ नहीं. मान लीजिए, दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में बंगाल और कर्नाटक का मैच हो तो मेजबान डीडीसीए के लोगों की रुचि क्या होगी? यही दिखाई दे रहा है.
कुछ साल पहले दिल्ली में एक मैच था, जहां शाम को ग्राउंड स्टाफ घर नहीं गया. वजह थी कि बारिश की आशंका थी. ग्राउंड स्टाफ को लग रहा था कि घर चले गए, बारिश के साथ आंधी आ गई और कवर उड़ गए तो टीम के जीतने के चांस खत्म हो जाएंगे. यह रवैया तभी हो सकता है, जब आपकी टीम खेल रही हो. वरना उदासीनता होती है, जो इस रणजी सीजन में नजर आ रही है.
रणजी सीजन के नए फॉर्मेट में तीन राउंड खत्म हो गए हैं. पिछले रणजी सीजन में नॉक आउट राउंड से पहले करीब 48 फीसदी मैचों के नतीजे आए थे. इस सीजन में अब तक करीब 50 फीसदी मैचों के नतीजे आए हैं. यानी जिस सोच के साथ न्यूट्रल वेन्यू का विचार आजमाया गया था. उसमें बहुत ज्यादा फर्क देखने को नहीं मिला है. उत्तर प्रदेश टीम के कोच मनोज प्रभाकर कह ही चुके हैं कि पिच का रवैया बदलने की जरूरत है, न्यूट्रल वेन्यू की नहीं. कुछ इसी तरह की बात तमिलनाडु के अभिनव मुकुंद ने भी कही थी. तो क्या बीसीसीआई अध्यक्ष अनुराग ठाकुर और सौरव गांगुली की पहल पर हुआ यह प्रयोग फेल हो रहा है?
होम एंड अवे का उत्साह
पूरी दुनिया में होम एंड अवे ही पसंद किया जाता है. चाहे फुटबॉल हो या टेनिस में डेविस कप या और भी किसी भी तरह की लीग, उसमें होम एंड अवे को ही आधार बनाया जाता है. वजह यही है कि आप अपने घर में अपने माहौल में खेलें. जहां आपके प्रशंसक मैच देख सकें. उसके बाद दूसरे के माहौल में भी खेलें और जीतने की कोशिश करें. फुटबॉल में प्रशंसक सालों साल इंतजार करते हैं कि घर में मैच होगा, तो वो किस तरह अपनी टीम की जर्सी पहनकर जाएंगे. उसमें यह भी होता है कि दो टीमों के अंक बराबर होने की सूरत में विपक्षी के घर पर अगर किसी ने ज्यादा गोल किए हैं, तो उसे बेहतर माना जाता है. लेकिन ये सब होता अपने और विपक्षी टीम के घर में है. ऐसा नहीं कि दो टीमें किसी तीसरी जगह खेल रही हों. रणजी में बहुत बड़ी तादाद में लोग कभी नहीं आते थे, लेकिन मुंबई और बैंगलोर में अच्छी तादाद में लोग दिखते रहे हैं. जाहिर है, वे अपनी टीम को देखने आते थे जो अब नहीं आएंगे.
कैसा रहा है न्यूट्रल वेन्यू का प्रयोग
क्रिकेट में न्यूट्रल वेन्यू के लिए सबसे अच्छा उदाहरण शारजाह का है. बाद में मैच फिक्सिंग जैसे आरोपों के बाद भारत ने वहां खेलना बंद कर दिया था. वहां स्टेडियम भरे होते थे, लेकिन भारत और पाकिस्तान के मैचों में. वजह यही थी कि दोनों देशों के लोग वहां बड़ी तादाद में रहते हैं. आप पाएंगे कि पाकिस्तान टीम चूंकि अपने घर में सुरक्षा कारणों से नहीं खेल पाती, तो उसके मैच देश से बाहर होते हैं. उन मैचों में स्टैंड खाली पड़े रहते हैं. यानी ये प्रयोग अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तभी सफल हुआ है, जब दो ऐसे देशों के बीच मुकाबला हो जहां के लोग उस न्यूट्रल वेन्यू यानी तीसरे मुल्क में रहते हों.
रणजी में प्रयोग का मतलब
रणजी ट्रॉफी के मैच वैसे भी टीवी पर दिखाई नहीं देते. सही है कि स्टेडियम रणजी मैचों में खाली होते हैं. लेकिन जो चंद लोग अपनी टीम का मैच देखना चाहते हैं, वो नहीं देख सकते. जैसे बैंगलोरवासी अगर कर्नाटक का मैच देखना चाहें, तो उन्हें राज्य से बाहर जाना पड़ेगा. गांगुली का तर्क था कि इस तरह के प्रयोग से अपने माहौल के बाहर जीतने की आदत आएगी. उनकी इस सोच के पीछे देश से बाहर टीम के अच्छे प्रदर्शन की कोशिश थी. लेकिन फिलहाल यह सोच कामयाब होती नहीं दिख रही. बल्कि उलटा असर हो रहा है. रांची में एक मैच होना था. जगह बदल दी गई, टीमों तक को पता नहीं चला. हरियाणा की टीम रांची पहुंची, तो पता चला कि मैच तो जमशेदपुर में होना है. यह उदासीनता दर्शाता है. अगर उनमें एक टीम झारखंड होती तो भी ऐसा ही होता? यकीनन नहीं.
एक अखबार की रिपोर्ट के मुताबिक राजस्थान और असम की टीमों से कहा गया कि हर खिलाड़ी के लिए एक बोंडा और एक वडा मिलेगा. मतलब खाने में राशनिंग. यह उम्मीद नहीं कर सकते कि अगर रेलवे की टीम दिल्ली में उनके घर करनैल सिंह स्टेडियम में खेले तो खाने को लेकर राशनिंग के बारे में कोई सोच भी सके. क्यूरेटर ने पिच की तैयारी में कोई खास रुचि नहीं दिखाई है. ऐसे में जो चंद लोग रणजी से जुड़ते भी थे, उन्हें भी दूर कर दिया गया है. इसके अलावा, चूंकि रणजी मैच दूरदराज के इलाकों में भी होते हैं तो खिलाड़ियों के लिए यात्रा बहुत बढ़ गई है, वो भी बस से. तमाम जगह ऐसी हैं, जहां पहुंचने के लिए बस के अलावा कोई साधन नहीं है.
होना क्या चाहिए
रणजी में पहले भी कोई ऐसा माहौल नहीं था, जिसे बड़ा कमाल का माना जाए. मुझे याद है कुछ साल पहले मोहाली में महेंद्र सिंह धोनी पत्रकारों से गप्पें मारने चले आए. उसमें उन्होंने कुछ ऐसी जगहों के बारे में बताया था जहां वो घरेलू क्रिकेट खेले. मैं जगह का नाम नहीं लिख रहा हूं. लेकिन वहां के बारे में धोनी ने कहा था कि अगर आप शॉट हवा में खेलें, तो गेंद जमीन पर गिरकर धंस जाती थी. एक तरह से फील्डर को जमीन खोदकर गेंद निकालनी होती थी वापस थ्रो करने के लिए. इस तरह की कहानियां घरेलू क्रिकेट और वहां की सुविधाओं के लिहाज से काफी हैं. इस समय जरूरत यही है कि पिच और मैदान पर खास ध्यान रखा जाए. पिच को बेहतर बनाया जाए. घरेलू टीम को विपक्षी टीम के घर जीतने पर ज्यादा अंक मिलें. घर और बाहर की प्रतिस्पर्धा बढ़े. अभी ऐसा नहीं हो रहा. घरेलू क्रिकेट के बारे में कहा जाता रहा है कि दो टीमें, कुछ अधिकारी और दो कुत्ते ही रणजी मैच देखते हैं. इस बार तो अधिकारियों के साथ कुत्ते भी नदारद हैं... यानी सिर्फ दो टीमें और एकाध पत्रकार हैं, जो इन रणजी मैचों को देख रहे हैं...
शैलेश चतुर्वेदी वरिष्ठ खेल पत्रकार और स्तंभकार हैं...
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                            This Article is From Oct 25, 2016
फेल हो रहा है 'न्यूट्रल क्रिकेट' का फॉर्मूला
                                                                                                                                                                                                                        
                                                                शैलेश चतुर्वेदी
                                                            
                                                                                                                                                           
                                                
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                                                                            Published On अक्टूबर 25, 2016 15:52 pm IST
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