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This Article is From Apr 01, 2015

सर्वप्रिया की कलम से : वो बूढ़ा प्रधानमंत्री...

Sarvapriya Sangwan, Rajeev Mishra
  • Blogs,
  • Updated:
    अप्रैल 01, 2015 16:59 pm IST
    • Published On अप्रैल 01, 2015 16:32 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 01, 2015 16:59 pm IST

बाहर इतने लोग क्यों आये हैं? अरे, आपको देश का सबसे बड़ा सम्मान देने।
ज़रा पर्दा हटाना तो, देखना चाहता हूँ.… हम्म… काफी लोग हैं।

इन सबको मैं जानता हूँ। बस, कई सालों से देखा नहीं था यहाँ। यहाँ आना भी क्यों चाहिए था इन्हें। ये कोई शिकायत नहीं है। सबकी अपनी दुनिया है। एक बड़ी और एक छोटी सी। बड़ी सबके साथ सबके सामने। एक अपनी छोटी सी अपने साथ सिर्फ अपने सामने। उनकी दुनिया का कैनवास बड़ा है। मैं भी अपनी छोटी दुनिया में जी रहा हूँ। बड़ी दुनिया में बहुत लम्बा जिया। आज छोटी दुनिया में सिर्फ बड़ी दुनिया में बिताया हर पल रिवाइंड करता हूँ।

आप खुश नहीं हैं क्या, सब आपको इतना बड़ा सम्मान देने आये हैं।
खुश? आज उम्र के इस पड़ाव पर ख़ुशी या गम क्या मायने रखते हैं। सब वैसा ही घट रहा है जैसे हमेशा घटता आया है। सिर्फ चेहरे ही तो अलग हैं। मुझे पता नहीं कि मैंने क्या अलग किया। अलग किया भी तो क्या पाया। अंत ही तो है जो अंतिम सत्य है। स्थायी है। अटल है। सभी को वही मिलता है। मेरी बातें सुन कर तुम निराश ना होना। मैं बोलता नहीं हूँ अब। ये उम्र मुझे शांत कर गयी है। मैं खूब चिल्लाया हूँ, मैंने खूब जोश भरा है लोगों में। तब मेरा रोल वही था। मैंने अपना रोल अदा किया। अब ये ज़बान की शान्ति नहीं है, ये मन की शान्ति है। बोल-बोल कर क्या पाया मैंने। किसकी ज़िन्दगी बदल पाया। शायद सिर्फ अपनी। कई बार सोचता हूँ कि अगर ज़िन्दगी में ये ना करता तो क्या करता। जब सोचता हूँ कि कुछ और करता तो मन खिन्न सा हो जाता है। काश कुछ और भी कर के देख सकता। लेकिन थोड़ी ही देर में विरक्ति सुन्न पड़े शरीर में खून की तरह दौड़ जाती है।
सब परिवार वाले खुश हैं देखिये....

हाँ, अब यही मेरी विरासत है इनके लिए। कुछ दिन बाद मुझे नहीं पता होगा कि मुझे क्या मिला, क्या खोया, क्या रह गया। मैं जानता हूँ कि इन दिनों मैं अपने आस-पास के लोगों को पहचान नहीं पाता। लेकिन ये हालत अभी नहीं हुई। ज़िन्दगी भर इन लोगों को देख कर यही सोचता रहा कि क्या इन्हें पहचान पाया हूँ। मैंने इन्हें कितना झूठा पाया, मैंने इन्हें कितना छुपाते पाया। आज ये सोचना मुश्किल सा हो रहा है कि ये मेरे लिए आये हैं। कहीं ये भी किसी राजनीति का हिस्सा तो नहीं। शायद ज़्यादा सोच रहा हूँ। किसी मकसद से आये हों, क्या फर्क पड़ता है मुझे। मेरा नाम अमर भी हो गया तो मुझे क्या पता चलेगा मरने के बाद। मैंने देखा है कि जब परिवार में कोई बहुत बूढ़ा हो जाता है तो परिवार वाले उसका जीवन-काज मनाते हैं। लोगों को बुलाते हैं, खाना खिलाते हैं ताकि बूढ़ा इंसान मरने से पहले देख ले अपने मरने का समारोह। आज वैसा ही कुछ लग रहा है।

समझ नहीं आ रहा कि क्या चुभ रहा है आपको?
ये सब ठीक है अपनी जगह। ये सम्मान वगैरह। लेकिन मैं इनसे कैसे कहूँ कि मेरे कुछ पछतावे दूर कर दें। मैं इनसे कैसे कहूँ कि अंत में छोटी दुनिया में आना है, अपने साथ पछतावों का पुलिंदा ना लेकर आना। इस कमरे में मौसम नहीं बदलता। इस कमरे में कोई साथी नहीं आता। आखिर में बस तुम होगे और तुम्हारा अक्स जो अंदर बैठा है। उसी से घंटों बातें होंगी। दोनों में से किसी को नींद नहीं आएगी। उस चरम सीमा पर पहुँच जाओगे जहाँ से फिर सब भूलने लगोगे। जैसे गर्मी अपने चरम पर पहुँचती है और बारिश हो जाती है। मैं फिर शून्य हो जाता हूँ। मैं जानता हूँ, मैं फिर शून्य होने वाला हूँ। सिफर से सिफर तक पहुँचने के लिए इतनी जद्दोजहद करते हैं हम। देखो, अब भी एक पल विरक्त होता हूँ और एक पल कुछ चाहने लगता हूँ। अब मुझे सच में सिर्फ विरक्त अंत चाहिए, और कुछ नहीं।

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