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जयंती विशेष: बाजार की भीड़ में दबी औरत, साहिर की कलम में जिंदा है

Sachin Jha Sekhar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मार्च 08, 2025 09:14 am IST
    • Published On मार्च 08, 2025 09:04 am IST
    • Last Updated On मार्च 08, 2025 09:14 am IST
जयंती विशेष: बाजार की भीड़ में दबी औरत, साहिर की कलम में जिंदा है

औरत ने जन्म दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया,  
जब जी चाहा मसला कुचला, जब जी चाहा धुत्कार दिया.

  
ये वो मार्मिक पंक्तियां हैं, जो दिल के किसी कोने में चुभती हैं, आंखों में नमी और सीने में एक अनकही सुलगन छोड़ जाती हैं. यह शब्द नहीं, बल्कि एक औरत के सदियों के दर्द का आलम हैं, जो साहिर लुधियानवी की उस संवेदनशील कलम से निकले हैं. एक ऐसी कलम जो जज्बातों को आग बना देती थी और शब्दों को हथियार. उनकी हर एक स्याही की बूंद में औरत की वो अनसुनी चीख गूंजती है, जिसे समाज ने कभी बाज़ार की भीड़ में दबा दिया, तो कभी घर की चारदीवारी में कैद कर दिया.

यह एक अद्भुत संयोग ही है कि 8 मार्च का दिन, जब साहिर की जयंती और अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस एक साथ आते हैं, मानो समय ने खुद इन दोनों को एक गहरे रिश्ते में बांध दिया हो. साहिर वो शायर हैं जिसने औरत की पीड़ा को न सिर्फ देखा, बल्कि उसे अपनी आवाज बनाकर दुनिया के सामने रखा; और महिला दिवस वो प्रतीक है जो उस पीड़ा को सम्मान, हक, और आज़ादी की रोशनी में बदलने की जद्दोजहद का गवाह है. 

 ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है...
 8 मार्च 1921 को लुधियाना में जन्मे साहिर ने भारतीय सिनेमा के गीतों की धारा बदल दी. उनकी लेखनी में न सिर्फ प्यार की मिठास थी, बल्कि समाज की कड़वाहट, औरत की आज़ादी की पुकार, और इंसाफ की तड़प भी थी.  ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है...फिल्म प्यासा का ये गीत सिर्फ एक गाना नहीं, बल्कि सत्ता, संपत्ति और सामाजिक ढोंग के खिलाफ़ एक चीख था. साहिर की शायरी में जज़्बात और बगावत का अनोखा मेल था. वो सिर्फ प्रेम की बात नहीं करते थे, वो समाज की सड़ांध को भी उजागर करते थे.

साहिर की जिंदगी में उनकी मां, सरदार बेगम, एक ऐसी शख्सियत थीं, जिन्होंने उन्हें औरत की ताकत और उसकी पीड़ा का असली मतलब सिखाया. जब उनकी मां ने अपने क्रूर पति को छोड़कर अकेले साहिर को पालने का फैसला किया, तो समाज ने उन्हें ताने मारे, बाजार में अपमानित किया. लेकिन उनकी मां ने हार नहीं मानी. शायद यही वजह है कि साहिर की कलम से निकली हर पंक्ति में औरत की वो अनसुनी आवाज गूंजती है, जो सदियों से दबी थी.

मजदूर से मजबूर तक सबकी आवाज थे साहिर
साहिर की शायरी और गीतों में उनके विचार एक अलग ही रंग लिए हुए थे. जहां उस दौर के ज्यादातर शायर मोहब्बत को फूलों और चांद-तारों से सजाते थे, साहिर ने उसे हकीकत की जमीन पर उतारा. उनकी कलम में बगावत थी, सवाल थे, और एक ऐसी तड़प थी जो समाज को झकझोर दे. "जिन्हें नाज है हिन्द पर वो कहां हैं" इस गीत में उन्होंने मुल्क की हालत पर सवाल उठाया, तो "चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों" में रिश्तों की नाजुक डोर को बताया.

साहिर अलग थे... बेहद अलग थे...तमाम समकालिन शायरों अलग थे. उनके विचार इसलिए अलग थे क्योंकि वह सिर्फ खूबसूरत अल्फाज़ नहीं लिखते थे, बल्कि उनमें ज़िंदगी की सच्चाई समेटते थे. उनकी लेखनी में उर्दू की शान और हिंदी की सरलता का ऐसा मेल था कि हर आम और खास तक उनकी बात पहुंचती थी. वह शायर थे, मगर समाज सुधारक की तरह लिखते थे. उनकी हर पंक्ति में एक दर्शन था, एक सबक था.

गीतों के जादू ने बदल दी भारतीय सिनेमा की तस्वीर
भारतीय सिनेमा में साहिर ने गीतों को सिर्फ मनोरंजन का जरिया नहीं बनने दिया, बल्कि उन्हें एक कहानी, एक संदेश का माध्यम बनाया. फिल्म प्यासा का "ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया" हो या फिल्म कागज के फूल का गीत  "देखी ज़माने की यारी, बिछड़े सभी बारी-बारी", उनके गीतों ने दर्शकों को भावनाओं के समंदर में डुबो दिया.

उन्होंने संगीतकारों और निर्देशकों के साथ मिलकर ऐसी कालजयी रचनाएं दीं जो आज भी गुनगुनाई जाती हैं. नया दौर का "साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला थक जाएगा मिलकर बोझ उठाना" मजदूरों की मेहनत और एकता का पैगाम था. साहिर ने साबित किया कि गीत सिर्फ रोमांस के लिए नहीं, बल्कि समाज को जोड़ने और जागरूक करने के लिए भी हो सकते हैं. साहिर के जिंदगी जीने का तरीका ऐसा कि उन्होंने लिख दिया गम और खुशी में फर्क न महसूस हो जहां, मैं दिल को उस मकाम पे लाता चला गया... और जिंदगी को भी उसी अंदाज में जी लिया. 

साहिर की वजह से गीतकारों का रुतबा फिल्म इंडस्ट्री में बढ़ा, और लोग गीतों के पीछे की गहराई को समझने लगे. एक दौर में साहिर गायक गायिकाओं से अधिक पैसे लेने की डिमांड फिल्म निर्माता के सामने रखते थे. वो उस पैसे को जस्टिफाई भी करते थे.  साहिर के पास दुनिया को देखने का एक अलग नजरिया था... उन्होंने लिखा भी है... ले दे के अपने पास फकत इक नजर तो है क्यूं देखें जिंदगी को किसी की नजर से हम...

अधूरी मोहब्बत: साहिर और अमृता की दास्तान
साहिर का जीवन अधूरे प्रेम की दास्तानों से भरा है, लेकिन इसमें सबसे गहरा रंग अमृता प्रीतम के साथ उनकी मोहब्बत का है. अमृता और साहिर दो शायर, दो आत्माएं, जो एक-दूसरे के लिए बनी थीं, लेकिन कभी पूरी तरह एक न हो सकीं. "मैं पल दो पल का शायर हूं, पल दो पल मेरी कहानी है. ये पंक्तियां लिखते वक्त शायद साहिर के दिल में अमृता की यादें तैर रही थीं.  

अमृता ने अपनी किताब रसीदी टिकट में साहिर के साथ अपनी मुलाकातों का ज़िक्र किया है. वो लिखती हैं कि जब साहिर उनसे मिलने आते थे, तो सिगरेट के धुएं में उनके बीच अनकही बातें बुनती थीं.  साहिर ने शायद अमृता के लिए ही लिखा भी था तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक है तुमको, मुझे याद रखने में कुछ तकलीफ न करना. ये उनकी उदारता थी, लेकिन उसमें छिपा दर्द भी कम नहीं था.

उनकी मोहब्बत शब्दों में तो बयान हुई, लेकिन जिंदगी में अधूरी रह गई. साहिर की कविता "वो अफ़साना जिसे अंजाम तक पहुंचाना न हो मुमकिन, उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा" उनकी इस प्रेम कहानी का सार है. अमृता की रचनाओं में भी साहिर की छाप दिखती है. उनकी कविता,  "मैं तैनू फिर मिलांगी" में वो साहिर से मिलने की चाहत को बयान करती हैं.

साहिर लुधियानवी सिर्फ एक गीतकार या शायर नहीं थे, वह एक फलसफा थे. उनकी कलम से निकली हर पंक्ति एक कहानी कहती है, एक सबक देती है. उनकी जयंती पर, खासकर महिला दिवस के मौके पर उनकी लेखनी को याद करना बेहद जरूरी हो जाता है.

"तेरे प्यार का आसरा चाहता हूं... की तरह साहिर की शायरी आज भी हमारे दिलों में बसती है, हमें भावुक करती है, और एक बेहतर इंसान बनने की राह दिखाती है. उनकी याद में बस इतना लिखना शायद ठीक होगा
"तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक है तुमको,  
मेरी बात और है, मैंने तो मोहब्बत की है"  
साहिर, तुम सच में मोहब्बत थे, शायरी थे, और एक जिंदा मिसाल थे.

(सचिन झा शेखर NDTV में कार्यरत हैं. राजनीति और पर्यावरण से जुड़े मुद्दे पर लिखते रहे हैं.)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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