संस्कृत को लेकर जो लोग भावुक हैं, वहीं संस्कृत के दुश्मन हैं। मौजूदा विवाद को जानबूझ कर संस्कृत विरोध के दायरे में फंसाए रखना चाहते हैं। जैसे मैकाले और मार्क्सवादियों के कारण ही संस्कृत का नुकसान हुआ है। हो सकता है हुआ भी हो, लेकिन इस समस्या के कारणों को संस्कृत के भीतर भी झांक कर देखना चाहिए और उन लोगों की मंशा में भी जो संस्कृत के हिमायती हैं।
इसमें किसी को शक नहीं होना चाहिए और हर बार दोहराने की ज़रूरत भी नहीं है कि संस्कृत क्या है या संस्कृत में क्या-क्या है। संस्कृत में संभावनाएं न होतीं, तो आज संस्कृत का नामो निशान मिट गया होता। यह आम जन की भाषा कभी नहीं थी, लेकिन इसकी रचनाओं को आप नज़रअंदाज़ कर ज्ञान के एक बड़े संसार में प्रवेश कर ही नहीं सकते हैं। यही विशिष्टता फारसी को भी हासिल है।
सवाल है कि संस्कृत के लिए क्या किया जाए और अगर यह सरकार करना चाहती ही है तो रोक कौन रहा है? सरकार या संस्कृत के समर्थक मैकालेवादियों को कोसने के बहाने ख़ुद को जवाबदेही से बचाए रखना चाहते हैं। इस तबके को अगर जनमत की फिक्र है तो उस मध्यमवर्ग या मतदातावर्ग के बीच जाकर सहमति बनानी चाहिए जिसने बड़ी संख्या में सरकार का समर्थन किया है। अगर मिडिल क्लास वाला इंडिया सहमत है तो फिर संकोच क्यों? उन्हें साफ साफ कार्ययोजना रखनी चाहिए कि संस्कृत को बचाने के लिए अमुक काम करने होंगे और यह काम सरकार ही कर सकती है।
सरकार के पास बहुमत है और संसाधन भी। संस्थानिक रूप से संस्कृत के लिए जो भी किया जा सकता है, उसका यही सही वक्त है। मेरा अपना मत है कि संस्कृत के लिए हर हाल में कुछ न कुछ नहीं, बल्कि बहुत कुछ किया जाना चाहिए।
संस्कृत आज भी रोज़गार दे रही है। भले ही आप उसे ब्लू कॉलर या व्हाईट कॉलर जॉब न कहें। धर्म के दायरे में कारोबार भी पनपता है और वहां संस्कृत के दो चार मंत्र से लेकर विद्वता तक रोज़गार का बड़ा ज़रिया है। आप इसे फिलहाल कर्मकांड से लेकर पूजा-पाठ, योग, ध्यान-अराधना तमाम संबोधन से नवाज़ सकते हैं।
मंदिरों में रोज़गार की संभावना न होती तो आज गली-गली में तरह-तरह के मंदिर न बन रहे होते और रोज़ कोई बाबा या नया भगवान लॉन्च नहीं हो रहा होता। इन सब संभावनाओं का द्वार संस्कृत भी है। कोई इसे अंधविश्वास कह कर खारिज कर सकता है, लेकिन हकीकत तो है ही।
सवाल यह पूछा जाना चाहिए कि संस्कृत के लिए क्या किया जाएगा? क्या शपथ ले लेने से या नारे लगा देने से संस्कृत का भला हो जाएगा। संस्कृत लोकभाषा नहीं बन सकती। कोई बना दे तो स्वागत करना चाहिए, लेकिन नारे लगाने के अलावा इसके लिए कोई ठोस प्रयास नहीं दिखता है। इसलिए ज्यादातर आलोचनाएं हवाबाज़ी ही हैं।
हमारे देश में संस्कृत का एक भी केंद्रीय विश्वविद्यालय नहीं है। तो क्या केंद्र सरकार मौजूदा संस्कृत विश्वविद्यालयों को राज्यों से अपने अधीन लेकर उनका स्तरीय विकास करेगी। इसके लिए सौ करोड़ नहीं, बल्कि कुछ हज़ार करोड़ रुपये की राशि चाहिए। सरकार को दिल पर पत्थर रखकर संस्कृत के लिए यह काम कर ही देना चाहिए। संस्कृत विश्वविद्यालय के एक रजिस्ट्रार ने कहा कि संस्कृत के संस्थान राज्य के समर्थन से ही चल सकते हैं, लाभ-हानि के सिद्धांत पर नहीं।
भारत में संस्कृत के करीब 750 कॉलेज हैं। इनमें से 510 कॉलेज सिर्फ यूपी में हैं, जो बनारस स्थित संपूर्णांनद संस्कृत विश्वविद्यालय से संबंधित हैं। तीन डीम्ड विश्वविद्यालय हैं। 13 राज्यों में 14 संस्कृत विश्वविद्यालय हैं। असम में भी एक संस्कृत विश्वविद्यालय है। पिछले डेढ़ दशकों के दौरान संस्कृत के आठ विश्वविद्यालय बने हैं हैं। ये सभी बीजेपी सरकारों के दौरान कायम हुए हैं। लेकिन इनके यहां भी स्थिति कोई बेहतर नहीं है।
ज्यादातर जगहों पर निर्धारित संख्या के हिसाब से फैकल्टी नहीं है तो कहीं वेतन भी ठीक से नहीं मिलता है। कॉलेजों की स्थिति में गिरावट आती जा रही है। इन सब स्थितियों को संभालने के लिए संसाधन की ज़रूरत है, भावुकता की नहीं। इसीलिए कहा कि संस्कृत के शुभचिंतकों को अपने सवाल बेकार हो चुके मार्क्सवादियों से नहीं सरकार से करना चाहिए। परीक्षा का विषय बनाकर आप संस्कृत का भला नहीं कर सकते हैं। संस्कृत का भला तभी होगा जब संस्कृत के संस्थान बचेंगे।
कई राज्यों में बीजेपी की सरकार तीन-तीन बार से चल रही है। यहां भी संस्कृत के विश्वविद्यालय बने हैं। कम से कम आरएसएस या बीजेपी को इन विश्वविद्यालयों को देश के सामने एक नज़ीर के तौर पर पेश करना चाहिए कि उन्होंने ठोस रूप से क्या किया है और हासिल क्या हुआ है।
सिर्फ विश्वविद्यालय खोल देना काफी नहीं है, बल्कि यह बताया जाना चाहिए कि वहां शिक्षकों की नियुक्तियां पर्याप्त है या नहीं। भाषा के विस्तार पर कितना काम हो रहा है। उन विश्वविद्यालयों या कॉलेजों का स्तर कितना सुधरा है। इससे कम से कम विरोधी राजनीतिक दलों के मुंह में ताले लग जाएंगे।
संस्कृत को लेकर बहस में कूदने वालों को यह भी सोचना चाहिए कि इसकी बात संघ परिवार ही क्यों करता है? बीजेपी ही क्यों करती है? इस भाषा ने दूसरे दलों का क्या बिगाड़ा है? लेकिन संघ परिवार को बताना चाहिए उसने संस्कृत को क्या से क्या बना दिया है। कहीं तो हिसाब पेश हो।
संस्कृत कौन पढ़ रहा है। स्कूलों में एक विषय के रूप में बचाकर संस्कृत का विस्तार नहीं हो सकता है। हम सब जानते हैं कि नंबर लाकर फिर भूल जाएंगे। संस्कृत एक क्लासिक भाषा है। इसकी पढ़ाई को इतना आकर्षक बनाया ही जाना चाहिए जिससे लगे कि आप पंडिताई के लिए नहीं, बल्कि भारतीय ज्ञान परंपरा में सिद्ध होने के लिए पढ़ रहे हैं।
एक शिक्षक ने बताया कि संपूर्णानंद विश्वविद्यालय में यूपी के करीब डेढ़ लाख छात्र जुड़े हैं। इनमें से ज्यादातर गरीब तबके के बच्चे हैं। जिन्हें नंबर नहीं आते और जो महंगी पढ़ाई नहीं पढ़ सकते। यही कारण है कि संस्कृत के विद्यार्थियों में पिछड़ी जाति के बच्चे ज्यादा हैं। जो तबका भावुक हो रहा है उसे सबसे पहले अपने बच्चों को संस्कृत में नामांकन कराना चाहिए।
इसके अलावा एक चुनौती संस्कृत को आधुनिक बनाने की है। निजी बातचीत में संस्कृत के विद्वान भी मानते हैं कि सिलेबस को आधुनिक बनाना होगा। इसका मतलब यह नहीं कि पुरानी रचनाओं को दरकिनार कर दिया जाए, लेकिन इस मामले में बहुत कुछ किया जाना बाकी है।
संस्कृत को बचाने के ठोस प्रयास की रूपरेखा अभी तक सरकार ने पेश नहीं की है। यहां कोर्स में लगा देना या वहां से हटा देना यह सब प्रक्रियात्मक बहस के मुद्दे हैं। संस्कृत को लेकर भावुकता सिर्फ इस पर सवाल उठाने वालों को ओछा साबित करने की है।
अगर सही में सांस्थानिक प्रयास की शुरुआत हो जाए और तय हो जाए कि कोई भी सरकार रहे संस्कृत सहित दो तीन अन्य भाषाओं के विकास के लिए केंद्रीय फंड से पांच हज़ार करोड़ रुपये की नियमित राशि दी जाएगी ताकि ये बची रहें तो भाषा बच जाएगी। राज्य सरकारें सैंकड़ों कॉलेजों को नहीं संभाल सकती हैं।
शिक्षा के निजीकरण के इस दौर में केंद्र सरकार से उम्मीद कम ही रखिये कि वो संस्कृत के लिए बुनियादी रूप से कुछ करेगी।
संसकृत को आश्रमों की भाषा से निकालकर ज्ञान-मीमांसा का पेशेवर माध्यम बनाना होगा। इतनी बेहतर भाषा को हम यूं ही हाथ से नहीं जाने दे सकते। इसे प्रतीक बनाएंगे तो संस्कृत सिर्फ प्रतीक बन कर रह जाएगी जैसे हज़ारों संस्थानों के सूत्र वाक्य संस्कृत में ही लिखे होते हैं।
ये और बात है कि ज्यादातर लोगों को उसका मतलब नहीं मालूम होता है। लिंक लैंग्वेज बने या न बने, जापान से लेकर कर्नाटक और मध्यप्रदेश के एक दो गांव या स्कूल में संस्कृत के अनिवार्य होने से कुछ हासिल नहीं होगा। इन उदाहरणों से सुखद अनुभव तो होता है मगर संस्कृत से जुड़े सवालों के जवाब नहीं मिलते हैं।
This Article is From Nov 25, 2014
रवीश की कलम से : संस्कृत का दोस्त कौन और दुश्मन कौन?
Ravish Kumar, Saad Bin Omer
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Updated:नवंबर 26, 2014 01:22 am IST
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Published On नवंबर 25, 2014 20:06 pm IST
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Last Updated On नवंबर 26, 2014 01:22 am IST
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