सोमवार सुबह मेरे संपादक सुनील जी का मैसेज आया कि अलवर के लिए निकल लो. देखा तो ग्वावियर से अलवर के लिए कोई ट्रेन नहीं थी. एक ट्रेन दिखी तो वो भरतपुर के लिए थी. किसी ने बताया कि भरतपुर से दो घंटे में अलवर पहुंच जाओगे. सुबह करीब दस बजे रहे थे. मैं इत्मीनान की मुद्रा में होटल के कमरे में चाय की चुस्की के साथ अखबार देख रहा था. ट्रेन का वक्त चार बजे देखा तो बटेश्वर दिमाग में घूमने लगा. मैंने तुरंत एक टैक्सी मंगाई और निकल पड़ा बटेश्वर. बस इतना पता था कि ग्वालियर से करीब तीस-पैंतीस किमी. दूर मुरैना में बटेश्वर पड़ता है. टैक्सी ड्राइवर से पूछा तो बोला कि साहब नाम सुना है लेकिन गया कभी नहीं हूं... मैंने गूगल मैप खोला और भिंड रोड की तरफ चल पड़ा... करीब दस किमी दूर चलकर शनिचरा मंदिर की ओर जब मुड़ा तो सड़क गड्ढों से भरी थी और कार समुद्री तूफान में फंसी जहाज की तरह हिचकोले खाने लगी.... एक घंटे का सफर अब पौने दो घंटे का हो चला... रास्ता निर्जन और सूनसान... दूर दूर तक जंगली बेर के पेड़ और अरावली की पहाड़ियां...
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टैक्सी ड्राइवर बोला इस इलाके में अवैध पत्थर निकालने का काम पूरी दमदारी से चलता है. रात को आने का मतलब है अपराध और अपराधियों के बीच फंसना. फिर बोला बीस साल से गाड़ी चला रहा हूं सिर्फ एक बार शनिचरा मंदिर आया हूं... पहले पता होता तो गाड़ी ही नहीं लाता... मुझे और तनाव हो गया कि बड़ी जोखिम इस यात्रा में मोल ले ली... खैर तीन-चार छोटे गांव से गुजरते हुए मैं बटेश्वर मंदिर पहुंचा. दस फिट से लेकर चालीस पचास फीट तक बने सैकड़ों प्राचीन मंदिरों को देखकर मेरे भीतर खून का संचार बढ़ गया...एक ऐसा अद्भुत नजारा जो कल्पना से परे था. गुप्तकालीन बने मंदिरों की छतें सपाट थी फिर कुछ मंदिरों के ऊपर गुंबद दिखे... इस मंदिर के बीच एक सरोवर है जो बताता है किसी समय ये जगह शैव संप्रदाय के लिए बहुत महत्वपूर्ण रही होगी. सैकड़ों मंदिर और उसके अंदर रखे शिवलिंग अलग-अलग आकार के थे. जो गुप्त काल से प्रतिहार काल तक के मंदिरों के स्थापत्य कला के क्रमिक विकास को शानदार तरीके से दर्शा रहे थे. तमाम प्राचीन मूर्तियां अच्छी हालत में इधर-उधर बिखरी पड़ी थी.
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क्या मंदिर का स्थापत्य देखकर संसद भवन की इमारत बनी !
गढ़ी पढावली से हम आगे बढ़े करीब चार किमी बाद इस पूरे इलाके के सबसे ऊंचे पहाड़ पर वृत्ताकार विशाल मंदिर दिखने लगा था. इस टीले के बिल्कुल नीचे मितावली गांव है. ये कितनी प्राचीन जगह है इससे समझा जा सकता है कि इसी टीले के नीचे कुषाणकालीन एक सुसज्जित मूर्ति मिली थी जिसे आजकल ग्वालियर के म्यूजियम में रखा गया है. मंदिर काफी ऊंचाई पर बना है. यहां जब मैं ऊपर पहुंचा तो दंग रह गया. संसद भवन जिस तरह वृत्ताकार और खंभों पर टिका है, उसी तरह का ये योगिनीयों का मंदिर बना है. इस मंदिर को 1323 में राजा देवपाल ने बनवाया था. 64 योगनियों के इस मंदिर में 71 शिवलिंग रखे हैं. वृत्ताकार आकार के बीच में महादेव का एक और वृत्ताकार मंदिर है.
इसकी अधिक जानकारी देते जीवाजी यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और इतिहासकार डॉ. एसके दि्ववेदी बताते हैं कि मितावली का मंदिर कच्छप राजवंश के राजाओं ने बनवाया था. हमारे यहां शिवशास्त्र में इस बात का उल्लेख है कि 64 योगनियों का मंदिर वृत्ताकार हो इसीलिए जबलपुर के भेड़ाघाट में भी चौसठ योगनियों के मंदिर वृत्ताकार हैं. यही नहीं वो कहते हैं कि ग्रीस में भी देवी एथिना का जो मंदिर है वो भी वृत्ताकार है. इसकी संरचना भी संसद भवन से मिलती है, इसके जो खंभे हैं वो डोरिक स्टाइल के बने हैं. यहां बीएसपी का चुनाव प्रचार करने आए लोग भी मंदिर देखकर काफी खुश थे वो बताने लगे कि यहां एक गुफा है जो ग्वालियर के किले में निकलती थी. इस तरह की कई किवदंतियां यहां के लोगों के बीच चर्चा में है. लेकिन चंबल के किनारे का ये पूरा इलाका इतिहास की नजरों में जरूर महत्वपूर्ण है लेकिन हमारी सरकारों की आंखों से अब तक अछूती ही है.
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मितावली के मंदिर से लौटा तब तक ढाई बज चुका था. मेरी चार बजे की ट्रेन थी. गाड़ी में बैठते ही ड्राइवर ने कहा कि साहब चाय पीकर चला था, आपके चक्कर में खाना भी नसीब नहीं हुआ. हम सरसों के खेत देखकर ये सोचते रहे कि काश कोई सरसों का साग और रोटी खिला देता. मुझे तुरंत जीवाजी यूनिवर्सिटी पहुंचना था. मैंने कहा अब खाने का वक्त नहीं है, चार बजे की मेरी ट्रेन है, रास्ता खराब है. लौटते वक्त हम नूरपुर मलनपुर होते हुए ग्वालियर पहुंचे. और दौड़ते-भागते किसी तरह खुजराहो उदयपुर इंटरसिटी पकड़ी... ट्रेन में याद आया कि टिकट तो खरीदी ही नहीं... एक नए पचड़े से आमना-सामना हुआ... इसकी बात फिर कभी होगी....
(रवीश रंजन शुक्ला एनडटीवी इंडिया में रिपोर्टर हैं.)
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