राहुल तो कुर्ते की बांहें मरोड़े बिना ही भाषण देने लगे हैं, कुछ हुआ है क्या?

नई दिल्‍ली:

उन 56 दिनों में राहुल बदल गए या रामलीला मैदान से लेकर लोकसभा के बीच 24 घंटों में ज़्यादा बदले हैं। अगर राहुल गांधी का इसी तरह बदलना जारी रहा तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को विपक्ष के खेमे से कमज़ोर वक्ता की कमी नहीं खलेगी।

प्रधानमंत्री जिस तरह के पूर्णकालिक राजनेता है उन्हें भी मन करता ही होगा कि कोई सामने से घेरता तो वे भी जवाब देते। अभी तक प्रधानमंत्री ही सबको घेरे जा रहे थे। लेकिन अब लगता है कि उन्हें घेरने वाले तैयार हो रहे हैं। राहुल गांधी ने नेतृत्व में कांग्रेस का सक्रिय होना, जनता परिवार का एक होना और सीपीएम का नेतृत्व सीताराम येचुरी के हाथ में जाना। चुनाव तो नहीं है मगर रणनीतियों और नारों को लेकर दिलचस्प मुकाबले के लिए तैयार रहिए।

सूट बूट की सरकार है। बड़े लोगों की सरकार है। यह वैसा ही लेबल है जैसा नरेंद्र मोदी अपनी चुनावी रैलियों में कांग्रेस पर चस्पां करते थे और कांग्रेस लाजवाब ही नहीं होती, पीछे भी हट जाया करती थी। राहुल गांधी जिस लोकसभा में कभी कभार बोलने के लिए मशहूर थे लगता है अब बोलने की बदनामी लेने के लिए तैयार हैं। नेता जब बोलता है तो जिस पर बोलता है सिर्फ उसका ही इत्महान नहीं होता बल्कि ख़ुद को भी चुनौती के लिए पेश करता है। आरोप-प्रत्यारोप की इस प्रक्रिया में या तो वो निखरता है या बातूनी होकर बासी हो जाता है।

आने वाले दिनों में राहुल के इन दो दिनों में बोली गई बातों का खूब विश्लेषण होगा। क्या बोला इससे ज्यादा इस बात का होगा कि कैसे बोला। बोलते वक्त राहुल क्या पहले वाले राहुल हैं या 56 दिनों के बाद वाले राहुल हैं। जिस तरह 2014 में 56 ईंच का सीना मज़बूत नेतृत्व का प्रस्थान बिंदु बन गया था कहीं उसी तरह 56 दिन की छुट्टी न बन जाए!
लोकसभा चुनावों के दौरान राहुल गांधी जिस तरह बिखरे बिखरे लग रहे थे उस लिहाज़ ये राहुल गांधी अलग हैं।

नरेंद्र मोदी ठीक कहते थे कि कोई गुस्से में बोल रहा है। ये और बात है कि ख़ुद नरेंद्र मोदी भी गुस्से में ही बोला करते थे। लोकसभा में राहुल गांधी ने थोड़ा हंसाया और थोड़ा फंसाया भी। वे पहली बार वाकचतुराई के लिए माहिर माने जाने वाले बीजेपी खेमों से लोहा ले रहे थे। उन्हें छकाने लगे। अच्छा आपके प्रधानमंत्री नहीं हैं। देश के तो हैं ही पर क्या आपके नहीं हैं। मैंने आपके प्रधानमंत्री कहा तो आपको क्यों बुरा लग गया। लोकसभा में राहुल गांधी सामान्य होकर बोल रहे थे। अपने ऊपर से राहुल होने का लोड उतार दिया था। वो इस चिन्ता से मुक्त लगे कि बोलते वक्त विरोधी खेमा सोशल मीडिया पर कौन कौन से लतीफ़े बना रहा होगा। इस लिहाज़ से सोशल मीडिया का पप्पू आज सचमुच पास हो गया!

एक बात याद रखियेगा। बोलना हमेशा बोलने की शैली से असरदार नहीं होता है। राजनीतिक हालात भी आपके बोले हुए को ताकत देते हैं। इसके अलावा राजनेता की अपनी ईमानदारी भी बोलने के प्रति गंभीरता पैदा करती है। लोकसभा में जब राहुल गांधी ने कलावती वाला भाषण दिया था तब भी उनकी तारीफ हुई थी। लोगों को लगा था कि भले कम बोलते हैं मगर एक किस्म की राजनीतिक गंभीरता है। मगर वो गंभीरता जल्दी ही ग़ायब हो गई।

राहुल गांधी न बोलने के लिए ही मशहूर हो गए। उन्होंने खुद भी इस छवि को गढ़ने में काफी मदद की। लोकपाल पर जब बहस हुई तब युवाओं ने राहुल गांधी को ढूंढा था। राहुल गांधी लोकसभा में लोकपाल को संवैधानिक दर्जा दिए जाने का एक पर्चा पढ़कर ग़ायब हो गए। इस बार भी गायब हुए तो लगा कि ये वही राहुल गांधी हैं जो ज़िम्मेदारी से भागते रहे हैं।

अब लौटे हैं तो उनका इम्तहान फिर से सख्त होने वाला है। राहुल की ज़िंदगी में रविवार और सोमवार के ये भाषण तभी यादगार बनेंगे जब वे अपनी नीतियों को लेकर ईमानदारी से आगे बढ़ेंगे। कांग्रेस को एक वैकल्पिक आर्थिक नीति की राजनीति की तरफ ले जाने का जोखिम उठा सकेंगे। वर्ना आर्थिक जानकारों की आम समझ तो यही है कि कांग्रेस बीजेपी एक हैं। बस बीजेपी फैसले लेने के मामले में तेज़ साबित होने का दावा करती है।

भारतीय राजनीति में दो बड़े राजनीतिक विरोधी आर्थिक मामले में एक हो जाएं इससे बड़ी राजनीतिक दुर्घटना क्या हो सकती है। क्या राहुल में कांग्रेस को बीजेपी से अलग कर देने का नज़रिया है। बोलने की कला या शैली तो दस दिनों में हासिल की जा सकती है मगर अलग आर्थिक दृष्टि पर चलने का नज़रिया गहरी सोच से आता है। उससे भी कहीं ज्यादा गहरी ईमानदारी से।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस वक्त राजनीति के केंद्र में हैं। उनसे होने वाली चूक का लाभ उठाकर राहुल नेता बनना चाहते हैं या उनके सामने नई राजनीति का कोई साहसी खाका खींचकर। यह तो तभी होगा जब यह राजनेता खुद को ईमानदार रास्ते पर ले जायेगा। इतना आसान नहीं है। इसके लिए ईमानदार प्रायश्चित की भी ज़रूरत होगी। क्या राहुल ऐसा कर पाएंगे। क्या वे हमेशा नरेंद्र मोदी को ही निशाना बनाकर आगे बढ़ेंगे या खुद की आलोचना के लिए भी तैयार होंगे। उन्हें नरेंद्र मोदी का शुक्रिया अदा करना चाहिए। उन्हें राहुल बनने का मौका जितना कांग्रेस ने नहीं दिया उससे कहीं ज्यादा प्रधानमंत्री मोदी ने दिया है।

रैली और संसद में भाषण तो हो गया, क्या अब राहुल सामान्य नेता की तरह आए दिन प्रेस से बात करेंगे। वैसे उनके प्रेस से बात करने को लेकर मैं बहुत उत्साहित नहीं रहता हूं। विपक्ष में रहते हुए यह काम बहुत आसान है। विपक्ष के दिनों में कई नेता हर दिन उपलब्ध रहते हैं। ऐसा लगता है कि लोकतंत्र के यही सबसे ईमानदार सिपाही हैं। मगर हाल के राजनीतिक अनुभव बताते हैं कि सत्ता में आते ही वही राजनेता प्रेस से दूर हो जाता है।

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रैलियों में मीडिया को गाली देता है और प्रेस से सवाल पहले तय करने लगता है और सवाल पूछे जाने पर समर्थकों को भिड़ा देता है कि पूछने वाले को बदनाम कर दो। इस पैमाने पर आप किसी भी नेता का मूल्यांकन कर सकते हैं। इसलिए राहुल प्रेस से बात करें तो अच्छा और बात करते समय पत्रकारों की प्रोफाइल देखने की ग़लती न करें तो और भी अच्छा। वैसे मेरे पास उनसे पूछने के लिए बहुत कुछ तो नहीं है, सिवाय इसके कि बोलते हुए कुर्ते की बांहें मरोड़ना किसके कहने पर बंद कर दिया!