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This Article is From Nov 22, 2021

किसानों को कमेटी नहीं कमिटमेंट चाहिए

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 22, 2021 22:49 pm IST
    • Published On नवंबर 22, 2021 21:55 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 22, 2021 22:49 pm IST

भारत में कृषि कानूनों को वापस लेने के बाद श्रीलंका के किसानों को भी एक बड़ी जीत मिली है. पिछले साल जुलाई में वहां की सरकार ने अचानक फैसला लिया कि रसायनिक खेती नहीं होगी. श्रीलंका सौ फीसदी आर्गेनिक खेती वाला देश बनेगा. इसी के साथ रसायनिक खाद से लेकर दवा के आयात और बिक्री पर रोक लगा दी गई. नीयत के हिसाब से देखिए तो इस फैसले में अच्छाई ही अच्छाई है लेकिन कई साल से रासायनिक खेती को बढ़ावा देने वाली सरकार रातों रात अगर अच्छी नीयत अपना ले तो संदेह गहरा हो जाता है.

इसे सुनते ही श्रीलंका के किसान भड़क गए और सड़क पर उतर गए. किसी भी खेत को आर्गेनिक बनाने में तीन से पांच साल का समय लगता है. अचानक से रसायनिक खाद और दवा पर बैन लगा देने से बहुतों ने बुवाई नहीं की. नतीजा यह हुआ कि महंगाई बढ़ गई और सप्लाई कम हो गई. वहां की सरकार आयात संकट से जूझ रही थी. पैसे नहीं थे आयात बिल के लिए तो आर्गेनिक खेती के नाम पर यह फैसला कर लिया गया. सरकार किसानों पर आरोप लगाने लगी कि विरोध करने वाले रसायनिक कंपनियों के दलाल हैं. आज श्रीलंका की सरकार ने अपना यह फैसला वापस ले लिया है. अच्छी नीयत के नाम पर लिए गए इस फैसले और इसकी वापसी की तुलना आप भारत में तीनों कृषि कानूनों से कर सकते हैं. अगर सरकार ने बातचीत कर यह कदम उठाया होता, किसानों की सुनी होती तो समझ पाती कि आर्गेनिक खेती की दिशा में कैसे बढ़ना है.

भारत में भी आर्गेनिक खेती के साथ ही ज़ीरो बजट की खेती की बात होती रही है. 2016 में कृषि विभाग के तत्कालीन अपर सचिव अशोक दलवाई की अध्यक्षता में एक कमेटी बनी थी. खेती से आमदनी दोगुनी करने के तरीके सुझाने के लिए इस कमेटी ने 14 खंडों की रिपोर्ट दी है. 1000 पन्नों से अधिक की रिपोर्ट है ये. 2017 में आए इसके खंड छह वाली रिपोर्ट में बीस पन्ना आर्गेनिक खेती पर भी है. बताने का मकसद यह है कि 2021 में प्रधानमंत्री ज़ीरो बजट के लिए एक कमेटी बनाना चाहते हैं. नीयत के हिसाब से यह बिल्कुल ठीक बात है, ज़ीरो बजट या आर्गेनिक खेती होनी ही चाहिए. जब इस नीयत की यात्रा की पड़ताल करेंगे तो पता चलेगा कि पांच साल लगा दिए कमेटी ही बनाने मे. इसका भी ट्रैक रिकार्ड देख लीजिए.

2016 में सुभाष पालेकर को ज़ीरो बजट खेती के लिए पद्म श्री दिया गया था तब ज़ीरो बजट की खूब बात हुई थी. लेकिन अब तो 2021 समाप्त हो रहा है. इन पांच सालों में ज़ीरो बजट को लेकर केवल अच्छी नीयत वाली बातें ही हुई या कुछ ठोस काम हुआ. 2016 में पद्म श्री देने के तीन साल बाद 2019-20 के बजट में वित्त मंत्री ने ज़ीरो बजट खेती की बात की. रसायनिक चीज़ों के इस्तमाल के बिना प्राकृतिक तरीके से खेती करने की नीति का एलान हुआ लेकिन ये सिर्फ एलान ही साबित हुआ. इसी से अंदाज़ा लगाइये कि दो दिन पहले प्रधानमंत्री ज़ीरो बजट फार्मिंग के लिए कमेटी बनाने की बात कर रहे हैं. पांच साल में बात कमेटी पर पहुंची है इसका मतलब है कि सुधार को लेकर सरकार जल्दी में नहीं हैं, उन्हीं सुधारों को लेकर जल्दी है जिसे लेकर आरोप लगता है कि चंद कंपनियों के लिए किया जा रहा है.

क्या आप जानते हैं ज़ीरो बजट पर अच्छी नीयत से अच्छी अच्छी बातें करने वाली सरकार ने इस पर कितना ख़र्च किया है? DMK सांसद कनिमोई करुणानिधि ने लोकसभा में इस बारे में सवाल किया. उसके जवाब में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने बताया कि इस योजना के तहत 8 राज्यों में 49 करोड़ ही खर्च हुए हैं. केवल 49 करोड़. ये हाल है ज़ीरो बजट खेती को प्रोत्साहित करने के बजट का. यह जवाब इसी साल अगस्त का है.

मंत्री ने लिखित जवाब में कहा है कि ज़ीरो बजट नेचुरल फार्मिंग ZBNF का नाम भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति BPKP कर दिया गया है. 2020-21 से परंपरागत कृषि विकास योजना के तहत एक उपयोजना के तौर पर चल रही है. इसके तहत तीन साल में एक हेक्टेयर खेत को आर्गेनिक करने के लिए सरकार 12,200 रुपये की आर्थिक मदद देगी. अभी तक 49 करोड़ की राशि ही खर्च हुई है 8 राज्यों में.

इसीलिए किसानों का कहना है कि हमें कमिटी नहीं, कमिटमेंट चाहिए. 2016 से 2022 आ गया हम ज़ीरो बजट नेचुरल फार्मिंग के मामले में एक और कमेटी तक पहुंचे और कोई 50 करोड़ ही खर्च कर पाए हैं. इसलिए किसान कमेटी बनाने की बात पर अगर संदेह कर रहे हैं तो उनके कारण जायज़ हैं.

प्रधानमंत्री के ऐलान पर भरोसा होता तो किसान लखनऊ में महापंचायत के लिए जमा नहीं होते, यहां भी उनकी यही मांग है कि फैसला बातचीत से हो. सरकार को अब कमेटी की याद आई है. अगर इसी बिल को संसद की स्टैंडिंग कमेटी में भेजा गया होता तो सांसदों की कमेटी अलग अलग किसानों से बात कर रही होती, कानून में सुधार और संशोधन का रास्ता निकाल रही होती. लेकिन संसद की इस संस्था और प्रक्रिया को मौक़ा नहीं दिया गया. किसानों ने कहा कानून वापस हो तो सरकार ने कहा जैसा बना है वैसा ही लागू करेंगे. और क़ानून पास कर दिया. संसद के नाम पर संसद की प्रक्रिया का उल्लंघन करने वाली सरकार के इस क़दम को गोदी मीडिया के दौर में जनता तक नहीं पहुंचने दिया. किसान सड़क पर थे, सरकार ने संसद में क़ानून पास कर दिया. तालाबंदी के बीच किसानों से बातचीत किए बिना अध्यादेश लाया गया. जबकि अध्यादेश तब लाया जाता है जब कोई आपात स्थिति होती है और संसद का सत्र बहुत दूर होता है. संविधान का कोई भी विद्यार्थी पढ़ सकता है कि अनुच्छेद 123 के अनुसार राष्ट्रपति अध्यादेश पर तब दस्तख़त करते हैं जब आपात स्थिति हो और तुरंत कोई कदम उठाना ज़रूरी हो. ज़ाहिर है नीयत साफ नहीं थी. इसे एक और उदाहरण से समझिए. संसद का सत्र शुरू होने वाला है, उसके ठीक कुछ दिन पहले सरकार अध्यादेश के ज़रिए सीबीआई, ईडी के निदेशक के कार्यकाल के विस्तार का कानून लाती है. किसानों ने पत्र में लिखा है कि सरकार प्रस्तावित "विद्युत अधिनियम संशोधन विधेयक, 2020/2021" का ड्राफ्ट वापस ले. 30 दिसंबर को छठे दौर की बातचीत के बाद जब सरकार यह मान गई थी कि बिजली संशोधन विधेयक में बदलाव नहीं करेगी. संयुक्त मोर्चा ने अपने पत्र में लिखा है कि "राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और इससे जुड़े क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता प्रबंधन के लिए आयोग अधिनियम, 2021" में किसानों को सज़ा देने के प्रावधान हटाए जाएं. इस साल सरकार ने कुछ किसान विरोधी प्रावधान तो हटा दिए लेकिन सेक्शन 15 के माध्यम से फिर किसान को सजा की गुंजाइश बना दी गई है.

एक अहम सवाल यह भी है कि प्रधानमंत्री ने जीरो बजट और MSP पर विचार करने के लिए कमेटी की बात की है उसमें किसानों को भी रखने की बात कही है. क्या उस कमेटी में संयुक्त किसान मोर्चा से जुड़े नेता भी होंगे? या अशोक दलवाई की कमेटी जैसा हाल होगा. जिसके 16 सदस्यों की कमेटी में ज्यादातर सरकारी पक्ष के थे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भारतीय किसान संघ के अखिल भारतीय महासचिव उसके सदस्य बनाए गए थे. इसलिए किसान कानून वापसी के अलावा अन्य बातों पर सरकार से बातचीत करना चाहते हैं. संयुक्त किसान मोर्चा ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा है.

प्रधानमंत्री जी, देश के करोड़ों किसानों ने 19 नवंबर 2021 की सुबह राष्ट्र के नाम आपका संदेश सुना. हमने गौर किया कि 11 राउंड वार्ता के बाद आपने द्विपक्षीय समाधान की बजाय एकतरफा घोषणा का रास्ता चुना, लेकिन हमें खुशी है कि आपने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा की है. हम इस घोषणा का स्वागत करते हैं और उम्मीद करते हैं कि आपकी सरकार इस वचन को जल्द से जल्द और पूरी तरह निभायेगी.

किसानों को प्रधानमंत्री की बात पर भरोसा नहीं है. ये भले ही उनके अनुसार कुछ किसान हैं लेकिन कुछ किसानों को प्रधानमंत्री की बात पर भरोसा नहीं है. अगर आप कृषि को लेकर प्रधानमंत्री के पुराने वादों का ट्रैक रिकार्ड देखेंगे तो कई मामलों में किसानों की यह बात पूरी तरह से ग़लत भी नहीं लगती है. न्यूनतम समर्थन मूल्य के सवाल पर ही उन्हें परख लीजिए. किसानों की यह मांग आज की नहीं है. बहुत पुरानी है. दो साल लगाकर 2006 में स्वामिनाथन कमेटी ने एक फार्मूला बनाया था. उसी के आधार पर बीजेपी ने 2014 के घोषणा पत्र में डाला कि जो लागत होगी उसका पचास फीसदी कम से कम मुनाफा जोड़ कर दाम देंगे. कम से कम लिखा है. लेकिन एक साल के भीतर 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने हलफनामा दिया कि हम नहीं दे सकते हैं. अप्रैल 2014 में पंजाब के पठानकोट की एक रैली में किसानों से वे क्या वादा कर रहे थे, एक बार फिर से सुन सकते हैं.

यह बात 2014 के घोषणा पत्र में लिखी हुई थी. तब क्या वोट बनाने के लिए ऐसा किया गया था और वोट मिलने के बाद बाज़ार बिगड़ने की चिन्ता की जाने लगी? करीब दो साल लगाकर स्वामीनाथन आयोग ने भारतीय कृषि पर विस्तृत रिपोर्ट तैयार की थी. अक्तूबर 2006 से यह रिपोर्ट भारत सरकार के पास है. तब से न्यूनतम समर्थन मूल्य के फार्मूले और गारंटी को लेकर किसान मांग कर रहे हैं. जब न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग ने ज़ोर पकड़ा तब नीति आयोग एक नया सुझाव लेकर आया कि इसके बदले बाज़ार और मंडी के भाव में जो अंतर होगा वो सरकार देगी. मध्य प्रदेश में भावांतर योजना के नाम से यह चल रहा था. भारत सरकार ने प्रधानमंत्री आशा नाम से एक योजना लांच कर दी. इसका पूरा नाम था प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान, PM ASHA, 2018-19 और 2019-20 में पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर लांच किया जाता है.

2019-20 के बजट में इस अभियान के लिए 2400 करोड़ की मांग की जाती है लेकिन 1500 करोड़ रुपया ही आवंटित किया जाता है. संशोधित बजट में 321 करोड़ दिया जाता है और खर्च होता है 313 करोड़.

सरकार किसानों को उनका दाम देने के मामले में कितनी गंभीर है आप देख सकते हैं।कितना कम खर्च होता है. यह बताने का मकसद यह है कि सरकार कमेटी और योजना के नाम पर तरह तरह के प्रयोग करती रहती है और मामले को टालती रहती है. यही कारण है कि किसानों को प्रधानमंत्री के भाषण पर भरोसा नहीं है. जिस भाषण को जनता फैसला समझ लेती थी अब उसे फिर से भाषण समझने लगी है. न्यूनतम समर्थन मूल्य के नाम पर कमेटी बनाने का फैसला नया नहीं है. किसान जानते हैं. 2016 में अशोक दलवाई की अध्यक्षता में में जो कमेटी बनी थी उसकी रिपोर्ट में भी न्यूनतम समर्थन मूल्य का कई बार ज़िक्र है.

न्यूनतम समर्थन के खिलाफ कई तरह का प्रचार होने लगा है. क्या संभव है कि कोई सरकार सारे अनाज ख़रीद ले, क्या संभव है कि कोई सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी दे, क्या इससे उसका बजट नहीं बिगड़ जाएगा?

न्यूनतम समर्थन मूल्य के अलावा किसानों की आय दोगुनी करने के सवाल पर भी आप सरकार का ट्रैक रिकार्ड देख सकते हैं. बेशक सरकार ने एक भारी-भरकम कमेटी बनाई, उसकी रिपोर्ट आई लेकिन उस रिपोर्ट के आधार पर किए जा रहे प्रयासों का क्या नतीजा आ रहा है, इसे लेकर क्या कोई अध्ययन हुआ है? हम कैसे और किस आधार पर एक महीने बाद जानेंगे कि किसानों की आमदनी दो गुनी हो गई है. 2016 से किसानों की आय दोगुनी होने की बात की जा रही है, आजकल तो नोटबंदी की तरह इसकी भी चर्चा बंद है. 2022 आ गया. इस साल जुलाई में एक सवाल के जवाब में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने जो संसद में कहा है उससे पता चलता है कि इसे लेकर वह कितनी गंभीर है. कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने लिखित जवाब में कहा था कि इस वक्त सालाना आमदनी का कोई ताज़ा आंकलन नहीं है. मंत्री ने कहा है कि 2015-16 में जितनी सालाना आय थी उसके आधार पर दोगुनी होगी. लेकिन 2016-21 के बीच हुए प्रयासों के आधार पर साल दर साल आमदनी कैसे बढ़ रही है इसका कोई ताज़ा अध्ययन नहीं है. बीजेपी का दावा है कि मोदी जी के बराबर किसी किसान नेता ने काम नहीं किया.

यह बात किसान अच्छी तरह जानते हैं. फसल बीमा का रिकार्ड किसानों को पता है. खुद गुजरात इस योजना से बाहर हो गया है. आमदनी दोगुनी करने और न्यूनतम समर्थन मूल्य के वादे का भी हाल सामने है. किसान अब चाहते हैं कि सरकार वाकई काम करे उनकी मांग के अनुसार काम करे. केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा को बर्खास्त करे.

लखनऊ में पुलिस महानिदेशकों की बैठक में जब गृहमंत्री अमित शाह पुलिस को यह कह रहे थे कि उन्हें राजनीति के हिसाब से पुलिसिंग नहीं करनी चाहिए तब मंत्री अजय मिश्रा मंच पर ही थी जिनके बेटे की जांच को लेकर पुलिस पर सवाल उठ रहे हैं. जिनकी बर्खास्तगी की मांग किसान मोर्चा के नेता कर रहे हैं क्योंकि अजय मिश्रा की जीप से ही किसान कुचल कर मारे गए. उसमें तो बीजेपी के कार्यकर्ता और पत्रकार भी थे. सुप्रीम कोर्ट ने भी मंत्री का नाम लिए बग़ैर कई तरीके से पुलिस की जांच को लेकर सवाल उठाए है. कोर्ट कमेटी बना रहा है, पुलिस के अधिकारी खुद तय कर रहा है लेकिन अजय मिश्रा गृहमंत्रालय में बने हुए हैं.

यही नहीं लखीमपुर खीरी केस में मारे गए किसी भी किसान के परिवार से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मुलाकात नहीं की है. न तो वे किसानों के घर गए और न उनके परिजनों को बुलाकर मुलाकात की.

आम तौर पर वे ऐसी स्थिति में मृतक परिवारों को लखनऊ या जहां होते हैं वहां बुलाकर मिलते हैं. जैसे कानपुर के व्यापारी मनीष गुप्ता के परिजनों को बुलाकर पुलिस लाइन में मुलाकात की, इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह के परिवार को तब लखनऊ बुला लिया जब उनका श्राद्ध कर्म भी पूरा नहीं हुआ था. लेकिन इसके बाद भी सुबोध कुमार सिंह की हत्या का मामला अंजाम पर नहीं पहुंचा है.

किसानों ने सिंघु बॉर्डर पर ज़मीन मांगी है ताकि शहीद किसानों की स्मृति में स्मारक बन सके. स्मारक बनाने में सरकार कभी पीछे नहीं रहती, कई हज़ार करोड़ तो कई स्मारक बनाने में खर्च हो गए होंगे तो फिर सरकार को साफ करना चाहिए कि शहीद किसानों के स्मारक बनाने पर उसका क्या रुख है. किसानों की यह भी मांग है कि शहीद हुए 700 से अधिक किसान परिवारों को मुआवज़ा मिले, उनके पुनर्वास की व्यवस्था हो. तेलंगाना के मुख्यमंत्री ने सभी शहीद किसानों के परिवारों को 3-3 लाख देने का एलान किया है. मात्र 23 करोड़ खर्च आएगा. केंद्र सरकार अभी तक किसानों की इस मांग पर चुप है.

11 फरवरी को लोकसभा में जब राहुल गांधी ने शहीद किसानों के सम्मान में दो मिनट के मौन की मांग की तो बीजेपी ने हिस्सा नहीं लिया. अगले दिन बीजेपी के सांसद संजय जायसवाल, राकेश सिंह औऱ पी पी चौधरी ने विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव रख दिया कि उन्होंने सदन में शहीद किसानों के लिए दो मिनट का मौन रख कर संसद की अवमानना की है. प्रधानमंत्री मोदी ने आज तक एक शब्द नहीं कहा है. क़रीब 500 किसान अकेले पंजाब से शहीद हुए है. पंजाब सरकार ने इनके परिजनों को पांच लाख का मुआवज़ा और योग्यता के अनुसार सरकारी नौकरी देने का वादा किया था. 450 के करीब किसानों को राज्य सरकार ने मुआवज़ा दे दिया है. लेकिन नियुक्ति पत्र के मामले में द वायर की रिपोर्ट है कि केवल 250 परिवारों को नियुक्ति पत्र दिया गया है. वायर के विवेक गुप्ता की रिपोर्ट में बताया गया है कि शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने एक लाख का मुआवज़ा देने का एलान किया था. लेकिन अभी तक 200 परिवारों को ही पैसे मिले हैं. उसी तर्ज पर हरियाणा, यूपी और मध्य प्रदेश और अन्य राज्यों के किसानों को मुआवज़ा क्यों नहीं मिलना चाहिए. वैसे करनाल में विरोध प्रदर्शन के दौरान किसान सुशील काजल की मौत के बाद जब किसानों ने विरोध प्रदर्शन किया तब हरियाणा सरकार ने 25 लाख रुपये देने की बात मान ली, दिए भी. परिवार के सदस्य को नौकरी देने की मांग मान ली तो हरियाणा के शहीद हुए बाकी किसानों के मामले में राज्य और केंद्र सरकार अपना रुख क्यों नहीं स्पष्ट करते हैं.

इसलिए बातचीत ज़रूरी है. अगर सरकार संसद में कानून पास करने से पहले बातचीत और किसानों के सुझावों को महत्व देती तो शायद सहमति का कानून बन गया होगा लेकिन सरकार ने सुनी नहीं.

यह भी देखिए कि किसान आंदोलन केवल विरोध का आंदोलन नहीं है, उसका आंदोलन अपने मुद्दों से जुड़ी सूचनाओं और समझ के आधार पर यहां तक आया है. कृषि कानूनों के दुनिया भर के अनुभवों पर भाषण हुए हैं, पर्चे लिखे गए हैं. इसमें कृषि अर्थशास्त्री देवेंद्र शर्मा का योगदान कम नहीं है. अकेले इस शख्स ने खेती के वैकल्पिक अर्थशास्त्र को हिन्दी में लिखकर बोलकर किसानों को समझा दिया. आज बहुत से किसान उन्हीं बातों को दोहरा रहे हैं जो देवेंद्र शर्मा लिखा करते हैं. किसान आंदोलन के बीच अमरीका और कनाडा के कृषि सुधारों की सूचनाएं भी पहुंची हैं.

इसलिए अमरीकी किसानों के लिए भी भारतीय किसानों के आंदोलन का बड़ा महत्व था. वे इस नज़र से देख रहे थे कि अगर भारत के किसान हार गए तो किसानों की लड़ाई दुनिया में हर जगह खत्म हो जाएगी. लेकिन लगता है कि किसानों की लड़ाई जीत में बदलने लगी है.

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