आलसी विपक्ष का भी तो एक साल पूरा हुआ है

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी (फाइल फोटो)

26 मई को विपक्ष के भी एक साल पूरे हो रहे हैं। सरकार के साथ-साथ विपक्ष का भी मूल्यांकन किया जाना चाहिए। पूरे साल के दौरान विपक्ष की क्या भूमिका रही है और मोदी सरकार के एक साल पूरे होने के संदर्भ में उसकी क्या कार्य योजना है। क्या विपक्ष ने इस मौके पर सतही नारेबाज़ी के अलावा कोई ठोस आलोचना पेश की है। विपक्ष ने सरकार के दावों को नकारने का काम तो किया है लेकिन क्या उसकी तरफ से ऐसे विकल्प पेश किये गए हैं, ऐसे तर्क गढ़े गए हैं जिससे जनता के मन में सरकार की नीयत के प्रति गहरा संदेह पैदा हो। सिर्फ चंद मौकों पर सरकार की चूक का लाभ उठाकर विरोध करना ही विपक्ष का काम नहीं है। मैं विपक्ष का मूल्यांकन इस बात पर भी नहीं करना चाहता कि कितनी नीतियों में सरकार का साथ देकर सकारात्मक भूमिका निभाई बल्कि इस बात को लेकर करना चाहता हूं कि सरकार की बड़ी योजनाओं को वैचारिक स्तर पर क्या ठोस चुनौती दी गई।

हो सकता है विपक्ष ने चुनौती दी भी हो लेकिन वो चुनौती बड़े स्तर पर दर्ज हो इसका प्रयास तो कम ही दिखता है। कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह अपने बेटे की शादी की तैयारियां छोड़कर प्रेस कांफ्रेंस कर मोदी सरकार पर सवाल तो खड़े करते हैं, कांग्रेस की तरफ़ से एक दो प्रेस कांफ्रेंस भी होती है लेकिन इससे ज़्यादा कुछ नहीं होता है। बाकी दलों की सक्रियता भी प्रेस कांफ्रेंस से ज़्यादा की नहीं है। जैसे सरकार का काम दावा करना रह गया है वैसे ही विपक्ष का काम खारिज करना हो गया है।

मैं टीवी कम देखता हूं लेकिन फिर भी अंदाज़ा है कि पिछले एक हफ्ते से सरकार के मंत्री न्यूज़ चैनलों के स्टुडियो में इस तरह से हाज़िर रहे हैं जैसे वही उनका मंत्रालय हो। कई बार तो मंत्री इस स्टुडियो से निकलकर उस चैनल के स्टुडियो में जाते भी दिखे। यहां रविशंकर प्रसाद तो वहां नितिन गडकरी। सवाल-जवाब के सख़्त या गंभीर कार्यक्रमों को जलसा में बदल कर पूछ लेने की दोस्ताना औपचारिकता ही पूरी हुई। वही बुनियादी सवाल पूछे गए जो एक साल से टीवी कार्यक्रमों में पूछे ही जा रहे थे। सरकार या बीजेपी के प्रवक्ता उन सवालों का ख़ूब जवाब दे रहे थे लेकिन एक साल के मौके पर ज़मीनी शोध के साथ हमारे पत्रकार, जिसमें मैं भी शामिल हूं, कम ही हाज़िर रहे। ख़ासकर टीवी वाले पत्रकार। विपक्ष भी दर्शकों की तरह टीवी देख रहा है या पत्रकारों के बुलाने पर स्टुडियो जाकर हर दावे का खंडन कर आता है।
 
सबने इस तथ्य को स्वीकार कर लिया कि अब केंद्र सरकार रोज़ 12 किमी सड़क बना रही है लेकिन सड़क परिवहन और हाईवे मंत्रालय की साइट से कुछ और जानकारी मिलती है। वेबसाइट पर लिखा है कि 2013-14 और 2014-15 में 6,300 किमी सड़क बनाने का लक्ष्य था। 2013-14 यानी यूपीए के समय 4,260 किमी सड़कें बनीं और एनडीए के समय 4,410 किमी। नई सरकार ने पुरानी सरकार के ही लक्ष्य को क्यों रखा और पूरा करने के मामले में मामूली अंतर क्यों है। यह केंद्रीय सड़क परिवहन राज्य मंत्री का राज्य सभा में दिया गया बयान है।

उसी तरह से स्वच्छता अभियान का पर्दाफाश टाइप की कुछ रिपोर्ट का ज़िक्र तो सुना लेकिन किसी ने नहीं पूछा कि इस अभियान के तहत कितने सफाई कर्मचारियों को रखा गया है, रखा जाएगा। शहर-गांव साफ रहे इसके लिए क्या सिस्टम बनेगा। सिर्फ हर घर में शौचालय बनने से ही स्वच्छता का लक्ष्य तो पूरा नहीं हो जाता है। गंदगी दिखनी कम भी नहीं हुई है बल्कि वैसी ही दिखती है जैसी दिखती थी। क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिए था कि जनधन योजना के तहत अभी तक दुर्घटना बीमा कितनों को मिली है। कितने खाते में सरकार पैसे जमा करा रही है। जनधन के कितने खातेदारों ने 5,000 रुपये का ओवरड्राफ्ट किया है। जब यह पता चल सकता है कि 15,500 करोड़ जमा हो गए हैं, तो ये सब क्यों नहीं पता चल सकता।
 
मैं यह नहीं कहता कि किसी ने नहीं पूछा होगा या जवाब नहीं दिया होगा। दिया होगा मगर इन अंतर्विरोधों को उभारने का काम सिर्फ पत्रकार का नहीं है। जनता तक पहुंचाने का काम उस आलसी विपक्ष का भी है जो हर दिन सरकार के लड़खड़ाने के मौके गिनता है और प्रेस कांफ्रेंस कर अपना दायित्व पूरा कर देता है। ठीक है कि किसानों के मुद्दे पर कुछ नेताओं ने दौरे किए और सक्रियता दिखाई लेकिन उसके बाद क्या। क्या इसी विपक्ष ने सरकार की कृषि नीतियों के विकल्प में अपनी तरफ से कोई नीति पेश की और बाध्य किया कि आप इस रास्ते चलिए वर्ना किसान मारे जाएंगे। विपक्ष का काम रोकना नहीं है। उसका काम सरकार से अच्छे काम कराना भी होता है। यह पूछना होता है कि कितने लोगों को नौकरियां मिलीं और मिलीं तो इसका विश्वसनीय आंकड़ा कहां से आता है। भले ही पहले की सरकार में नहीं आता हो, लेकिन उम्मीदों की इस सरकार से ढंग के सवाल तो किये ही जा सकते हैं।

सरकार पिछले एक हफ्ते से अपनी बात पहुंचाने के लिए सक्रिय है। मथुरा में प्रधानमंत्री रैली करने वाले हैं। सरकार और बीजेपी मिलकर देश भर में 200 प्रेस कांफ्रेंस करने वाले हैं। अरुण जेटली लगातार प्रेस कांफ्रेंस कर रहे हैं। लेकिन विपक्ष गर्मी की दोपहरी में सुस्ता रहा है। सरकार के दावों को चुनौती देने की उसकी कोई योजना नज़र नहीं आती। क्या कांग्रेस भी जवाब में 400 प्रेस कांफ्रेंस करेगी। क्या राहुल गांधी प्रेस के सामने आकर सरकार के दावों को चुनौती देंगे। 'सूट, बूट की सरकार' या 'चंद उद्योगपतियों की सरकार' के नारे तो आसान नारे हैं। ज़रूर इन नारों से सरकार को परेशानी हुई है और वो लगातार अपनी ग़रीब विरोधी छवि को काउंटर करने में जुटी हुई है मगर इसके अलावा विपक्ष क्या कर रहा है। शायद अपने नारों को हेडलाइन बनते देख खुश हो रहा है।
 
राहुल गांधी की पदयात्राएं काफी नहीं हैं विपक्ष की भूमिका का मूल्यांकन करने के लिए। इस एक साल में विपक्ष का भी सख्त मूल्यांकन होना चाहिए। संसद के दोनों सदनों में चंद मुद्दों पर सक्रियता को छोड़ दें तो विपक्ष को समझ ही नहीं आ रहा है कि बाकी योजनाओं को लेकर सरकार को कैसे घेरा जाए। न सिर्फ घेरा जाए बल्कि जनता को इस बारे में भी शिक्षित किया जाए कि क्यों ये योजनाएं उसके हित में नहीं हैं। विपक्ष से पूछा जाना चाहिए कि सरकार की बड़ी योजनाओं को लेकर वैचारिक और व्यावहारिक सोच क्या है। विपक्ष ने स्मार्ट सिटी पर कोई राजनैतिक नज़रिया पेश नहीं किया। जनधन योजना या बीमा योजना के बारे में कोई सवाल नहीं किया। सिवाय यह बताने कि ये तो हमारी ही योजना थी। श्रम कानूनों में जो सुधार हुए है वो मज़दूरों के लिए अच्छा है या बुरा है। सहयोगी संघवाद पर सरकार के दावों से अलग उसके दावे क्या हैं।

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ये सब वो मुद्दे हैं जिन पर गंभीर अध्ययन करना पड़ता है, चिन्तन की लंबी और ईमानदार प्रक्रिया से गुज़रना होता है। ख़ुद को ख़ारिज कर नए सिरे से खड़ा करना होता है। विपक्ष का बर्ताव उस विद्यार्थी की तरह है जो बस यही सोचकर नाखून चबाता रहता है कि अगले के उससे दो नंबर कम आ जाए। वो ज़माना गया कि चुनाव हारने के बाद नेता दोपहर की नींद खींचने लगते हैं और सरकार अपनी ग़लतियों से लड़खड़ाकर चली जाती है और वे फिर सत्ता में आ जाते हैं। जनता परिवार की एकता के असफल नाटक जैसे जवाबों को भी विपक्ष के हिसाब में शामिल किया जाना चाहिए। बीजेपी के ख़िलाफ़ कांग्रेस भले ही संख्या में कम हो लेकिन इसके आस पास की संख्या वाले विपक्ष में कई दल है। क्या इन सभी दलों ने मिलकर कोई साझा कार्यक्रम के बारे में सोचा जिससे सरकार को भी चुनौती मिलती और एक बेहतर प्रतिस्पर्धा भी होती।